Sunday, September 8, 2024
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आखिर बिहार में सवर्णों को कैसे साधा जाएगा?

बिहार में सवर्णों को साधने की तैयारी शुरू हो चुकी है! बिहार में सवर्ण राजनीति का स्वर्ण काल आरंभ हुआ है। सवर्णों में भी भूमिहार सभी राजनीतिक दलों के लिए हाट केक बने हुए हैं। ‘भूराबाल’ भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला साफ करो का कभी नारा लगा कर सवर्णों की मुखालफत करने वाले आरजेडी को भी अब सवर्णों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की जरूरत महसूस होने लगी है। जेडीयू ने तो पहले से ही ललन सिंह को अपना अध्यक्ष बना कर साफ कर दिया है कि वह लव-कुश समीकरण की परवाह भले न करे, लेकिन सवर्णों का साथ कभी नहीं छोड़ेगा। कांग्रेस ने तो अपनी जिला कमेटियों के गठन में सवर्णों को बड़े पैमाने पर शामिल कर एहसास करा दिया है कि उसे सवर्ण वोट से ही अधिक सरोकार है। जेडीयू ने भूमिहार जाति से आने वाले राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना कर पहले ही बाजी मार ली है। उससे पहले राजपूत जाति से वशिष्ठ नारायण सिंह जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष लंबे वक्त तक रहे। बीजेपी ने भूमिहार जाति से आने वाले पूर्व स्पीकर विजय कुमार सिन्हा को नेता प्रतिपक्ष बनाया है। आरजेडी ने जगदानंद सिंह पर भरोसा किया है। लोजपा (आर) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी एक सवर्ण डा. अरुण कुमार को पार्टी में उपाध्यक्ष की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी सौंपी है। कांग्रेस ने हाल ही में अपने जिलाध्यक्षों के नामों की घोषणा की है। बिहार के 38 जिलों के लिए कांग्रेस ने 39 जिलाध्यक्ष बनाए हैं। जाति के आधार पर देखें तो इनमें सबसे ज्यादा सवर्ण जाति के 67 प्रतिशत पदधारी हैं। यानी 12 भूमिहार, 8 ब्राह्मण और 6 राजपूत कमेटी में शामिल किए गए हैं। लगभग दो दर्जन जिलों में सवर्ण अध्यक्ष बनाए गए हैं।

बिहार में सवर्णों की समेकित आबादी 18 प्रतिशत मानी जाती है। इसमें सबसे ज्यादा भूमिहारों की आबादी है। शिक्षा और संपत्ति के मामले में भी भूमिहार सब पर भारी पड़ते हैं। उनकी आबादी 6-7 प्रतिशत है। राजपूत और ब्राह्मण आबादी 5-6 प्रतिशत आंकी जाती है। दलित और पिछड़े वोटरों के समर्थन के लिए जिस तरह हर दल मारामारी कर रहे हैं, ठीक उसी तरह सवर्णों को साधे बिना किसी को अपना कल्याण नजर नहीं आता। वर्षों बाद बिहार में यह नजारा देखने को मिल रहा है कि सवर्ण वोटों के लिए राजनीतिक दलों में होड़ लगी है।

भूमिहार जाति से आने वाले श्री कृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने थे। उनके निधन के बाद राजपूत बिरादरी से चंद्रशेखर सिंह एकमात्र सीएम बने, जबकि ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों की लंबी सूची है। भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्र और बिंदेश्वरी दुबे ब्राह्मण जाति से सीएम बने थे। उसके बाद सवर्णों के सीएम बनने का सिलसिला बिहार में खत्म हो गया। लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी पिछले 30 साल में सीएम बने। अभी कांग्रेस के बिहार प्रदेश अध्यक्ष भूमिहार जाति के अखिलेश सिंह हैं। कांग्रेस का पुराना जनाधार भी सवर्णों का ही रहा है। कांग्रेस के जिला अध्यक्षों की सूची देख कर लगता है कि पार्टी की कोशिश पुराने जनाधार को पाने की है।

सवर्णों की आबादी 18 प्रतिशत है तो इसका मतलब यह हुआ कि 82 प्रतिशत मुस्लिम, दलित और ओबीसी की आबादी है। मुस्लिम और यादव तकरीबन बराबर संख्या में हैं, जो आरजेडी के पारंपरिक वोटर माने जाते हैं। जेडीयू ने मुस्लिम वोटरों में सेंध लगाई थी, लेकिन नीतीश कुमार के इधर-उधर होते रहने से अब मुस्लिम वोटर भी उनसे बिदक गए हैं। वोटर ही नहीं, मुस्लिम नेता भी नीतीश का साथ छोड़ने लगे हैं। साल 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू के टिकट पर एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीता था। रविवार को जेडीयू के पूर्व सांसद मोनाजिर हसन ने भी पार्टी छोड़ दी। 10-12 प्रतिशत आबादी वाला लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) समीकरण भी अब जेडीयू के साथ पूरी तरह नहीं है। पिछड़े वोटों के लिए बीजेपी भी कम कोशिश नहीं कर रही। ओबीसी वोटों के लिए बीजेपी नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने करती है। ऐसे में कांग्रेस का प्रयोग ही नया लगता है। उसने सिर्फ सवर्णों को साधने पर जोर दिया है।

बिहार में साल 1985 में कांग्रेस की आखिरी सरकार बनी थी। उस साल पार्टी को असेंबली इलेक्शन में 196 सीटें मिली थीं। मंडल-कमंडल की राजनीति जब से शुरू हुई, कांग्रेस का पराभव भी बिहार में आरंभ हो गया। मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने बिहार में राजनीति की दिशा बदल दी। पिछड़ों और दलितों के वोट कई दलों में बंट गए। कांग्रेस का पारंपरिक मुस्लिम वोट भी आरजेडी में चला गया। वोटों का आधार खिसकने के कारण 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें भी घट कर 71 पर आ गईं। कांग्रेस का वोट शेयर भी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में घटकर 8-9 प्रतिशत पर आ गया।

सवर्ण वोट अभी बीजेपी के पाले में हैं। आरजेडी और जेडीयू की लाख कोशिश के बावजूद सवर्ण उन पर भरोसा नहीं करते। कांग्रेस की कमजोर हालत के कारण सवर्ण उससे कट गए थे। दलित वोटरों के ठेकेदार अब बिहार में तीन दल हो गए हैं। लोजपा के दोनों गुट दलित वोटों के ठेकेदार खुद को बताते हैं तो जीतन राम मांझी भी दलित वोटरों पर अपना हक जमाते हैं। पिछड़ो में लव-कुश कुर्मी-कोइरी के ठेकेदार नीतीश अपने को मानते हैं तो यादव और मुस्लिम आरजेडी को अपना मानते हैं। संभव है कि महागठबंधन के घटक दलों की यह रणनीति हो कि सभी अपने-अपने पॉकेट वोट को एकजुट करें, ताकि महागठबंधन के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित हो सके।

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