आज हम आपको अमीन सयानी के बारे में जानकारी देने वाले हैं! उन दिनों घर-घर रेडियो सुना जाता था। भारतीय फिल्मी गानों के लिए रेडियो ‘सिलोन’ की फ्रिक्वेंसी सेट की जाती थी। मैं बहुत छोटा था और अमीन सायानी का ‘बहनों और भाइयों’ संबोधन मुझे रट गया था। मुझे यह बिल्कुल याद नहीं कि तब अमीन सायानी रेडियो ‘सिलोन’ से जुड़े थे या विविध भारती से, मगर इतना पता है कि 70 के दशक के सारे हिट गाने उनकी सुनहरी आवाज के पीछे-पीछे चलते चले आते थे। मैं तब स्कूल भी नहीं जाता था और खिड़की पर बहनों और भाइयों की नकल उतारता हुआ अपने मनपसंद सॉन्ग गाने की कोशिश करता था। आज यह बात समझ में आती है कि अमीन सायानी की सफलता का राज यही था कि वो एक ही समय में परफेक्ट होने के साथ-साथ इतने सरल थे कि एक बच्चा तक उनके अंदाज की कॉपी कर सकता था। बहरहाल अमित सायानी को जल्द ही एहसास हो गया कि उनकी आवाज लोग अपने ड्राइंग रूम या बेडरूम में बैठकर सुनते हैं और उनको किसी ऐसी अतिरंजित शैली से बचना चाहिए जो बोलने और सुनने वाले के बीच दूरी का अहसास कराए। लिहाजा उन्होंने स्वाभाविक बोलचाल की शैली पर काम किया, एक ऐसे दोस्त की तरह जो घर पर आया हो चाय के साथ फिल्मों और फिल्मी गीतों पर चर्चा कर रहा हो। कहना न होगा कि न सिर्फ यह आइडिया काम कर गया बल्कि गजब का काम कर गया। बताते हैं कि पहले शो के बाद अमीन सायानी के लिए 9000 चिट्ठियां आईं। कुछ में गीतों के लिए अनुरोध किया गया था तो बहुत सारे खत फीमेल फैंस के थे जिनको अमीन की आवाज बहुत रोमांटिक लगी थी।
अमीन सायानी ने अपने बड़े भाई हामिद सायानी की सलाह पर ऑल इंडिया रेडियो में हिंदी ब्रॉडकास्टर के लिए आवेदन किया, लेकिन उनकी आवाज रेडियो के लिए रिजेक्ट कर दी गई थी। कहा गया, ‘स्क्रिप्ट पढ़ने का आपका हुनर अच्छा है, लेकिन मिस्टर सायानी आपके तलफ्फुज में बहुत ज्यादा गुजराती और अंग्रेजी की मिलावट है, जो रेडियो के लिए अच्छी नहीं मानी जाती।’
फिर अमीन ने अपनी आवाज पर काम किया और एक ऐसी शैली लेकर आए, जिसमें स्वाभाविक शिष्टाचार था, आवाज की पिच न बहुत हाई थी और न ही लो, सुनने वाले को लगता था कि वह किसी मिलनसार, आधुनिक शहरी से रू-ब-रू हो रहा है। सायानी ने नव-साक्षरों के लिए निकलने वाली एक पाक्षिक मैगजीन की एडिटिंग, पब्लिकेशन और मुद्रण में अपनी मां कुलसुम सायानी की मदद की थी। रहबर 1940 से 1960 नाम से निकलने वाला यह पाक्षिक एक साथ देवनागरी , उर्दू और गुजराती लिपियों में पब्लिश हुआ था। गांधी जी के दिशा निर्देश में निकलने वाली इस पत्रिका का मूल संकल्प ये था कि इसे सरल हिंदुस्तानी भाषा में निकाला जाए। इस सरल हिन्दुस्तानी को पढ़ने-समझने के रियाज ने उन्हें अपनी शैली बनाने में भी मदद की।
अमीन सायानी की लोकप्रियता का एक और बहुत बड़ा कारण गीतों का काउंट डाउन था। इसे समझने के लिए थोड़ा सा पीछे इतिहास में जाना होगा। कोलंबो से बीबीसी के लॉन्च होने के ठीक तीन साल बाद एक मीडियम वेव की फ्रिकवेंसी पर कोलंबो रेडियो शुरु हुआ। ये एशिया का पहला रेडियो स्टेशन और दुनिया का दूसरा सबसे पुराना रेडियो स्टेशन था। रेडियो सिलोन की हिंदी सेवा 50 के दशक की शुरू हुई। उन दिनों ग्रेग रोस्कोव्स्की बिनाका हिट परेड प्रस्तुत किया करते थे। इसमें अंग्रेजी पॉप म्यूजिक का काउंट डाउन होता था। यह कार्यक्रम भारत के संगीत प्रेमियों में भी खासा लोकप्रिय था। दर्शकों ने इसी शैली में हिंदी में फिल्मी गीतों की उलटी गिनती का अनुरोध किया और इस बारे में बहुत सारी चिट्ठियां आती रहती थीं। यहीं से बिनाका गीतमाला का जन्म हुआ।
अमीन सायानी ने इस काउंट डाउन के सस्पेंस को अपनी आवाज में घुलामिलाकर इस तरह प्रस्तुत किया कि श्रोता एक मिनट के लिए भी उन्हें ‘मिस’ नहीं करना चाहते थे। आखिरी ‘पायदान’ (इस शब्द का उन्होंने बहुत प्यारा इस्तेमाल किया) से लेकर पहले पायदान तक जाने का सफर इस कदर रोचक होता था कि इसकी कोई दूसरी मिसाल शायद ही मिले। परंपरागत संबोधन की शैली ‘भाइयों और बहनों’ को बदलकर उन्होंने ‘बहनों और भाइयों’ कर दिया। ‘नमस्कार बहनों और भाइयों, मैं आपका दोस्त अमीन सायानी बोल रहा हूं…’ पहली बार अमीन सायानी ने 1952 में श्रीलंका के रेडियो सिलोन से यह शब्द कहे तो एक नए आजाद देश के लोग रोमांचित हो उठे। पहली बार ऐसा हुआ कि रेडियो से किसी आवाज की गर्मजोशी और मिलनसारिता ने अब तक चली आ रही रेडियो की परंपरागत गंभीरता और कठोरता को छिन्न-भिन्न कर दिया।
अमीन सायानी ने एक अखबार के दिए इंटरव्यू में कहा था वे इस बात के लिए आज भी गर्व महसूस करते हैं कि उन्हें आजादी के ठीक बाद लाखों श्रोताओं के साथ हिन्दुस्तानी में संवाद करने का अवसर मिला। एक युग का अंत हुआ। उन्हें भी इस बात पर गर्व होना चाहिए जो रेडियो के इस सुनहरे दौर के गवाह रहे और यह कह सकते हैं, ‘हमें गर्व है कि हमने अमीन सयानी को सुना था!’