हाल ही में एमपी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुरेश पचौरी ने कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया है! कांग्रेस में रहते हुए सुरेश पचौरी ने कभी कोई चुनाव नहीं जीता है लेकिन कांग्रेस पार्टी में उनकी अलग धाक थी। सुरेश पचौरी का कांग्रेस के साथ 50 सालों का रिश्ता रहा है लेकिन यह एक झटके में शनिवार को खत्म हो गया है। पचौरी अपने समर्थकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए हैं। इसकी भनक और चर्चा तक कही नहीं थी। ऐसे में सवाल है कि यूं कोई बेगाना नहीं हो जाता है। सुरेश पचौरी के बीजेपी में जाने के बाद यह सवाल जरूर उठ रहा है कि आखिर उन्होंने इतना पुराना रिश्ता क्यों तोड़ लिया है। क्या सुरेश पचौरी को पार्टी में समान नहीं मिल रहा था या फिर अपने ही लोगों ने पचौरी का शिकार कर लिया, जिससे मजबूर होकर उन्होंने यह कदम उठाया है। पचौरी कांग्रेस में राजीव गांधी के समय के नेता हैं, वह उनके दुलारे रहे हैं।सुरेश पचौरी को कांग्रेस में पहली बार 1981 में युवा कांग्रेस के महाचिव का पद मिला था। 1984 में वह यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। राष्ट्रीय यूथ कांग्रेस के 1985 में महासचिव बन गए हैं। अपनी मेहनत और सक्रियता की वजह से कांग्रेस पार्टी ने सुरेश पचौरी को पहली बार 1984 में राज्यसभा भेज दिया। इसके बाद सुरेश पचौरी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी में उन्हें हर बार नई जिम्मेदारी मिलती रही और उसको वह बखूबी निभाते रहे। पचौरी चार बार मध्य प्रदेश से राज्यसभा के सांसद रहे हैं। दो बार केंद्र की सरकार में मंत्री भी रहे हैं। इसके साथ ही वह मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं। 2003 एमपी विधानसभा चुनाव के दौरान दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चुनाव लड़ी थी। पार्टी की करारी हार हुई थी। 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी एमपी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इस चुनाव में सुरेश पचौरी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी। उनके नेतृत्व में पार्टी ने 78 सीटों पर जीत हासिल की थी। वो भी तब जब वह अपनी ही पार्टी के कुछ लोगों को खटक रहे थे।
यही नहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में भी सुरेश पचौरी के नेतृत्व में पार्टी को अच्छी सफलता मिली थी। कांग्रेस का एमपी में उस साल अच्छा प्रदर्शन रहा था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 12 सीटें मिली थी। इसी प्रदर्शन की वजह से वह कांग्रेस नेतृत्व के करीब थे। दिग्विजय सिंह के समय 2003 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस सिर्फ 38 सीटें जीती थी। 2008 में सुरेश पचौरी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया। इस चुनाव में 178 लोग निर्दलीय और दूसरी पार्टी के चिह्न पर चुनाव लड़ रहे थे। आरोप लग रहा था कि इन बागियों को दिग्विजय सिंह का समर्थन हासिल था। इसके बावजूद सुरेश पचौरी के नेतृत्व में कांग्रेस 78 सीटें जीती थी।
बीते 20 सालों की बात करें तो कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 2008 और 2009 में तरक्की की थी। इस बीच में 2018 में भी कमलनाथ के नेतृत्व में अच्छा प्रदर्शन रहा था। वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित ने कहा कि 1984 के बाद एमपी में कांग्रेस लोकसभा के दौरान कभी 12 सीटें नहीं जीती है। यही वजह है कि वह लोगों को खटकते थे। वह दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के करीबी नहीं रहे हैं।
वहीं, मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास अब दूसरी पीढ़ी का कोई दमदार नेता नहीं है। बीजेपी यहां लोकसभा चुनाव की तैयारी को लेकर पूरी ताकत झोंक दी है। एमपी में सभी लोग अलग-थलग हैं। आज की तारीख में स्थिति यह है कि कांग्रेस पर अभी भी गांधी परिवार का ही नियंत्रण है। एमपी में जीतू पटवारी और उमंग सिंघार उन्हीं के करीबी है। सिंघार पर कई आरोप लगे हुए हैं। वहीं, कमलनाथ को इनलोगों ने अपनमानजनक ढंग से हटाया है जबकि कमलनाथ ने कांग्रेस के स्टालवॉर्ट लीडर रहे हैं।
मध्य प्रदेश में आज की तारीख में कांग्रेस और बीजेपी में सीधा मुकाबला है। इसके बावूजद इनकी टकराने की कोई तैयारी नहीं है। अरुण दीक्षित ने कहा कि कांग्रेस आरक्षण बढ़ाने की बात कर रही है लेकिन जब ये लोग जमीन पर रहेंगे तब तो आरक्षण बढ़ाएंगे।
पूर्व मंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता डॉ गोविंद सिंह ने कहा कि जाने वाले लोगों को जो मान-सम्मान चाहिए था, उनको पार्टी नहीं दे पाई। इसलिए वे लोग जा रहे हैं। उनकी महत्वकांक्षा ज्यादा थी। गौरतलब है कि कांग्रेस को मध्य प्रदेश में लगातार झटके लग रहे हैं। एक के बाद एक नेता छोड़कर जा रहे हैं। वहीं, पार्टी इन चीजों से बेफिक्र दिखती है। सुरेश पचौरी जैसे नेता को जाने की भनक तक पार्टी को नहीं लगी।