सामान्य तौर पर विधारा का प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है! यदि आप किसी भी प्रकार की शारीरिक, मानसिक या यौन कमजोरी से परेशान हों तो आपको विधारा के इस्तेमाल के बारे में जान लेना चाहिए। आप विधारा के गुणों और प्रयोगों को जानते होंगे तो यह पक्का है कि आपको कभी किसी हकीम लुकमान या शेख सुलेमान के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। विधारा शारीरिक दुर्बलता और यौन कमजोरी की रामबाण औषधि है। इसे अश्वगंधा के साथ मिला कर अश्वगंधादि चूर्ण नामक आयुर्वेदिक औषधि बनाई जाती है जो सभी प्रकार की स्नावयिक कमजोरियों को दूर करने की एक प्रभावी दवा है। इसके अलावा अन्य कई रोगों में विधारा का प्रयोग किया जाता है।विधारा का इस्तेमाल जोड़ों का दर्द, गठिया, बवासीर, सूजन, डायबिटीज, खाँसी, पेट के कीड़े, सिफलिश, एनीमिया, मिरगी, मैनिया, दर्द और दस्त में किया जाता है। विधारा की जड़ पेशाब के रोगों तथा त्वचा संबंधी रोगों और बुखार दूर करने में उपयोगी होती है। जड़ का एथेनॉलिक सार सूजन दूर करने के साथ-साथ घाव को भरता है। इसकी जड़ के चूर्ण का मेथेनॉल सार दर्द और सूजन को समाप्त करता है। इसके फूलों का ऐथेनॉल सार उपयुक्त मात्रा में लिए जाने पर घावों को भरता है।
विधारा एक लता प्रजाति की औषधीय वनस्पति है। आयुर्वेद में इसका प्रयोग रसायन यानी सातों धातुओं को पुष्ट करने वाले पदार्थ के रूप में किया जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक समुद्रशोष को ही विधारा मानते हैं तथा दक्षिण में मुम्बई, सूरत आदि के बाजारों में बरधारा या विधारा के नाम से समुद्रशोष या फांग की मूल या शाखाओं के टुकड़े ही प्राय देखने में आते हैं।
इसका एक मात्र कारण यही है कि समुद्रशोष और विधारा में बहुत कुछ समानता पाई जाती है, लेकिन सच यह है कि दोनों पौधे पूरी तरह भिन्न हैं। इस समानता और भ्रम के कारण ही नेपाली और समुद्री इलाकों की भाषाओं तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, गुजराती आदि में इसका नाम समुद्रशोष से मिलता-जुलता है। कुछ विद्वान विधारा तथा निशोथ को एक ही पौधा मानते हैं, लेकिन यह पौधे भी आपस में पूर्णतया भिन्न है।
विधारा के वृद्धदारक और जीर्णदारू नाम से दो भेद हैं। वृद्धावस्था का नाशक होने से वृद्धदारक कहलाता है। इसकी लता लंबे समय तक चिरस्थायी रहने से इसे वृद्ध कहा गया है। इसकी लता की आकृति बकरी की आंत जैसी टेढ़ी-मेढ़ी होने से इसे अजांत्री या छागलांत्रिका कहते हैं। विधारा की लता खूब लम्बी होती है। इसलिए यह दीर्घवल्लरी भी कहलाती है। विधारा की दो प्रजातियों का प्रयोग चिकित्सा में किया जाता है।
इसकी अत्यन्त विस्तार से जमीन पर फैलने वाली, बड़े-बड़े वृक्षों पर चढ़ने वाली शाखा-प्रशाखायुक्त लता होती है। इसके फूल गुलाबी-बैंगनी रंग के, 7-15 सेमी लम्बे, बाहर से सफेद रोयें वाले तथा अन्दर से गुलाबी व जामुनी रंग के होते हैं। इसके फल 2 सेमी व्यास के, गोलाकार, कच्ची अवस्था में हरे तथा पकने पर भूरे-पीले रंग के होते हैं।
