आखिर कैसे की जाती है मौसम की भविष्यवाणी?

0
199

आज हम आपको बताएंगे कि मौसम की भविष्यवाणी कैसे की जाती है! अपने यहां अवसरवादी राजनीति के माहिर खिलाड़ियों के लिए अक्सर ‘मौसम वैज्ञानिक’ जैसा नाम दिया जाता है। लेकिन असली मौसम वैज्ञानिक का काम कितना जटिल होता है, कभी ये सोचा है? आखिर मौसम विभाग कैसे जान जाता है कि अगली गर्मियों के बाद मॉनसून कैसा रहेगा? किसी जमाने में कुछ खास पशु, पक्षियों के व्यवहार के आधार पर मौसम की भविष्यवाणियां होती थीं लेकिन भारत में वैज्ञानिक आधार पर मौसम की भविष्यवाणी का सिस्टम कब बना? इंडिया मेटयरलॉजिकल डिपार्टमेंट यानी आईएमडी कब बना, कैसे करीब डेढ़ सदियों के सफर में आज वह मौसम की सटीक भविष्यवाणियां करने के काबिल बना? आज आईएमडी सिर्फ भारत नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए मौसम की भविष्यवाणी के लिए विश्वसनीय स्रोत है। चलते-फिरते, कुछ भी करते उनके दिमाग में मौसम ही चलता रहता है। सैंपल कलेक्ट करने और एक्सपेरिमेंट के लिए वह अक्सर बादलों के बीच उड़ान भरती हैं। कई बार तो 9 किलोमीटर की ऊंचाई पर। कभी-कभी वहां चीजें डरावनी हो जाती हैं। पानी के ड्रॉपलेट्स और बर्फ के सूक्ष्म कण कैसे बनते हैं? इस प्रक्रिया पर प्रदूषण का क्या असर पड़ता है? ये समझने के लिए एक बार जब वह एक्सपेरिमेंट कर रही थीं तो एयरक्राफ्ट के भीतर का तापमान तेजी से नीचे गिर गया। फिर उसकी ऊंचाई कम करनी पड़ी थी।

उस डरावने अनुभव ने भी प्रभाकरण को एक्सपेरिमेंट और स्टडी के लिए बादलों के बीच बार-बार जाने के सिलसिले को नहीं तोड़ा। वह पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटीरयॉलजी IITM में सीनियर साइंटिस्ट हैं। IITM हैदराबाद स्थित इंडियन नैशनल सेंटर फॉर ओशन इन्फॉर्मेशन सर्विसेज और नोएडा स्थित नैशनल सेंटर फॉर मीडियम-रेंज वेदर फोरकास्टिंग के साथ मिलकर मौसम से जुड़ीं घटनाओं जैसे लू, तूफान, मॉनसून के आगमन आदि की निगरानी करती हैं। ये मिलकर मौसम की भविष्यवाणी के गणित आधारित मॉडल को तैयार करते हैं।

ये सभी संगठन मिलकर इंडिया मेटयरलॉजिकल डिपार्टमेंट की मदद करते हैं। जल्द ही आईएमडी 150 साल का होने जा रहा है। वह सैटलाइट डेटा, हाई परफॉर्मेंस वाले कंप्यूटिंग सिस्टम और पहले के आंकड़ों के आधार पर मॉनसून की भविष्यवाणी के साथ-साथ डेली, वीकली और सीजनल वेदर प्रेडिक्शन करती है।

ब्रितानी हुकूमत के दौरान 15 जनवरी 1875 को आईएमडी की स्थापना हुई। सर हेनरी ब्लैनफोर्ड को मेटरयलॉजिकल रिपोर्टर नियुक्त किया गया। 4 जून 1886 को उन्होंने भारत का पहला आधिकारिक सीजनल मॉनसून फोरकास्ट किया। उन्होंने 1882 से 1885 तक हिमालय पर बर्फबारी और मॉनसून की बारिश का संबंध जोड़ते हुए मौसम की भविष्यवाणी को लेकर मॉडल तैयार किया।

1906 में सर गिल्बर्ट वॉकर ने वेदर प्रेडिक्शन का उससे भी ज्यादा जटिल मॉडल तैयार किया। इसमें मॉनसून की बारिश और वैश्विक पैमानों के बीच संबंध को आधार बनाया गया। समय के साथ मौसम की भविष्यवाणी से जुड़े भारतीय मॉडल सटीक आंकलन के करीब पहुंचने लगे। बाद में वसंत गोवारिकर ने 16 ग्लोबल और रीजनल पैमानों पर आधारित एक मॉनसून प्रेडिक्शन मॉडल तैयार किया जिसका 1998 से लेकर इस सदी के आखिर तक इस्तेमाल होता रहा। लेकिन 2002 में गड़बड़ी हो गई। सामान्य मॉनसून की भविष्यवाणी हुई थी लेकिन उस साल सूखा पड़ गया। उसके बाद एक बेहतर मॉडल विकसित करने की जरूरत महसूस हुई।

बेहतर वेदर प्रेडिक्शन मॉडल तैयार करने के उद्देश्य से अर्थ साइंस मिनिस्ट्री के पूर्व सेक्रटरी एम. राजीवन की अगुआई में आईएमडी की एक टीम बनाई गई। टीम ने मौजूदा मॉडलों के विश्लेषण के बाद 2003 में एक टू-स्टेज फोरकास्टिंग सिस्टम विकसित किया। राजीवन कहते हैं, ‘इसका पहला प्रेडिक्शन मध्य अप्रैल के लिए किया गया जो 8 पैमानों पर आधारित था। मई का प्रेडिक्शन 10 पैमानों पर आधारित था। इसके बाद जुलाई में खेती-बाड़ी के लिहाज से बारिश की भविष्यवाणी की गई।’

इन तमाम तकनीकी विकास के बावजूद अब भी कभी-कभी मौसम से जुड़ी भविष्यवाणियां गलत साबित हो जाती हैं। आईएमडी पुणे में क्लाइमेट मॉनिटरिंग ऐंड प्रेडिक्शन सर्विसेज के हेड ओपी श्रीजीत बताते हैं कि मौसम का एकदम परफेक्ट भविष्यवाणी बहुत मुश्किल है। वजह ये है कि जिन पैमानों के आधार पर प्रेडिक्शन किए जाते हैं, वे पैमाने तेजी से बदलते हैं। दीर्घकालीन भविष्यवाणी का शतप्रतिशत सटीक होना मुश्किल होता है। हालांकि, 2021 से जिस मल्टि-मॉडल वेदर प्रेडिक्शन का इस्तेमाल किया जा रहा है उसके नतीजे काफी अच्छे आ रहे हैं। इसी मॉडल का इस्तेमाल अमेरिका, जापान और यूरोप में भी होता है। अब भारी बारिश का 5 दिनों का वेदर फोरकास्ट भी उतना ही सटीक रहता है जितना 10-15 साल पहले एक दिन का फोरकास्ट सटीक हुआ करता था।