कर्नाटक सरकार SC, ST आरक्षण बढ़ाने जा रही है! आरक्षण का मसला एक बार फिर चर्चा में है। कर्नाटक सरकार एससी, एसटी आरक्षण को बढ़ाने की तैयारी कर रही है। इसके लिए राज्य सरकार संविधान की नौवीं अनुसूची का सहारा लेगी। इससे अनारक्षित यानी ओपन कैटिगरी का हिस्सा घट जाएगा। केंद्र सरकार ने धर्मपरिवर्तन कर ईसाई या मुस्लिम बन चुके दलितों को अनुसूचित जाति SC कोटे से आरक्षण के मुद्दे पर विचार करने के लिए पूर्व सीजेआई केजी बालकृषणन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया है। नौकरियों और शिक्षा में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों EWS को 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का मामला पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। शीर्ष अदालत को ईडब्लूएस आरक्षण की संवैधानिक वैधता पर फैसला करना है। आरक्षण की कल्पना वैसे तो सामाजिक न्याय के लिए किया गया लेकिन शुरू से ही बड़ा चुनावी हथियार भी है। चुनावों से पहले घूमफिरकर आरक्षण का मुद्दा आ ही जाता है। कर्नाटक को ही लीजिए। वहां अगले साल विधानसभा के चुनाव हैं। इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की थी। तो क्या आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा की जा सकती है? संविधान की नौवीं अनुसूची आखिर है क्या? आरक्षण को लेकर अदालतों ने कब-कब ऐतिहासिक फैसले दिए?
सबसे पहले बात कर्नाटक सरकार के ताजा कदम की। सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। उससे पहले बसवराज बोम्मई की बीजेपी सरकार ने एससी, एसटी आरक्षण को बढ़ाने का फैसला किया है। फिलहाल कर्नाटक में ओबीसी के लिए 32 प्रतिशत, एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 3 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। यह कुल मिलाकर 50 प्रतिशत है। अब राज्य सरकार एससी आरक्षण को 2 प्रतिशत बढ़ाकर 17 प्रतिशत और एसटी कोटा को 4 प्रतिशत बढ़ाकर 7 प्रतिशत करने की तैयारी कर रही है। इस तरह राज्य में आरक्षण की सीमा 56 प्रतिशत हो जाएगी। इसका मतलब है कि अनारक्षित यानी ओपन कैटिगरी की सीटें 50 प्रतिशत से घटकर 44% ही रह जाएगी। जाहिर है कि जब आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा होगी तो मामला अदालत में पहुंचेगा ही। यही वजह है कि कर्नाटक सरकार एससी, एसटी कोटा बढ़ाने के लिए संविधान की नौवीं अनुसूची का सहारा लेगी।
आखिर संविधान की नौवीं अनुसूची है क्या? नौवीं अनुसूची को 1951 के पहले संविधान संशोधन के जरिए जोड़ी गई थी। संविधान के अनुच्छेद 31 ए और 31बी के तहत इसमें शामिल कानूनों को न्यायिक समीक्षा से संरक्षण हासिल है। आसान भाषा में कहें तो संविधान की नौंवी सूची में शामिल कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर होते हैं यानी सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट उसकी समीक्षा नहीं कर सकते। इसीलिए अक्सर आरक्षण से जुड़े कानूनों को नौवीं अनुसूची में डालने की मांग होती रहती है। 1951 में नौवीं अनुसूची बनने पर भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन समेत कुल 13 कानूनों को जोड़ा गया था। दरअसल, आजादी के बाद जब भारत में भूमि सुधार को शुरू किया गया तो उसे यूपी, एमपी और बिहार की अदालतों में चुनौती दी गई थी। पटना हाई कोर्ट ने 12 मार्च 1951 को बिहार भूमि सुधार कानून को अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताते हुए असंवैधानिक करार दे दिया। इसी के बाद केंद्र की तत्कालीन पंडित जवाहर लाल नेहरू सरकार ने संविधान में नौवीं अनुसूची को जोड़ा और इसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया। फिलहाल नौवीं अनुसूची में 283 कानून हैं जिन्हें समय-समय पर संविधान संशोधनों के जरिए इसमें शामिल किया गया। खास बात ये है कि किसी कानून को असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद अगर संविधान संशोधन के जरिए उसे नौवीं अनुसूची में डाल दिया जाता है तो वह कानून लागू हो जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने ‘इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार, 1992’ केस में ऐतिहासिक फैसला दिया था। 9 जजों की संविधान पीठ ने 6-3 के बहुमत से जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की। दरअसल, साल 1991 में केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी किया था, जिसे इंदिरा साहनी ने कोर्ट में चुनौती दी थी। इसी फैसले की काट के लिए 1993 में तमिलनाडु सरकार ने नौवीं अनुसूची का सहारा लेकर नौकरी और शैक्षिक संस्थानों में दाखिले में अधिकतम आरक्षण को 69 प्रतिशत कर दिया। इसमें 18 प्रतिशत एससी, 1 प्रतिशत एसटी, 20 प्रतिशत ‘मोस्ट बैकवर्ड कास्ट्स’ (MBC) और अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। सूबे में ओबीसी कोटे के अंदर ही अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसमें मुस्लिमों के लिए 3.5 प्रतिशत आरक्षण भी शामिल है।
केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत, एससी के लिए 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है। राज्यों में यह अलग-अलग हो सकता है। 2019 में 103वें संविधान संशोधन के जरिए ईडब्लूएस के लिए 10 प्रतिशत अलग से आरक्षण की व्यवस्था की गई। इस तरह केंद्रीय स्तर पर अधिकतम आरक्षण की सीमा 60 प्रतिशत हो चुकी है। राज्यों में एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण अलग-अलग हो सकता है। यह बात गौर करने की जरूरत है कि अनारक्षित सीटों का मतलब ये है कि उसमें सभी जातियों के कैंडिडेट भर्ती हो सकते हैं। यह ओपन कैटिगरी है। इसका मतलब ये नहीं कि जनरल कैटिगरी के लोग ही ओपन कैटिगरी में जगह पाएंगे।
अभी पिछले महीने ही ईडब्लूएस आरक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि अधिकतम आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर हो सकती है। केंद्र ने दलील दी कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा न हो, यह प्रमुख नियम तो है लेकिन इसे इतना पवित्र नहीं बनाया जा सकता कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे जैसा हो जाए। केंद्र ने ईडब्लूएस आरक्षण को संविधान की मूल भावना के अनुरूप बताते हुए दलील दी कि प्रस्तावना में भी आर्थिक न्याय का जिक्र है और 103वां संविधान संशोधन इसी को सुनिश्चित करता है।