यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या एमएसपी जरूरी है या गैर जरूरी! MSP का मतलब न्यूनतम समर्थन मूल्य है। यह किसानों के हित के लिए सरकार की ओर से बनाई गई व्यवस्था है। इसके तहत सरकार फसल की एक न्यूनतम कीमत तय करती है। अगर बाज़ार में फसलों के दाम कम भी हो जाएं, तो किसान आश्वस्त रहता है कि उसकी फसल सरकार कम से कम इस कीमत पर ज़रूर खरीद लेगी। कुल मिलाकर MSP कृषि उत्पादन को सुरक्षित करने और किसानों के जीवन को सुधारने के लिए कृषि व्यवस्था का एक अहम हिस्सा है। बात 1930 के दशक की है। उस दौरान अमेरिका में मंदी के हालात थे। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डेलानो रूज़वेल्ट ने किसानों को सहारा देने के लिए प्राइस सपोर्ट पॉलिसी बनाई। उस समय पूरी अर्थव्यवस्था को मंदी की स्थिति से बाहर लाने के लिए जो नीति बनी थी, उसका नाम था न्यू डील पॉलिसी और प्राइस सपोर्ट पॉलिसी उसका ही एक हिस्सा था। प्राइस सपोर्ट पॉलिसी की अमेरिका को उस दौर में मंदी से उबारने में बड़ी भूमिका रही। उसके बाद दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों ने इसे अपनाया है। चीन में यह काफी कारगर भी साबित हुई।
भारत जब आज़ाद हुआ तो खाद्यान्न का संकट भी उतना ही बड़ा था, जितना बड़ा संकट बंटवारे के बाद जनसंख्या के अदल-बदल का। उस दौर में 1951 से लेकर 1965 तक भारत अमेरिका से खाद्यान्न के आयात पर निर्भर रहा। 1965 में जब भारत-पाकिस्तान का युद्ध हुआ तो अमेरिका पाकिस्तान के साथ खड़ा था और भारत के संबंध रूस के साथ थे। यह बात अमेरिका को नागवार गुज़री और नाराज़गी में उसने भारत को राशन की सप्लाई बंद कर दी। उस दौरान खाद्यान्न का भयंकर संकट आया, जिसे देश में 1965 का अकाल कहा जाता है। संयोग से उस साल मॉनसून ने भी भारत का साथ नहीं दिया। उसी दौर में बाबा नार्गाजुन ने कविता लिखी थी कि ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’….। स्थिति ऐसी बनी कि खाद्य सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय बन गया। तब तक जापान और फिलिपींस आदि देशों से धान-गेहूं के फसल की बोनी किस्में आ चुकी थीं। इसी स्थिति में भारत में पहली बार MSP का कांसेप्ट साल 1965-1966 में सामने आया। उस समय इसका मकसद उत्पादन बढ़ाना और उसका भंडारण कर जन वितरण प्रणाली के तहत गरीबों तक राशन पहुंचाना था। इसी दौरान FCI भारतीय खाद्य निगम भी बना और यही हरित क्रांति का भी दौर कहा जाता है। हरित क्रांति के लिए हाल ही में भारत सरकार ने एम.एस.स्वामीनाथन को भारत रत्न से सम्मानित किया गया है।
फिलहाल सरकार 23 फसलों के लिए MSP तय करती है। इनमें अनाज और दलहन शामिल हैं। लेकिन MSP पर कानून नहीं होने की वजह से यह पूरे देश में सही ढंग से लागू नहीं हो पाता है। सरकार रवि और खरीफ की फसलों की बुआई से पहले, जिन फसलों पर MSP दी जानी है, उसकी पूरी लिस्ट जारी करती है। पहली लिस्ट जून-जुलाई और दूसरी लिस्ट नवम्बर दिसम्बर में जारी की जाती है। केंद्र सरकार फसलों पर MSP लागू करती है और राज्य सरकारों के पास भी MSP लागू करने का अधिकार है। केंद्र सरकार ने किसानों की फसलों को सही कीमत दिए जाने के लिए साल 1965 में कृषि लागत और मूल्य आयोग यानी CACP का गठन किया था। यह हर साल रबी और खरीफ फसलों के लिए MSP तय करती है। पहली बार 1966-67 में MSP की दर लागू की गई थी। CACP की ओर से की जाने वाली सिफारिशों के आधार पर ही सरकार हर साल 23 फसलों के लिए MSP का ऐलान करती है। हालांकि CACP को कृषि मंत्रालय का ही एक हिस्सा माना जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ही सरकारें फसल की जब भी खरीद करती हैं तो उन्हें MSP देना ही पड़ता है।
