यूपी में विपक्ष ने असद को लेकर अपने ही नए बयान दे दिए हैं! माफिया अतीक अहमद के बेटे असद अहमद के एनकाउंटर पर सवाल उठने लगे हैं। सवाल उठाने वालों में कोई और नहीं, बल्कि विपक्षी दल के नेता हैं। इस कारण उत्तर प्रदेश की सिसायत गरमा गई है। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने सीधे इस एनकाउंटर को झूठा करार दे दिया है। वहीं, बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने इस एनकाउंटर की तुलना विकास दुबे कांड से कर दी है। उन्होंने असद अहमद एनकाउंटर की जांच की मांग की है। दोनों के बयानों के गहरे सियासी मायने हैं। इसके जरिये सपा और बसपा उत्तर प्रदेश में अपनी खोई राजनीतिक जमीन को पाना चाहते हैं। मुस्लिमों की सहानुभूति जीतना इसकी एक मंशा है। दोनों के बयानों को पूरे मामले को मजहबी रंग देने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। असद के एनकाउंटर पर अखिलेश और मायावती ने क्या बयान दिया है और उनके सियासी मायने क्या हैं? आइए, यहां समझने की कोशिश करते हैं। अखिलेश यादव ने ट्वीट कर कहा- झूठे एनकाउंटर करके भाजपा सरकार सच्चे मुद्दों से ध्यान भटकाना चाह रही है। भाजपाई न्यायालय में विश्वास ही नहीं करते हैं। आज के और हालिया एनकाउंटरों की भी गहन जांच-पड़ताल हो और दोषियों को छोड़ा न जाए। सही-गलत के फैसलों का अधिकार सत्ता का नहीं होता है। भाजपा भाईचारे के खिलाफ है।
मायावती ने भी मामले में प्रतिक्रिया दी है। बसपा सुप्रीमो ने कहा- प्रयागराज के अतीक अहमद के बेटे और एक अन्य की आज पुलिस मुठभेड़ में हुई हत्या पर अनेकों प्रकार की चर्चाएं गर्म हैं। लोगों को लगता है कि विकास दुबे कांड के दोहराए जाने की उनकी आशंका सच साबित हुई है। ऐसे में घटना के पूरे तथ्य और सच्चाई जनता के सामने आ सके इसके लिए उच्च-स्तरीय जांच जरूरी है।
मायावती और अखिलेश का बयान आते ही लोगों ने उन्हें निशाने पर लिया। उनसे माफिया के परिवार से सहानुभूति जाहिर नहीं करने की नसीहत दी। मायावती और अखिलेश राजनीति के घाघ हैं। दोनों मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वे भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनके बयान के क्या मतलब निकाले जा सकते हैं। आखिर फिर उन्होंने असद के एनकाउंटर की जांच की मांग क्यों उठा दी।
अखिलेश और मायावती के बयानों का सियासी मायने निकाला जाना लाजिमी है। दोनों ही लंबे समय से सत्ता से दूर हैं। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने दोनों को राजनीति के मैदान में जोरदार पटखनी दी है। यूपी में बीजेपी के मजबूत होते पांवों के पीछे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी बड़ा हाथ है। माफियाओं के प्रति जीरो टॉलरेंस पॉलिसी अपनाने के कारण लोग उन्हें बेहद पसंद करने लगे हैं। अखिलेश और मायावती के लिए सत्ता में वापसी के तमाम दरवाजे बंद होते जा रहे हैं। इन दोनों की पॉलिटिक्स खास जातियों और मुस्लिम वोट बैंक को साधकर चमकती रही है। जाति आधारित पॉलिटिक्स का दौर खत्म होता जा रहा है। बीजेपी ने इसके लिए काफी मेहनत की है।
मायावती वही हैं जो 2007 में ‘चढ़ गुंडों की छाती पर बटन दबाओ हांथी पर’ का नारा देकर सत्ता में आई थीं। अखिलेश भी हर चुनाव में राज्य से गुंडा राज खत्म करने का दम भरते रहे हैं। लेकिन, आज जब माफियाओं को मिट्टी में मिलाने का काम किया गया तो यही जांच और कानून-व्यवस्था का हवाला क्यों देने लगे? अतीक अहमद और उसके परिवार की गुंडागर्दी से भला कौन अनजान था? जब इसी असद ने उमेश पाल की बीच सड़क पर हत्या की थी तब यही नेता कानून का राज खत्म होने की दुहाई देकर योगी सरकार को घेर रहे थे। जब योगी सरकार ने कार्रवाई की तो फिर ये वही काम कर रहे हैं।
दरअसल, अखिलेश और मायावती दोनों को अतीक और उसके परिवार की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में अच्छी तरह पता है। उनके बयान देने का मकसद एक वर्ग की सहानुभूति बंटोरना है। यह वर्ग उनकी जीत में पहले कभी अहम भूमिका निभाता आया है। अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं। यूपी केंद्र की सत्ता का रास्ता तय करता है। यूपी में मुस्लिम वोटों का हमेशा बहुत बड़ा महत्व रहा है। यह एकमुश्त पड़ता है। जिस तरफ यह पड़ता है चुनाव का रुख मुड़ जाता है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में बीजेपी ने मुस्लिमों के इस वोट बैंक का तिलिस्म तोड़ दिया है। वह मुस्लिम बहुल इलाकों में जीती है। ऐसा मुस्लिम वोटों के बिखरने के कारण हुआ है। यह न तो पूरा का पूरा अखिलेश को गया है न मायावती को। कांग्रेस और एआईएमआईएम जैसी पार्टियों ने इस वोट को और बिखरा दिया। वोटरों के तौर पर मुस्लिमों को ज्यादा तवज्जो नहीं देने वाली बीजेपी को इसका फायदा हुआ। इसके उलट उसने हिंदुओं को एकजुट करने में ताकत लगाई। बीजेपी के सामने यूपी में सपा और बसपा के पिछड़ने की यह बड़ी वजह बनी।
अखिलेश और मायावती असद के एनकाउंटर पर सवाल उठाकर पूरे मामले को मजहबी रंग देना चाहते हैं। दोनों मुस्लिम समाज को मैसेज देना चाहते हैं कि वे उनके मसीहा हैं। अगर किसी को उनकी फिक्र है तो वही हैं। दोनों मुस्लिमों की सहानुभूति की लहर पर सवार हो अपनी खोई राजनीतिक चमक को लौटाने की फिराक में हैं। हालांकि, यह इतना आसान नहीं है। लोगों को सब समझ आता है। अलबत्ता, इस तरह की कोशिश दोनों को नुकसान भी पहुंचा सकती है।