आज हम आपको बताएंगे कि श्राबनी बासकी की सोहराय दीवार कला बाहर कैसे आई! भारत गांवों का देश है। भारत की आत्मा गांवों में बसती है। यहां हर गांव में कम से कम एक अनूठी कला का निवास है। लेकिन वह गांव से निकल नहीं पाती। उस कला के जानकार को कोई सहारा नहीं मिलता है। धीरे-धीरे यह कला विलुप्त हो जाती है, क्योंकि उस परिवार की नई पीढ़ी इसे अपनाने को तैयार ही नहीं होता है। लेकिन, कभी-कभी ऐसे गुमनाम कलाकार भी मुख्य धारा से जुड़ने में कामयाब हो जाते हैं, किसी की मदद की बदौलत। कुछ ऐसा ही किस्सा है पश्चिम बंगाल में पुरुलिया के जंगलों में रहने वाली संथाल परिवार की श्राबनी बासकी का। वह हुंडई मोटर इंडिया फाउंडेशन के आर्ट फॉर होप कार्यक्रम की बदौलत अपनी गृहस्थी की गाड़ी बड़े आराम से खींच रही हैं। यही नहीं, इनके जैसे कई कलाकारों को भी इस कार्यक्रम के बदौलत नई पहचान मिली है। आप यदि झारखंड और उससे लगते पश्चिम बंगाल और ओडिशा के आदिवासी गांवों में जाएं तो उनके मकानों पर आपको एक अलग तरह की चित्रकारी दिखेगी। इसे आदिवासी मिट्टी और गोबर को घोल कर बनाते हैं। उसमें पत्तों और प्राकृतिक रंगों का मिश्रण कर विविध रंग दिया जाता है। जैसे हम आप दिवाली त्योहार से पहले अपने घर-आंगन में रंग-रोगन करते हैं, उसी तरह आदिवासी सोहराय पर्व से पहले अपने घर के दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीप कर चित्रकारी करते हैं। इससे आदिवासियों के मकान खिल उठते हैं।
पश्चिम बंगाल में पुरुलिया जिले के एक आदिवासी गांव में रहने वाली श्राबनी बासकी इसकी कला में पारंगत हैं। लेकिन, उनकी पूछ सोहराय पर्व के आसपास या फिर शादी-ब्याह के अवसर पर ही होती थी। उन्होंने साल 2018 में हरिकथा ट्रेडिशन की शुरुआत की। इससे उनहोंने गंजाम जिले के बुनकरों को जोड़ा। उन्हें कार्यशालाओं के जरिये प्रशिक्षण दिया गया। आज वह गंजाम के कल्चरल हेरिटेज को न सिर्फ संजो रहे हैं बल्कि इसे अगली पीढ़ी तक बढ़ा भी रहे हैं।इस कला से उनकी मौसमी आमदनी तो हो जाती थी, लेकिन नियमित आमदनी का स्रोत यह नहीं बन पाया। लेकिन उसे हुंडई मोटर इंडिया फाउंडेशन के आर्ट फॉर होप कार्यक्रम का सहयोग मिला। उनके साथ ही बदानी मुर्मू और रत्नाबोली बोस भी जुड़ीं। उन्होंने दरिचा फाउंडेशन बनाया। अब वह दीवारों पर भित्ती चित्र तो उकेरती ही हैं, इस कला के पोस्टर्स भी तैयार करती हैं।
हुंडई फाउंडेशन के आर्ट फॉर होप कार्यक्रम में इस बार ओडिशा के गंजाम जिले में रहने वाले लीसा मोहंती का भी चयन हुआ है। वह बचपन में एक चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में सिनेमा में भी काम कर चुके हैं। साल 2008 मंे उन्होंने निर्गुण सेंटर फॉर एक्सीलेंस बनाया। वह नृत्य और संगीत के जरिये भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने का काम करते हैं। लेकिन इससे उनकी गृहस्थी आसानी से नहीं चल पा रही थी। उन्होंने साल 2018 में हरिकथा ट्रेडिशन की शुरुआत की। इससे उनहोंने गंजाम जिले के बुनकरों को जोड़ा। उन्हें कार्यशालाओं के जरिये प्रशिक्षण दिया गया। आज वह गंजाम के कल्चरल हेरिटेज को न सिर्फ संजो रहे हैं बल्कि इसे अगली पीढ़ी तक बढ़ा भी रहे हैं।
गांव-कस्बों की ढेर सारी ऐसी कला है, जिसे नई पीढ़ी नहीं सीखना चाहती। नई पीढ़ी को ऐसी पारंपरिक कला में इसलिए रुचि नहीं है क्योंकि इससे उनकी आमदनी इतनी नहीं होती कि उनकी गृहस्थी चल सके। इसलिए वे कुछ दूसरा काम करने लगते हैं। कलाकारों को भी इस कार्यक्रम के बदौलत नई पहचान मिली है। आप यदि झारखंड और उससे लगते पश्चिम बंगाल और ओडिशा के आदिवासी गांवों में जाएं तो उनके मकानों पर आपको एक अलग तरह की चित्रकारी दिखेगी। इसे आदिवासी मिट्टी और गोबर को घोल कर बनाते हैं। उसमें पत्तों और प्राकृतिक रंगों का मिश्रण कर विविध रंग दिया जाता है। जैसे हम आप दिवाली त्योहार से पहले अपने घर-आंगन में रंग-रोगन करते हैं, उसी तरह आदिवासी सोहराय पर्व से पहले अपने घर के दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीप कर चित्रकारी करते हैं।ऐसे ही कला और कलाकारों को संरक्षण देने के लिए हुंडई मोटर इंडिया फाउंडेशन ने आर्ट फॉर होप कार्यक्रम की शुरुआत की है। इस कार्यक्रम के जरिये चयनित कलाकारों को एक लाख रुपये की सहायता दी जाती है। उन्हें मुख्य धारा से जुड़ने में मदद की जाती है। उन्हें देश में ही नहीं बल्कि विदेशी प्लेटफार्म से भी कनेक्ट करने में मदद की जाती है। और भी जो सहायता की जरूरत पड़ती है, उपलब्ध करायी जाती है।