एक ऐसा भी समय था जब सभी लोग वोट नहीं दे पाते थे! आज 18 साल से ऊपर के हर व्यक्ति को वोट देने का अधिकार है। लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। साल 1988 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते संसद ने संविधान में 61वां संशोधन किया और उसके जरिए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों में वोट देने के लिए मिनिमम एज 21 से घटाकर 18 साल की गई। लेकिन आजादी के पहले तो 21 साल वालों को भी वोट देने का अधिकार नहीं था। आजादी के पहले इस बारे में लंबी बहसें हुईं कि सभी वयस्कों को मताधिकार मिलना चाहिए या नहीं। इसके विरोध में दलीलें दी गईं कि वयस्क मताधिकार शुरू करने से वोटरों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि वोटिंग का इंतजाम करना मुश्किल हो जाएगा। दूसरी दलील यह थी कि वोटर साक्षर नहीं होगा, तो वह अपने मताधिकार का सही तरीके से उपयोग नहीं कर पाएगा और चुनाव व्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा।
कांग्रेस के नेताओं के दबाव में अंग्रेजों ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत प्रांतीय चुनाव तो कराए, लेकिन उसमें सभी लोगों को वोट देने का अधिकार नहीं दिया। साक्षरता, जाति, जमीन-जायदाद और टैक्स पेमेंट जैसे कई पैमाने लगाकर अधिकतर लोगों को मताधिकार से वंचित कर दिया गया। बमुश्किल 14% लोगों को वोट देने का अधिकार दिया। राजे-रजवाड़ों के कब्जे वाली रियासतों में तो और भी बुरा हाल था। 1928 में भारत के संविधान की बुनियादी बातें तय करने के लिए जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में जो कमिटी बनाई गई थी, उसने वयस्क मताधिकार को सही माना था। पहले गोलमेज सम्मेलन में इस बारे में जो उप-समिति बनी, उसका भी कहना था कि इसे लागू किया जाना चाहिए। पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी सुकुमार सेन।हालांकि 1932 में रिपोर्ट देने वाली इंडियन फेंचाइजी कमिटी इस नतीजे पर पहुंची कि वयस्क मताधिकार का फैसला राज्यों पर छोड़ देना चाहिए।
बाद में संविधान सभा की फंडामेंटल राइट्स सब-कमिटी और माइनॉरिटीज सब-कमिटी ने कहा कि वयस्क मताधिकार को भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया जाए। माइनॉरिटीज और फंडामेंटल राइट्स से जुड़ी अडवाइजरी कमिटी ने इस सलाह को ठीक तो माना, लेकिन सुझाव यह दिया कि मौलिक अधिकार बनाने के बजाय वयस्क मताधिकार की बात को संविधान में कहीं और दर्ज किया जाए। लिहाजा संविधान के आर्टिकल 326 में यह प्रावधान किया गया कि संसद और विधानसभाओं के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे। इस तरह 1951-52 के पहले चुनाव से आजाद भारत में वयस्क मताधिकार लागू हो गया।
26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। अंतरिम सरकार की अगुआई कर रहे थे जवाहरलाल नेहरू। संविधान लागू होने के साथ ही उन्होंने चुनाव को लेकर जल्दबाजी दिखानी शुरू कर दी। वह नहीं चाहते थे कि पड़ोसी पाकिस्तान की तरह भारत में लोकतंत्र को लेकर किसी तरह का संशय पैदा हो। लेकिन दिक्कत यह थी कि जिस चुनाव आयोग को चुनाव करवाने की जिम्मेदारी निभानी थी, वह भी तो नया-नया ही बना था और बिना किसी अनुभव के। पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी सुकुमार सेन।
नेहरू चाहते थे कि 1951 के शुरुआती महीनों में चुनाव हो जाए, लेकिन सेन ने उनसे वक्त मांगा। उन्हें कई गुणा-गणित करने थे। तब लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ होने थे। उस समय लोकसभा की 489 सीटें थीं और निर्वाचन क्षेत्र 401, इनमें से 86 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे थे, जिन पर दो जनप्रतिनिधि चुने जाने थे। एक सांसद एससी या एसटी समुदाय का होना था। वहीं, एक सीट ऐसी भी थी, जहां से तीन जनप्रतिनिधियों का चयन होना था। सेन को लगभग साढ़े 17 करोड़ आबादी के लिए वोटिंग का इंतजाम करना था। और सबसे बढ़कर उनके बारे में सोचना था, जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते। उनके सामने सवाल थे कि ये लोग दर्जनों उम्मीदवारों के बीच अपनी पसंद के कैंडिडेट को कैसे पहचानेंगे?भारत को अपना भविष्य ही नहीं गढ़ना था, बल्कि दुनिया को भी जवाब देना था, तो तैयारी शुरू हुई। हर चीज भव्य और बड़े पैमाने पर। साढ़े 16 हजार क्लर्क 6 महीने के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए। इनको कड़ी ट्रेनिंग दी गई। 19.60 लाख पोलिंग स्टेशन बने। लगभग 20 लाख बुलेटप्रूफ बैलट बॉक्स तैयार करवाए गए। हर निर्वाचन क्षेत्र में हर उम्मीदवार के लिए अलग रंग का बैलट बॉक्स, जिस पर उसका नाम और चुनाव चिह्न भी था। इन बॉक्स को पोलिंग स्टेशन तक पहुंचाने से पहले उस गांव-टोले तक सड़क पहुंची। हिंद महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों तक नावें सामान लेकर गईं।