Thursday, September 19, 2024
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क्या इस बार राजनीतिक पार्टियां मिडिल क्लास पर देंगी ध्यान?

यह सवाल उठना लाजिमी है की क्या राजनीतिक पार्टियां इस बार मिडिल क्लास पर ध्यान देगी या नहीं! आम चुनाव में क्या मिडिल क्लास इस बार X फैक्टर बनकर सामने आ सकता है? हाल के वर्षों में मिडिल क्लास शहरी मतदाता इतने प्रासंगिक क्यों नहीं हैं? चुनाव के बीच पिछले कुछ वर्षों से ये सवाल पूछे जा रहे हैं। इसके पीछे कारण यह है कि हाल में तमाम राजनीतिक दलों के लिए मिडिल क्लास हाशिये पर रहा है। हालांकि राजनीतिक दल इससे इनकार करते रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी का दावा रहा है कि मिडिल क्लास को सीधा कोई लाभ सरकार से जरूर नहीं मिला, लेकिन उनकी आकांक्षाओं का हमेशा खयाल रखा और बीते 10 वर्षों में उनकी अपेक्षा पूरी की। बीजेपी ने अपने कैंपेन को भी इसी के अनुरूप बनाया। न्यू इंडिया थीम से इसी तबके से कनेक्ट किया। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काम और ग्लोबल ब्रैंड इमेज को मिडिल क्लास के बीच भुनाया। CSDS के आंकड़ों के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में मिडिल क्लास ने सबसे अधिक एकजुट होकर बीजेपी के पक्ष में वोट किया। तमाम ओपिनियन पोल में मिडिल क्लास के तबके का सपोर्ट उसी के अनुरूप बने रहने की बात कही जा रही है।

बीजेपी को पता है कि मिडिल क्लास को हाशिये में रखने की भूल नहीं कर सकते हैं। पार्टी सही समय पर इनके कनेक्ट का दावा करती रही है। साल 2019 के आम चुनाव में भी बीजेपी को चिंता थी कि मिडिल क्लास तबका उनसे उदासीन हो सकता है।लेकिन तमाम जमीनी आंकड़े बताते हैं कि उन्हें भेदना बहुत कठिन है। विपक्ष का दावा है कि वह कई बार हैरान कर सकते हैं। उनका दावा है कि पुरानी पेंशन योजना हो या 30 लाख सरकारी पद को भरे जाने का मामला, ये ऐसे मसले हैं, जिससे सबसे अधिक सरोकार मिडिल क्लास का है। तब उस निराशा को दूर करने के लिए इनकम टैक्स स्लैब में छूट मिली थी। हालांकि उसमें भी कई किंतु-परंतु थे। लेकिन बड़े तबके को राहत मिली थी। उसका बड़ा असर चुनाव में दिखा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने भाषण में मिडिल क्लास के एस्पिरेशन की बात लगातार करते रहे हैं।

पूरे देश में लोकसभा की ऐसी लगभग 350 सीटें हैं, जहां किसान और ग्रामीण आबादी निर्णायक क्षमता रखती है। शहरी सीटें 150 हैं। मोदी की अगुआई में बीजेपी इस मिथ को बदलने में सफल रही है कि बीजेपी शहरी पार्टी है। ग्रामीण क्षेत्रों में बीजेपी का तेजी से विस्तार हुआ है। ऐसे में पार्टी अपने इस बदलते हुए रूप को और मजबूत करने की दिशा में इस बजट में आगे बढी, जिसके लिए मिडिल क्लास और शहरी आबादी को कुछ देर के लिए नाराज करने का राजनीतिक जोखिम ले सकते हैं। अगर देखा जाए तो शहरी क्षेत्रों में अब भी विकल्पहीनता के अभाव में बीजेपी अपेक्षाकृत मजबूत स्थिति में ही दिख रही है। इसका सबूत है कि हाल के वर्षों में तमाम शहरी निकाय चुनाव में बीजेपी एकतरफा जीत हासिल करती रही है।

विपक्षी दलों को अहसास है कि मिडिल क्लास को अपने पाले में करने की कोशिश हो सकती है, लेकिन तमाम जमीनी आंकड़े बताते हैं कि उन्हें भेदना बहुत कठिन है। विपक्ष का दावा है कि वह कई बार हैरान कर सकते हैं। उनका दावा है कि पुरानी पेंशन योजना हो या 30 लाख सरकारी पद को भरे जाने का मामला, ये ऐसे मसले हैं, जिससे सबसे अधिक सरोकार मिडिल क्लास का है।

विपक्षी दल 2004 की मिसाल देते हैं। तब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी को चुनाव में अप्रत्याशित हार मिली थी। उस हार के पीछे मिडिल क्लास और शहरी वोटर की उदासीनता बड़ा कारण बना था। तब कांग्रेस ने शहरी-मिडिल क्लास सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी का दावा रहा है कि मिडिल क्लास को सीधा कोई लाभ सरकार से जरूर नहीं मिला, लेकिन उनकी आकांक्षाओं का हमेशा खयाल रखा और बीते 10 वर्षों में उनकी अपेक्षा पूरी की। बीजेपी ने अपने कैंपेन को भी इसी के अनुरूप बनाया। न्यू इंडिया थीम से इसी तबके से कनेक्ट किया। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काम और ग्लोबल ब्रैंड इमेज को मिडिल क्लास के बीच भुनाया।इस बार भी कांग्रेस और विपक्षी दल ऐसा ही दावा कर रहे हैं। लेकिन सोशल एक्सपर्ट आशीष रंजन उनके इस दावे से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार इस बार हालात पूरी तरह अलग हैं। अभी मिडिल क्लास के उदासीन होने के कोई संकेत या सबूत नहीं दिखे हैं।

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