Friday, September 20, 2024
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क्या इंदिरा गांधी ने दिया था श्रीलंका को कच्चाथीवू द्वीप?

एक समय ऐसा था जब इंदिरा गांधी ने श्रीलंका को कच्चाथीवू द्वीप दे दिया था! लोकसभा चुनाव के बीच तमिलनाडु में कच्चाथीवू द्वीप श्रीलंका को सौंपे जाने का मुद्दा गरमा गया है। आरटीआई से मिले जवाब में खुलासा हुआ कि 1974 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने एक समझौते के तहत कच्चाथीवू द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया था। आधिकारिक दस्तावेजों और संसद के रिकॉर्ड से पता चलता है कि कैसे उस वक्त की भारतीय सरकार पाल्क स्ट्रेट में एक द्वीप के नियंत्रण की लड़ाई एक छोटे से देश से हार गई। दूसरी ओर श्रीलंका तत्कालीन सीलोन की सरकार ने इस द्वीप छीनने के लिए पूरा जोर लगा दिया था। आरटीआई के जरिए कच्चाथीवू द्वीप को लेकर हुए इस खुलासे के बाद सियासी घमासान तेज हो गया है। तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलाई की ओर से इस द्वीप को लेकर एक आरटीआई आवेदन दिया गया था। इसके जवाब में मिले दस्तावेज से पता चलता है कि कच्चाथीवू द्वीप तत्कालीन सरकार ने श्रीलंका को सौंप दिया था। डॉक्यूमेंट्स के मुताबिक, यह द्वीप भारतीय तट से करीब 20 किमी. की दूरी पर स्थित है। इसका आकार 1.9 वर्ग किमी. है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत की आजादी के बाद से श्रीलंका, जो उस समय सीलोन था, लगातार इस द्वीप पर अपना दावा ठोक रहा था। हालांकि, दिल्ली की सरकार ने दशकों तक इसका विरोध किया। बावजूद इसके आजादी के बाद भारतीय नौसेना तब रॉयल इंडियन नेवी सीलोन की अनुमति के बिना द्वीप पर अभ्यास नहीं कर सकती थी। वहीं, अक्टूबर 1955 में सीलोन की वायुसेना ने इस द्वीप पर अपना अभ्यास आयोजित किया था।

सीलोन के दावे और भारत की ओर से जारी विरोध को देखते हुए 10 मई, 1961 को पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक मिनट में इस मुद्दे को अप्रासंगिक बताकर खारिज कर दिया। उन्होंने लिखा कि मैं इस द्वीप पर दावे को छोड़ने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाऊंगा। मैं इस छोटे से द्वीप को बिल्कुल भी महत्व नहीं देता और मुझे इस पर अपने दावे को छोड़ने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। मुझे यह पसंद नहीं है कि यह विवाद अनिश्चित काल तक बना रहे और संसद में फिर से उठाया जाए।

पंडित नेहरू का ये कमेंट तत्कालीन कॉमनवेल्थ सेकेट्री वाई.डी. गुंडेविया की ओर से तैयार किए गए एक नोट का हिस्सा है। इसे विदेश मंत्रालय (एमईए) ने 1968 में संसद की अनौपचारिक सलाहकार समिति के साथ एक बैकग्राउंडर के रूप में साझा किया था। बैकग्राउंडर में 1974 तक भारत की प्रतिक्रिया का जिक्र किया गया। हालांकि, इसके बाद उन्होंने इस द्वीप पर औपचारिक रूप से अपने दावे को पूरी तरह से छोड़ दिया। विदेश मंत्रालय की ओर से बताया गया कि कच्चाथीवू द्वीप छोड़ने के सवाल का कानूनी पहलू अत्यधिक जटिल है। मंत्रालय में इस प्रश्न पर कुछ विस्तार से विचार किया गया है। हालांकि, भारत या सीलोन के संप्रभुता के दावे की ताकत के बारे में कोई स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

1960 में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल एम.सी. सेतल्वाद की ओपिनियन के मुताबिक, ज्वालामुखी विस्फोट से बने इस द्वीप पर भारत का दावा मजबूत था।। जाने-माने लॉ ऑफिसर ने लिखा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से रामनाड (रामनाथपुरम) के राजा को इस द्वीप का जमींदारी अधिकार सौंपा गया था। इसके मुताबिक, सभी सबूतों के आकलन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस द्वीप पर भारत की संप्रभुता थी। 1875 से 1948 तक लगातार और निर्बाध रूप से प्राप्त अधिकार, जो जमींदारी राइट्स के उन्मूलन के बाद मद्रास राज्य में निहित हो गए, राजा की ओर से स्वतंत्र रूप से प्रयोग किए गए। इस दौरान कोलंबो को कोई टैक्स का भी भुगतान नहीं किया गया। हालांकि, कोलंबो की ओर से किए जा रहे दावों और दस्तावेजों से पता चलता है कि विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव (कानून और संधि) के. कृष्ण राव ने निष्कर्ष निकाला कि भारत के पास इस द्वीप को लेकर एक अच्छा कानूनी केस था। जिसका इस्तेमाल मछली पकड़ने के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए किया जा सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि द्वीप के आसपास श्रीलंकाई नौसेना ने सैकड़ों भारतीय मछुआरों को हिरासत में लिया था। हालांकि, 1960 में कोलंबो की ओर से इस द्वीप को लेकर मजबूत दावे पर के कृष्ण राव ने लिखा कि भारत के पास एक अच्छा कानूनी मामला था। इस पर काफी मजबूती के साथ बहस की जा सकती थी। मैं यह नहीं कह रहा कि हमारे पास कोई मामला नहीं है।

विपक्ष ने 1969 में फिर से इस मामले को जोरदार तरीके से उठाया, बावजूद इसके दोनों पक्ष श्रीलंका के दावे को स्वीकार करने वाले समझौते की ओर बढ़ते रहे। 1973 में कोलंबो में विदेश सचिव स्तर की वार्ता के एक साल बाद, भारत ने इस द्वीप पर अपने दावे को छोड़ने का फैसला किया। इस बात की जानकारी जून 1974 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि को विदेश सचिव केवल सिंह ने दी। इस बैठक में केवल सिंह ने रामनाड के राजा के जमींदारी अधिकारों के साथ-साथ श्रीलंका की ओर से कच्चाथीवु पर कब्जे को साबित करने के लिए कोई दस्तावेजी सबूत पेश करने में विफलता का भी उल्लेख किया।

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