यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या लोकसभा चुनाव से पहले CAA लाना सही है या नहीं! नागरिकता संशोधन कानून लागू किए जाने के बाद पूछा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव से ऐन पहले इसे लागू करने की क्या जरूरत थी? यह मजेदार सवाल है। अगर CAA को लागू नहीं किया जाता तो यही विरोधी इसे लेकर केंद्र सरकार की आलोचना करते। वहीं, BJP समर्थकों के मन में प्रश्न यह होगा कि इसे लागू करने में इतना समय क्यों लगा? CAA लागू होने में जो देरी हुई, उसकी कई वजहें हैं। पहली बात तो यह कि कानून पारित होने के बाद ही देश कोरोना महामारी के संकट में फंस गया। तब सरकार की प्राथमिकताएं बदल गईं। दूसरे, इसके विरुद्ध प्रदर्शन शुरू होने से भी दिक्कत आई। तीसरे, विदेशी एजेंसियों और संस्थाओं की भी इसमें भूमिका रही। चौथे, सुप्रीम कोर्ट में CAA के खिलाफ जो याचिकाएं दायर हुईं, उनसे निपटने और भविष्य में कोई और बाधा न आए, इसकी व्यवस्था करने में समय लगना ही था।यह कानून उन हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों और ईसाईयों के लिए है, जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के कारण भारत आने को विवश हुए। इस कानून के तहत केवल इन लोगों के लिए नागरिकता लेना आसान बनाया गया है।
नागरिक कानून 1955 में नागरिकता की खातिर आवेदन के लिए किसी विदेशी का 11 साल तक रहना जरूरी है। वहीं, CAA के दायरे में आने वालों के लिए अवधि 5 वर्ष रखी गई है। दूसरी बात यह कि CAA लागू होने के बाद किसी की नागरिकता खत्म नहीं होगी। बेशक, जिन पीड़ित समुदायों का जिक्र ऊपर किया गया है, CAA लागू होने से उनसे जुड़े और लोग भारत आना चाहेंगे। वहीं, जनवरी 2019 की संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार, देश में वर्षों से ऐसे 31, 313 लोग रह रहे हैं। विपक्षी दल CAA का विरोध कर रहे हैं, लेकिन इस मामले में उनका रुख दोहरा रहा है। कैसे, आइए इसे समझते हैं। राज्यसभा में 18 दिसंबर, 2003 को मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘विभाजन के बाद बांग्लादेश जैसे देशों से बहुत सारे लोग भारत आए थे। हमारा रवैया इनके प्रति और उदार होना चाहिए।’
4 फरवरी, 2012 को CPM महाधिवेशन ने बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्धों को नागरिकता देने का प्रस्ताव पारित किया था। 3 जून, 2012 को पार्टी नेता प्रकाश करात ने UPA सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर बांग्लादेश से आए लोगों को नागरिकता देने की मांग की थी। उन्होंने मानवाधिकार के आधार पर ऐसा करने की अपील की थी। वहीं, ममता बनर्जी ने 4 अगस्त , 2005 को लोकसभा में मामला उठाते हुए बांग्लादेश से आए हिंदुओं को नागरिकता देने की मांग की थी। यह मुद्दा आजादी के समय से ही चला आ रहा है। महात्मा गांधी ने 26 सितंबर,1947 को प्रार्थना सभा में कहा था कि हिंदू और सिख वहां नहीं रहना चाहते तो वे भारत आएं। भारत का दायित्व है कि उनके लिए यहां रोजगार सहित अन्य व्यवस्थाएं की जाएं।
डॉ. बाबा साहब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज के 17वें वॉल्यूम के पृष्ठ संख्या 366 से 369 तक इस मामले में उनके विचार लिखे हैं। वह लिखते हैं, भारत में अनुसूचित जातियों के लिए निराशाजनक संभावनाओं के बावजूद मैं पाकिस्तान में फंसे सभी से कहना चाहूंगा कि आप भारत आइए… जिन्हें हिंसा के जोर से इस्लाम मानने को मजबूर किया गया है, मैं उनसे कहता हूं कि आप हमारे समुदाय से बाहर नहीं हुए हैं। मैं वायदा करता हूं कि यदि वे वापस आते हैं तो उन्हें अपने समुदाय में शामिल करेंगे और वे उसी तरह हमारे भाई माने जाएंगे, जैसे धर्म परिवर्तन के पहले माने जाते थे।’ भारत के विभाजन के बाद उम्मीद की गई थी कि ये देश अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देंगे। तब पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की संख्या 22% के करीब थी, जो आज 2% भी नहीं है। बांग्लादेश में तब 28% हिंदू आबादी थी, जो आज 8% रह गई है। हालांकि, उस वक्त बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था। अफगानिस्तान में जो अप्लसंख्यक थे, या तो उनका धर्म परिवर्तन करा दिया गया या वे मार दिए गए या वहां से निकल भागे।
