यह सवाल अब भी बना हुआ है कि आखिर नीतीश कुमार किसकी तरफ से लड़ना चाहते हैं! राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को छोड़कर भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए में एक बार फिर वापसी कर नीतीश कुमार दोनों तरफ का नफा-नुकसान देख चुके हैं। अब उन्हें अच्छी तरह पता है कि किसके साथ वे कंफर्टेबल फील करते हैं। फिलवक्त नीतीश एनडीए के साथ हैं। एनडीए में उनकी वापसी किन शर्तों पर हुई, यह तो किसी को नहीं मालूम, लेकिन अनुमान लगाया जाता है कि उनकी वापसी बिना शर्त तो हुई नहीं होगी। भाजपा को जरूर बिहार में नीतीश जैसे साथी की कमी खल रही थी, लेकिन नीतीश के सामने ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि उन्हें अपनी कसम तोड़नी पड़ी। नीतीश ने कहा था कि मर जाएंगे, मिट जाएंगे, लेकिन भाजपा के साथ अब नहीं जाएंगे। यह बात याद दिलाते हुए आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव ने इसका भी खुलासा कर दिया है कि महागठबंधन के साथ जाने के लिए उन्होंने कैसे लालू यादव और राबड़ी देवी के सामने हाथ जोड़ कर पहले की गलती के लिए माफी मांगी थी। यह भी जानना जरूरी है कि नीतीश ने एनडीए का साथ क्यों छोड़ा था। तभी जाकर सटीक अनुमान लगाया जा सकता है कि नीतीश कुमार सवा तीन साल में ही क्यों दो खेमों के बीच आवाजाही करने को मजबूर हुए। जब नीतीश की आवाजाही का आकलन करते हैं तो एक बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू की जो दुर्गति हुई, उससे नीतीश बेहद हतोत्साहित थे। जेडीयू के 43 विधायक ही जीत कर आए थे। हालांकि इसके बावजूद बीजेपी ने गठबंधन धर्म का पालन करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया था। नीतीश ने जेडीयू की इस दुर्गति के कारणों की जब समीक्षा की-कराई तो मालूम हुआ कि लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान इसकी बड़ी वजह रहे, जिन्हें भाजपा की तब शह मिली हुई थी। जेडीयू के खिलाफ उनके उम्मीदवारों ने वोटों में कमी कर दी। नतीजतन तकरीबन 30 सीटों पर जेडीयू को हार का सामना करना पड़ा। मन ही मन नीतीश जितने नाराज चिराग से थे, उससे कम भाजपा से भी उनकी नाराजगी नहीं थी। इसलिए कि भाजपा ने चिराग को ऐसा करने से रोका नहीं था। बहरहाल, सरकार बनने के बाद भाजपा के प्रदेश स्तर के नेता नीतीश को इस बात का एहसास कराते रहे कि वे उनकी कृपा से ही सीएम बने हुए हैं। नीतीश के काम पर अंगुली उठाने से भी भाजपा के नेता परहेज नहीं करते थे। यही वजह रही कि नीतीश को महागठबंधन की शरण में जाने को मजबूर होना पड़ा।
यह बात नीतीश और लालू परिवार के अलावा किसी को नहीं मालूम थी कि साथ देने के लिए आरजेडी ने नीतीश के सामने कोई शर्त रखी है। हां, उपेंद्र कुशवाहा जैसे जेडीयू के तत्कालीन कुछ नेता जरूर दाल में काला होने का अनुमान लगा रहे थे। वे इसे नीतीश की आरजेडी से ‘डील‘ बता रहे थे। इसी डील को उजागर करने के लिए उपेंद्र कुशवाहा हड़बोंग मचाते आखिरकार जेडीयू से अलग हो गए। बाद में यह बात उजागर हो गई कि लालू यादव ने अपने बेटे तेजस्वी यादव को सीएम बनाने की शर्त रखी थी। तय हुआ था कि नीतीश राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे और बिहार की गद्दी तेजस्वी को सौंप देंगे। नीतीश इसके लिए तैयार भी थे। यही वजह रही कि उन्होंने विपक्षी एकता की सबसे पहले कवायद शुरू की। उन्हें पहली सफलता मिल भी गई, जब विपरीत प्रकृति के नेता पटना में 23 जून 2023 को एक साथ बैठे। बाद में विपक्षी खेमे में नीतीश को वह रुतबा नहीं मिला, जिसकी उम्मीद उन्होंने पाल रखी थी। विपक्षी नेताओं की बैठक होती रहीं, लेकिन नीतीश के लिए कोई महत्वपूर्ण भूमिका तय नहीं हो सकी। उन्हें संयोजक बनाने का प्रस्ताव भी तब आया, जब उसकी कोई उपयोगिता नहीं दिख रही थी। जब यह पक्का हो गया कि राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश के जाने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है, तब आरजेडी ने शर्तें याद दिला कर तेजस्वी की ताजपोशी का दबाव उन पर बनाना शुरू कर दिया। तब नीतीश के सामने खेमा बदल कर सीएम बने रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।
भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि नीतीश ने एनडीए में वापसी के एप्रोच के साथ अपनी दो बातें रखी थीं। पहला कि उन्हें कम से कम मौजूदा कार्यकाल तक सीएम बने रहने दिया जाए। उनकी दूसरी बात यह थी कि लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव भी करा दिए जाएं। भाजपा उनकी पहली बात मानने को तो तैयार हो गई, लेकिन दूसरी बात से साफ मना कर दिया। भाजपा का कहना था कि लोकसभा के साथ विधानसभा का चुनाव कराने पर मतदाताओं का मिजाज इधर-उधर हो सकता है। इसलिए पहले लोकसभा का चुनाव होने दीजिए। उसके बाद कभी भी विधानसभा के चुनाव कराए जा सकते हैं। नीतीश को विधानसभा चुनाव की हड़बड़ी इसलिए है कि कम विधायकों के कारण उन्हें डगरा के बैंगन की तरह इधर-उधर होना पड़ रहा है। यानी इस बात की प्रबल संभावना है कि लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में विधानसभा का मध्यावधि चुनाव हो जाए।