Sunday, December 22, 2024
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ऐसा समय जब 11,575 फीट पर टैंक लेकर पहुंच गई सेना!

ठीक है सभी समय था जब 11575 फीट पर टैंक लेकर सेना पहुंच गई थी! आजादी मिलने के साथ ही भारत का बंटवारा हुआ। उस वक्त लद्दाख की सुरक्षा जम्मू कश्मीर की फोर्स के जिम्मे थी। पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की नीयत से घुसपैठ की। 2 नवंबर, 1947 को गिलगित पर पाकिस्तान का झंडा लहरा रहा था। पाकिस्तानी लड़ाकों का हौसला बढ़ा और उनकी पोजिशन भी। मई 1948 आते-आते करगिल और द्रास भी हाथ से निकल चुके थे। 14 अगस्त, 1948 को स्कार्दू भी पाकिस्तान के कब्जे में चला गया। पाकिस्तान की गुरिल्ला फौज अब जोजिला पास पर मौजूद थी। 11,500 फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर मौजूद जोजिला पास एक तरह से लेह का दरवाजा है। गिलगित और स्कार्दू से हर मौसम में लेह और करगिल तक पहुंचा जा सकता था। सर्दियों में जोजिला पास बंद होने के साथ लेह और श्रीनगर का संपर्क कट जाता। पूरा कश्मीर पाकिस्तान के हाथ में जाता दिख रहा था। इतने मुश्किल हालात में भी भारतीय सेना ने अपने पराक्रम से बाजी पलट दी। जोजिला पास पर टैंक लेकर पहुंची सेना को देख पाकिस्तानी दुम दबाकर भागे।

श्रीनगर से करीब 100 किलोमीटर दूर, 11575 की ऊंचाई पर स्थित जोजिला दर्रा लद्दाख और कश्मीर घाटी के बीच की कड़ी है। गिलगित और स्कार्दू से हर मौसम में लेह और करगिल तक पहुंचा जा सकता था। सर्दियों में जोजिला पास बंद होने के साथ लेह और श्रीनगर का संपर्क कट जाता। मार्च 1948 आते-आते लेह को उत्तर और दक्षिण, दोनों तरफ से घेरा जा चुका था। भारतीय सेना की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, लेह में मौजूट टुकड़ी को पास में ही एक एयरस्ट्रिप तैयार करने को कहा गया। मई 1948 आते-आते सेना ने यह काम पूरा कर लिया।

जब पाकिस्तानी लड़ाके खालत्से के पास पहुंचने लगे तो मोर्चे पर मौजूद जम्मू कश्मीर स्टेट फोर्स के जवानों ने ब्रिज उड़ा दिया। उस वक्त तक लेह तक लॉजिस्टिक सपोर्ट पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। दुश्मन जोजिला, द्रास और करगिल में बैठा था। श्रीनगर से लेह का रास्ता ब्लॉक था। जनरल केएस थिमाया ने इन तीनों जगहों को खाली कराने का फैसला किया। सितंबर 1948 में ब्रिगेडियर केएल अटल की टुकड़ी को जोजिला पास खाली कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई।

मिशन को ‘ऑपरेशन बाइसन’ नाम दिया गया। जोजिला पास वापस लेने निकली ब्रिगेड में जाट, गोरखा, मराठा लाइट इन्फैंट्री की यूनिट्स शामिल थीं। 3 सितंबर को ब्रिगेड ने हमला बोला लेकिन टेरेन और बर्फबारी के चलते मिशन नाकाम रहा। दुश्मन की पोजिशन बेहद मजबूत थी। आर्टिलरी सपोर्ट के बावजूद आगे बढ़ना नामुमकिन साबित हो रहा था। 13 सितंबर को एक और कोशिश नाकाम साबित हुई।

दुश्मन को पीछे खदेड़ने के लिए जनरल थिमाया ने कुछ ऐसा करने की सोची जिसने लड़ाई का रुख ही बदल दिया। आर्मी रेकॉर्ड्स के अनुसार, जनरल ने 11,500+ फीट की ऊंचाई पर टैंक भेजने का फैसला किया। पूरी दुनिया में इतनी ऊंचाई पर टैंक कभी नहीं तैनात किए गए थे। प्लान था कि दुश्मन को पहले जोजिला से खदेड़ा जाए फिर द्रास और करगिल की ओर कूच किया जाए।