इसलिए आज भारत में मुसलमानों की संख्या तब के 9.7% से बढ़कर 15% के आसपास हो गई। सवाल यह है कि पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को वहां की मजहबी कट्टरपंथी व्यवस्था के हवाले छोड़ दिया जाए? असल में, CAA से उत्पीड़ित शरणार्थियों को सम्मानजनक जिंदगी का अवसर मिलेगा। उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान की रक्षा होगी। असम में तो BJP को ध्रुवीकरण का सियासी लाभ मिला है, लेकिन पश्चिम बंगाल में अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। इसलिए नवंबर, 2023 से जनवरी, 2024 के बीच BJP ने विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों को याद दिलाना शुरू किया कि वह लोकसभा चुनाव में CAA को मुद्दा बनाएगी। फिर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र ने बंगाल के मतुआ बहुल आबादी वाले उत्तरी 24 परगना जिले में कहा कि CAA को लागू करने के लिए नियम का अंतिम मसौदा 30 मार्च तक तैयार हो जाएगा। इसके बाद केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर ने 28-29 जनवरी को मतुआ समुदाय के बीच पहुंचकर कहा कि CAA सात दिनों में लागू हो जाएगा।
CAA के तहत मात्र तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से धार्मिक प्रताड़ना का शिकार होकर 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आए गैर-मुस्लिम समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है। पड़ोसी बौद्ध देश म्यांमार, श्रीलंका से आए किसी भी समुदाय के लिए CAA में प्रावधान नहीं किया गया है। चार वर्ष बाद आम चुनाव से पहले इसकी अधिसूचना इसलिए लागू की गई क्योंकि BJP को इससे ध्रुवीकरण की गुंजाइश दिख रही है। 1955 में बने नागरिकता कानून में यह छठा संशोधन है और सुप्रीम कोर्ट की सीधी मॉनिटरिंग के बावजूद असम का विवाद नहीं सुलझा है। CAA, 2019 की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं। इन विवादों के कारण केंद्र सरकार को CAA नियम अधिसूचित करने में चार साल से ज्यादा लग गए। इस पर विचार कर रही संसदीय समिति से केंद्र ने 9 बार विस्तार मांगा। संवैधानिक प्रावधान के अनुसार CAA लागू होने के 6 महीने के अंदर केंद्र को नियम बनाने हैं। ऐसा नहीं कर पाने पर अवधि का विस्तार मांगना होता है, जो एक बार में 6 महीने से ज्यादा का नहीं मिलता।
CAA में प्रावधान तो अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भी है। मगर यह मामला हिंदू-मुस्लिम तनाव का ही बना। कांग्रेस समेत सभी गैर-BJP दल इसे विभाजनकारी और मतों के ध्रुवीकरण की चाल बता रहे हैं। पूर्वोत्तर में BJP सरकार पर केंद्र की नजर है। इसलिए असम, मेघालय और त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों व अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर में ILP इनर लाइन परमिट के अंतर्गत वाले क्षेत्रों को CAA से बाहर रखा गया है। नागरिकता का आवेदन करने वालों को पहले के 11 साल के बजाए 6 साल प्रवास का प्रमाण देना होगा। चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद केंद्र सरकार ने चुनाव अधिसूचना जारी होने से पहले नागरिकता आवेदन का पोर्टल लॉन्च किया, ताकि आचारसंहिता बाधक न बने। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया ने 12 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में अर्जी देकर CAA अधिसूचना व पोर्टल लॉन्च पर रोक की मांग कर डाली। अब देखने वाली बात है कि अदालत और सरकार इस पर चुनाव से पहले आमने सामने होती हैं, या चुनाव के बाद।