अमेरिका के मतदाताओं ने डोनाल्ड ट्रम्प को निर्णायक जनादेश दिया है। आप कह सकते हैं कि ट्रम्प अब न केवल रिपब्लिकन पार्टी, बल्कि अमेरिका के भी कर्ता-धर्ता बन गए हैं। उन्होंने दोनों सदन जीते। रिपब्लिकंस के लिए सबसे व्यापक नस्ली-सामाजिक गठबंधन को अपने पक्ष में किया। उनके साथ एलोन मस्क जैसे प्रमुख व्यवसायी थे। अलबत्ता पैसा खर्च करने के मामले में डेमोक्रेट्स ने उन्हें पीछे छोड़ दिया था। इसलिए यह ऐसी जीत नहीं है, जिसके लिए अमीरों और रसूखदारों के दोहन को जिम्मेदार ठहराया जा सके। तीन ऐसे नैरेटिव थे, जिन्होंने डेमोक्रेट्स को चोट पहुंचाई। बाइडेन के कार्यकाल में अमेरिकी विदेश नीति विफल होती दिखी थी। दुनिया के सामने आज दो वैश्विक रूप से परस्पर जुड़े युद्ध मुंह बाए खड़े हैं। मध्य-पूर्व में युद्ध तो डेमोक्रेट्स के लिए दोहरा झटका था। गाजा में नरसंहार का समर्थन करने के लिए उनकी मलामत की गई, जिसने उनसे नैतिक रूप से ऊंचे होने का दावा छीन लिया। ट्रम्प ने प्रवासियों के व्यापक डिपोर्टेशन का जो खतरनाक वादा किया था, वह उस भयावह युद्ध को बढ़ावा देने की तुलना में क्या था, जिसमें 40 हजार लोग मारे गए हों? इस युद्ध ने घरेलू स्तर पर भी असंतोष की भावना पैदा की। यह डेमोक्रेट्स की विश्वसनीयता की कमी का संकेत बना। ट्रम्प भले ही लोकतंत्र के लिए खतरा बताए जाते हों, लेकिन यह तर्क चुनावी तौर पर कारगर नहीं हुआ। पहला यह कि इसे सिर्फ यथास्थिति के बचाव के लिए एक बहाने की तरह देखा जाता है, जो कि पुराने कुलीनों का पक्ष लेता हो। दूसरे, इस जोखिम को समकालीन दुनिया में हिटलर नहीं, ओर्बन (हंगरी के प्रधानमंत्री) जैसे लोगों से ज्यादा मापा जाता है। या अगर कोई ऐतिहासिक समानताओं की तलाश कर रहा हो तो बिस्मार्क और नेपोलियन जैसों से, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत शक्ति को मजदूर वर्ग के लोकलुभावन आधार के साथ जोड़ा। लोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ट्रम्प का सत्ता में आना ज्यादा जोखिम भरा हो सकता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात लिबरल संस्थानों की विश्वसनीयता है। ट्रम्प झूठे हो सकते हैं, लेकिन मीडिया, शिक्षाविदों, वैज्ञानिक समुदायों जैसी संस्थाएं भी आज दागदार हैं, वे अब सत्य की सेवा नहीं कर रही हैं- यह भावना अब व्यापक हो गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बचाव में भी लिबरल्स कमजोर पड़े हैं। जब युद्ध, कोविड और इतिहास के बारे में बड़े झूठ बोले जा रहे हों तो ट्रम्प के निजी झूठ क्या हैं? यह दुनिया के लोकतंत्रों के लिए एक ऐसा साल रहा है, जिसमें पोलैंड से लेकर यूके और भारत तक की मौजूदा सरकारों ने पहले की तुलना में कमजोर प्रदर्शन किया है। सरकारें अपने मतदाताओं को यह समझाने के लिए संघर्ष कर रही हैं कि उनके पास ऐसा आर्थिक ढांचा है, जो अर्थव्यवस्था को मजबूत बना सकता है और मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान कर सकता है। कागज पर तो मौजूदा डेमोक्रेटिक सरकार को चुनाव में बहुत बेहतर प्रदर्शन करना चाहिए था, क्योंकि अमेरिका में आज बेरोजगारी और मुद्रास्फीति दोनों ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर हैं। लेकिन मतदाता आर्थिक खुशहाली को कैसे समझते हैं, यह आंकड़ों से नहीं पता चलता। महंगाई की एक छोटी-सी अवधि ने ही अच्छी अर्थव्यवस्था की यादों को धूमिल कर दिया और भविष्य की चिंताओं ने वर्तमान सम्भावनाओं को पीछे छोड़ दिया। अमेरिका एक ऐसे सामाजिक अनुबंध के लिए लामबंद होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, जो कॉलेज के स्नातकों के साथ ही श्रमिक वर्ग के हितों का भी ख्याल रख सकता हो। ट्रम्प की छठी इंद्री उन्हें बता रही थी कि इस चुनाव में इमिग्रेशन का मुद्दा बहुत बड़ा है और वे सही साबित हुए। उनके इस प्रचार ने जोर पकड़ा कि डेमोक्रेट्स की इमिग्रेशन नीति की कीमत कामकाजी वर्ग के नागरिकों को उठानी पड़ रही थी। उदारवाद के दो गढ़- सैन फ्रांसिस्को और न्यूयॉर्क- लिबरल-कुशासन के पोस्टर बॉय बन गए। मतदान में लैंगिक-अंतर भी दिखा। कमला हैरिस की हार के पीछे अमेरिकी समाज में निहित स्त्री-द्वेष के संकेतों को भी नकारा नहीं जा सकता। गर्भपात उतना महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं निकला, जितनी कि डेमोक्रेट्स को उम्मीद थी। ट्रांसजेंडरों के मुद्दों पर लोग जेंडर और आत्म-निर्णय के नए रूपों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार तो दिखते हैं, लेकिन उन्हें एक ऐसी विचारधारा में बदलने की सम्भावना से पीछे हट जाते हैं, जो आम तौर पर समाज के मानदंडों को मौलिक रूप से बदल देती हो। नस्ल और जातीयता भी परिपाटी पर काम नहीं करती हैं। ट्रम्प पहले से मजबूत होकर आए हैं। उनके पास बड़ा जनादेश है। इस बार उनकी तैयारी भी बेहतर हैं। लेकिन उनके राज में सामाजिक ध्रुवीकरण का गहराना जारी रहेगा। दुनिया के और शांतिपूर्ण व स्थिर होने के भी आसार नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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