जब पहली बार MSP का कांसेप्ट आया था तो उस दौरान सिर्फ धान और गेहूं ही MSP के दायरे में आते थे। बाद में गन्ना और कपास पर भी MSP में शामिल किया गया। 1986 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री थे तो उस दौरान 22 फसलों पर MSP की घोषणा की गई थी। उस नीति का नाम था ‘दीर्घकालीन कृषि मूल्य नीति’। लेकिन गेहूं, धान, कपास और गन्ना पर किसानों को MSP कुछ राज्यों में ही मिलता रहा है। पंजाब और हरियाणा में ही MSP प्रभावी ढंग से लागू हो पाया। लेकिन MSP के आने के बाद से ही इसे प्रभावी ढंग से लागू करने की मांग उठती रही।
क्या है स्वामी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश? जिसे लोग आज स्वामीनाथन आयोग के नाम से जानते हैं, उसका नाम है राष्ट्रीय किसान आयोग। इसके पहले अध्यक्ष थे BJP सरकार के पूर्व कृषि राज्य मंत्री सोमपाल शास्त्री। लेकिन 2004 में जब BJP लोकसभा का चुनाव हार गई तो जून में इसका पुनर्गठन किया गया और इसके अध्यक्ष बने एम. एस. स्वामीनाथन। इस आयोग ने सैकड़ों सिफारिशें की, जिसमें दो ही अहम सिफारिशें थीं। पहला था किसानों को अल्पकालीन लोन दिया जाना और दूसरा संपूर्ण लागत जिसमें किसानों की फैमिली लेबर और ज़मीन का किराया भी शामिल है से 50 फीसदी ज़्यादा MSP तय की जाए। इसके बाद से ही किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार MSP दिए जाने की मांग करने लगे! यह जानना बहुत ज़रूरी है कि अगर MSP है तो किसान मांग किस चीज़ की कर रहे हैं क्योंकि MSP तो कोई नई चीज़ है नहीं। फिलहाल MSP कृषि मंत्रालय की एक व्यवस्था है, किसान इसकी लीगल गारंटी मांग रहे हैं। इसके तहत MSP एक कानून बन जाए। जैसे भारत में मनरेगा कानून है लेकिन MSP कानून नहीं है। किसानों की मांग है कि अगर MSP कानून बन जाता है और उसके बाद MSP से कम कीमत पर कोई फसल खरीदता है तो उसके ऊपर FIR दर्ज हो और वह अपराधी माना जाए। दूसरी सबसे बड़ी मांग है कि स्वामीनाथन आयोग के सिफारिशों के अनुसार ही MSP लागू की जाए।
किसानों की पूरी उपज सरकार MSP पर खरीदे तो उसे सालाना करीब 10 लाख करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। अभी तक यह खर्च 2 लाख 28 करोड़ का है। ऐसा अनुमान बताया जा रहा है। इसकी वजह से देश के राजकीय कोष पर बड़ा दबाव बनेगा।
अगर MSP पर खरीद का कानून बनता है तो अचानक देश में महंगाई बढ़ जाएगी। इसका सीधा असर आम लोगों को पड़ेगा।
देश अब खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। इसलिए इसकी भूमिका खत्म हो चुकी है। ये व्यवस्था हमेशा के लिए नहीं चल सकती । उस दौर में देश की परिस्थितियां अलग थीं।
देश में ज़रूरत से ज़्यादा अनाज का भंडार है और रखने की जगह की कमी होने की वजह से बड़ी मात्रा में अनाज खराब हो जाता है। इसकी वजह से भंडारण की व्यवस्था किए बगैर MSP की कानूनी गारंटी देना मुश्किल है।
उस वक्त सरकार ने किसानों को ज्यादा फसल पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के कदम के तौर MSP की व्यवस्था लागू की थी। अब ‘फूड सरप्लस’ का दौर है और MSP की ज़रूरत खत्म हो गई है।
इसकी वजह से बाजार की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ सकता है। यह बाजार को असंतुलन की दिशा में ले जा सकता है और बाजार की दरों प्रभावित करेगा। 7- MSP किसानों को लगातार निरंतर एक ही फसल की खेती के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इससे भूमि का उपयोग असंतुलित हो सकता है और पर्यावरणीय प्रभाव पैदा हो सकता है।