महीने भर के भीतर आर्मी इंजिनियर्स (मद्रास सैपर्स) ने वो ट्रैक तैयार कर लिया जिसके जरिए स्टुअर्ट टैंक्स बालटाल बेस से जोजिला पास तक पहुंच सकते थे। पीर पांजाल रेंज में अखनूर पर मौजूद स्क्वाड्रन की भी मदद ली गई। सेना के अनुसार, 1948 में जम्मू-श्रीनगर रोड धूल-धूसरित थी। बीच में पड़ने वाले झरनों और नदियों पर लकड़ी के कमजोर पुल थे। सेना को हर बार इंजिनियरों की मदद चाहिए थी।

टैंकों के मूवमेंट को सीक्रेट रखना था इसलिए उनकी नली निकाल दी गईं। अंधेरे में भारी पर्दे के बीच टैंक आगे बढ़े। कई पुलों से गुजरने के लिए अतिरिक्त औजर लगे। सेना के अनुसार, करीब महीने भर में टैंक श्रीनगर के पास पहुंच गए। कर्फ्यू लगा दिया गया ताकि टैंकों का मूवमेंट सीक्रेट रहे। इस बीच, 20 अक्टूबर को बर्फ गिरने लगी तो ऑपरेशन बाइसन रोकना पड़ा।

आगे और बर्फबारी होनी थी मगर जनरल थिमाया ने 1 नवंबर की तारीख मुकर्रर कर दी। मौसम चाहे जैसा हो, सेना को अगला हमला उसी दिन करना था। आर्मी वेबसाइट पर ले. जनरल राजिंदर सिंह ‘स्पैरो’ को क्रेडिट दिया गया है जिन्होंने यह चुनौती स्वीकारने में पलभर की भी हिचक नहीं दिखाई। सेना के अनुसार, अब अगर देर की जाती तो लेह और लद्दाख भारत के हाथ से निकल जाता।

1 नवंबर 1948 की दोपहर 2.40 बजे तक टैंक घुमरी बेसिन तक पहुंच चुके थे। उनके पीछे (रॉयल) गोरखा की एक टुकड़ी थी। 1 पटियाला और 4 राजपूत के सैनिक दुश्मनों को उनके ठिकानों से निकाल-निकाल कर मार रहे थे। इतनी ऊंचाई पर टैंक देखकर दुश्मन के होश उड़ गए। आर्टिलरी यूनिट्स ने धुआं-धुआं कर दिया था। आर्मी रेकॉर्ड्स के अनुसार, दुश्मन जान बचाने को इधर-उधर भागा।

जनरल थिमाया ने हुक्म दिया कि कुछ किलोमीटर दूर स्थित मचोई पर फोकस किया जाए। उसी रात 1 पटियाला के सैनिक वहां पहुंच गए। एक बार फिर वही नजारा था। जान बचाकर भागता दुश्मन इस बार एक होवित्जर पीछे छोड़ गया।

माइनस 20 डिग्री तापमान था, बर्फीले तूफान के बीच दुश्मन की पोजिशंस पर टैंक से हमला करना, वह भी बिना प्रॉपर क्लोदिंग और इक्विपमेंट के… दुनिया में कोई सेना इससे पहले ऐसा नहीं कर सकी थी। भारतीय सेना इसमें सफल रही। 4 नवंबर तक सेना जोजिला पास से सिर्फ 18 किलोमीटर दूर रह गई थी।

आगे ऊंचाई पर दुश्मन मौजूद था। एक बार फिर टैंकों की मदद से उन्हें खदेड़ा गया। 15-16 नवंबर तक सेना द्रास पर कब्जा कर चुकी थी। 17-18 नवंबर को सेना ने करगिल की तरफ कूच किया। 22-23 नवंबर तक करगिल के रास्ते में मौजूद हर दुश्मन का सफाया कर दिया गया।

सेना के अनुसार, 5 गोरखा की एक कंपनी ने 4000 मीटर से ज्यादा ऊंची पहाड़ी चढ़ी। इसी बटालियन की एक और कंपनी ने शिंगो नदी पार की और दुश्मन पर दूसरी तरफ से हमला बोल दिया। उसी दिन, लेह से निकली टुकड़ी ने करगिल में लिंक-अप पूरा किया। लेह से श्रीनगर के बीच से दुश्मन का सफाया हो चुका था।

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