आखिर किन महाद्वीपों में है वामपंथियों की सरकार?

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कुछ महाद्वीप ऐसे हैं, जिनमें वामपंथियों की सरकार बनी हुई है! भारत में मार्क्सवादी पार्टियों को लेफ्ट यानी वामपंथी और हिंदुत्व की विचारधारा वाली पार्टियों को दक्षिणपंथी कहा जाता है। अगर इसे वैश्विक नजरिए से देखें तो कंजरवेटिव को दक्षिणपंथी यानी राइट विंग और वामपंथियों को लेफ्ट विंग कहकर संबोधित करते हैं। दक्षिणपंथी परंपराओं और राष्ट्रवाद को काफी महत्व देते हैं जबकि वामपंथी राष्ट्रवाद को सामाजिक बराबरी से जोड़ते हैं। दुनियाभर में राजनीति इन्हीं दो विचारधाराओं में बंटी हुई है। हाल के वर्षों में दुनिया के कई देशों में दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में आई लेकिन एक महाद्वीप ऐसा है जो इस समय वामपंथ के लाल रंग में रंगा दिखाई दे रहा है। जी हां, ग्लोब घुमाकर थोड़ा दक्षिण अमेरिका महाद्वीप पर नजर दौड़ाइ है। धरती के इस टुकड़े का सबसे बड़ा देश है ब्राजील और वहां की जनता ने दक्षिणपंथी सरकार को बाहर कर लेफ्ट को कमान सौंपी है। ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में लूला दा सिल्वा की जीत का अंतर भले ही कम रहा हो, पर इसके मायने कम नहीं हैं। लूला की वापसी के बाद अब लगभग पूरे लैटिन अमेरिका की सत्ता वामपंथियों के हाथ में आ गई है। उत्तर में मेक्सिको से लेकर दक्षिण में चिली तक ‘लेफ्ट इज बैक’ के नारे गूंज रहे हैं।

एक दशक पहले इस महाद्वीप में समाजवाद की लहर कमजोर पड़ गई थी और कंजरवेटिव सरकारें आ गईं। अब एक बार फिर लेफ्ट को ऑक्सीजन मिली है। पूरे लैटिन अमेरिका के प्रगतिशील राजनेता अपने-अपने देश में सामाजिक समानता और इकॉनमिक रिकवरी का वादा कर रहे हैं। लूला ने वादा किया है कि उनके ब्राजील की कमान संभालने के बाद लोग अच्छे से खा सकेंगे, फिर से बीयर पी सकेंगे और एक बार फिर खुशी से रहे सकेंगे। उन्होंने कोरोना महामारी से प्रभावित गरीब तबके को एक नई उम्मीद दिखाई है। इस समय हालत यह है कि वैश्विक कारणों से महंगाई बढ़ी है और अर्थव्यवस्था में सुस्ती छाई हुई है।

एक समय था जब वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज, बोलीविया में इवो मोराल्स, अर्जेंटीना के नेस्टर किर्चनर और ब्राजील में लूला ने सरकार चलाई। इन नेताओं ने आम लोगों और वर्किंग क्लास को मजबूत करने के लिए नीतियां बनाईं और इसकी बदौलत पिंक टाइड 2.0 देखने को मिल रहा है। Pink Tide राजनीति में वामपंथी लहर का संकेत है। इसका इस्तेमाल लैटिन अमेरिकी देशों में लेफ्ट विंग की सरकारों के लिए किया जाता है।

हालांकि दो दशक पहले जिन घरेलू और वैश्विक परिस्थितियों के चलते शावेज, लूला और दूसरे नेताओं को सफलता मिली थी, आज काफी कुछ बदल चुका है। आतंरिक रूप से देखें तो यहां के देश पहचान और विचारधारा की लाइन पर काफी बंटे हुए हैं। लूला 1.8 प्रतिशत वोटों के अंतर से जीते हैं, ऐसा ही कुछ पेरू में देखने को मिला, जहां सोशलिस्ट पेड्रो कासिलो महज 0.25 प्रतिशत मतों से जीते। कोलंबिया में लेफ्टिस्ट गुस्ताव पेट्रो ने 3.07 प्रतिशत वोटों के अंतर से जीत हासिल की। उन्होंने देश के पहले वामपंथी राष्ट्रपति के रूप में इसी साल अगस्त में शपथ ली है।

चिली में भी पूर्व छात्र नेता ग्रैबिएल बोरिक 11 पॉइंट के मार्जिन के साथ आराम से राष्ट्रपति चुनाव जीत गए थे। हालांकि नए सोशलिस्ट संविधान को लेकर उनके महत्वाकांक्षी जनमत संग्रह को जनता ने ठुकरा दिया। जबकि कहा जा रहा था कि यह प्रगतिशील संविधान होगा। दक्षिणपंथी समूह कह रहे थे कि यह आर्थिक विकास के खिलाफ है। अमेरिका में करीब आधे वोटर्स बाकी बचे मतदाताओं से विरोधी नजरिया रखते हैं। बड़ी तादाद में लैटिन अमेरिकी समाज भी बुनियादी सवालों पर आम सहमति नहीं बना पा रहे हैं जैसे, अर्थव्यवस्था में स्टेट की भूमिका क्या होनी चाहिए, संपत्ति और स्टेटस में असमानता को कैसे घटाया जाए, साथ ही किस तरह के जन स्वास्थ्य मॉडल और पर्यावरण नीतियां स्वीकार की जाएं।

लूला ने घोषणा की है, ‘यहां दो ब्राजील नहीं है। हम एक देश हैं, एकजुट लोग।’ लेकिन अगर राजनीतिक रूप से ध्रुवीकरण वाले अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन की सुस्त परफार्मेंस इंडिकेटर है तो इस बात की पूरी संभावना है कि जायर बोलसोनारो के पक्के समर्थक इस नई व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेंगे जो ‘बीफ, बाइबल और बुलेट’ के कंजरवेटिव एजेंडे को पलटने की कोशिश करेगी। काफी बंटे होने और टकराव के चलते लूला जैसे व्यावहारिक समाजवादियों के लिए जरूरी हो जाएगा कि वे पॉलिटिकल स्पेक्ट्रम के सेंटर यानी मध्यमार्गी नीति का पालन करें जिससे सबको साधा जा सके।

वैसे, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो पिंक टाइड 2.0 को मंदी के असर का सामना करना पड़ रहा है। चीन का नया जीडीपी ग्रोथ रेट महज 3 प्रतिशत रहा और यूरोप-अमेरिका में मंदी लैटिन अमेरिका के वामपंथियों के लिए बैड न्यूज है। इस हाल में वे अपने सोशल री-इंजीनियरिंग वाले प्रोजेक्ट्स के लिए फंड नहीं जुटा पाएंगे क्योंकि कृषि उत्पादों और खनिज का निर्यात उतना नहीं हो पाएगा। 2000 से 2014 तक का कालखंड तत्कालीन वामपंथी सरकारों के लिए अप्रत्याशित तोहफों की भरमार वाला रहा। इस दौरान लेफ्टिस्ट सरकारों ने अलग नीतियां तैयार कीं और लाखों लोगों को गरीबी के दलदल से बाहर निकालने में कामयाब रहे।

फिलहाल वैसी परिस्थिति मिलने की संभावना काफी कम है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में दिख रही कमजोरी का असर लैटिन अमेरिका पर भी पड़ेगा। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने ब्राजील समेत क्षेत्र की छह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के 2023 में महज 0.9 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान लगाया है। बिना फंड के लूला और उनके वामपंथी साथी पुराने चमत्कार को फिर से दोहरा नहीं सकते हैं।