कई बार पेट में फोड़ा हो जाता है जिसमें बहुत सारे छेद होते हैं। इन्हें दबाने से इनमें से पीव भी निकलता है। ऐसे फोड़े को विद्रधि यानी बहुछिद्रिल फोड़ा या कार्बंकल कहते हैं। ऐसे फोड़े पर विधारा की जड़ को पीसकर लगाने से फोड़ा ठीक हो हो जाता है।
पेट में दर्द मुख्यतः अपच, कब्ज और गैस के कारण ही होता है। विधारा भोजन को भी पचाता है, कब्ज को भी दूर करता है। विधारा वात यानी गैस को भी नष्ट करता है। पेट दर्द को ठीक करना हो तो विधारा के पत्तों के 5-10 मिली रस में शहद मिलाकर सेवन करें। निश्चित लाभ होगा।
मधुमेह यानी डायबीटिज आज एक महामारी की तरह फैल चुकी है। विधारा डायबीटिज में तो लाभ पहुँचाता ही है, साथ ही यह धातुओं को पुष्ट करके इसे होने से भी रोकता है। विधारा का सेवन करने से मधुमेह होने की संभावना घट जाएगी और शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ेगी। इसके लिए एक से दो ग्राम विधारा चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। इससे पूयमेह यानी गोनोरिया में भी लाभ होता है।
मूत्रकृच्छ्र रोग में पेशाब में जलन और दर्द होता है। पेशाब की मात्रा भी कम होती है। विधारा पेशाब को बढ़ाता है और जलन तथा दर्द में आराम दिलाता है। दो भाग विधारा की जड़ के चूर्ण में एक भाग गाय का दूध मिलाकर सेवन करें। अवश्य लाभ होगा।
यदि गर्भधारण करने में सफलता नहीं मिल रही हो तो विधारा का सेवन करें। विधारा तथा प्लक्ष की जड़ के काढ़े को एक वर्ष तक प्रतिदिन सुबह सेवन करें। इससे स्त्री के गर्भवती होने की सम्भावना बढ़ जाती है।सफेद प्रदर यानी ल्यूकोरिया स्त्रियों में संक्रमण के कारण योनी से सफेद पानी जाने की एक बीमारी है। समय पर चिकित्सा न किए जाने पर स्त्रियों में काफी कमजोरी आ जाती है। विधारा चूर्ण को ठंडे या सामान्य जल के साथ सेवन करने से सफेद प्रदर में लाभ होता है।
पक्षाघात यानी लकवा का एक प्रकार है। अर्धांग पक्षाघात में शरीर का बाँया या दाँया भाग लकवे का शिकार हो जाता है। विधारा की जड़ एवं कई अन्य घटक द्रव्यों के द्वारा बनाए अजमोदादि चूर्ण का सेवन करने से अर्धांग पक्षाघात में लाभ होता है।
विधारा मूल में बराबर भाग शतावर मूल मिलाकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े को 15-30 मिली मात्रा में पीने से गठिया में लाभ होता है।
विधारा की जड़ का काढ़ा बना लें। इसे 15-30 मिली मात्रा में पीने से अथवा 1-2 ग्राम विधारा की जड़ के चूर्ण का सेवन करने से जोड़ों के दर्द, आमवात यानी रयूमैटिस अर्थराइटिस तथा सभी प्रकार की सूजन में लाभ होता है।
गौमूत्र अथवा सौवीर कांजी के अनुपान से विधारा चूर्ण का सेवन करें। इससे एक वर्ष पुराने एवं कठिनाई से ठीक होने वाले हाथीपांव या फाइलेरिया रोग में भी लाभ होता है।
2-4 ग्राम विधारा की जड़ के चूर्ण को कांजी के साथ सेवन करने से हाथीपाँव रोग में लाभ होता है।
त्रिकटु (पिप्पली, मरिच, सोंठ), त्रिफला (आँवला, हरीतकी, बहेड़ा), चव्य, दारुहल्दी, वरुण, गोक्षुर, अलम्बुषा तथा गुडूची के बराबर-बराबर भाग लें। इसका चूर्ण बना लें। सबके बराबर विधारा चूर्ण मिलाकर 10-12 ग्राम की मात्रा में काञ्जी के साथ सेवन करें। पच जाने पर इच्छानुसार भोजन करने से हाथीपाँव, मोटापा, जोड़ों के दर्द, पेट फूलना, कुष्ठ रोग, भूख न लगना आदि वात तथा कफ प्रधान रोग ठीक होते हैं।