आज हम आपको सन 1989 का चुनावी मुद्दा सुनाने जा रहे हैं ! चुनाव आयुक्त के रूम से निकलते हुए चौधरी देवी लाल तमतमाए हुए थे। जाते-जाते उन्होंने इलेक्शन कमिश्नर एसएस धनोआ और वीएस सीगेल को चेताते हुए कहा, ‘कुछ महीनों में हम वापस आएंगे और तब सबसे पहले आप बाहर जाएंगे।’ 1989 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने देवी लाल को अपनी बात साबित करने का मौका दे दिया। उस आम चुनाव में जनता दल को बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन BJP और CPM के समर्थन के बूते उसने सरकार बना ली। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। एक जनवरी 1990 को राष्ट्रपति ने नोटिफिकेशन जारी किया, जिसमें इलेक्शन कमिशन में चुनाव आयुक्त के दोनों पद खत्म कर दिए गए। यह किस्सा बयान किया है पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने अपनी किताब The Chronicle of an Impossible Election में। जनता पार्टी के धड़ों को मिलाकर 1988 में जनता दल का गठन किया गया था। इस नए दल का भी लक्ष्य था कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना। चुनाव आयुक्तों के साथ टकराव वाली घटना तब की है, जब जनता दल के नेता अपनी पार्टी के लिए चुनाव चिह्न की तलाश में थे।
लिंगदोह की किताब के मुताबिक, जनता दल के नेता चक्र चाहते थे, जिसमें 24 तीलियां लगी हों यानी राष्ट्रीय ध्वज में बने अशोक चक्र की तरह। लेकिन चुनाव आयुक्तों धनोआ और सीगेल ने जनता दल के चक्र में केवल तीन तीलियों की मंजूरी दी। हालांकि बाद में इसे 6 कर दिया गया, क्योंकि तीन तीलियां होने पर जनता दल का सिंबल कुछ-कुछ यूथ कांग्रेस के सिंबल की तरह लग रहा था। लेकिन, जनता दल का प्रतिनिधिमंडल 6 तीलियों से संतुष्ट नहीं था। देवी लाल इसी प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे और वहां से लौटते समय वह अपना गुस्सा छिपा नहीं पाए। और जब जनता दल की सरकार आई, तो चुनाव आयुक्त के पद फिर से खत्म कर दिए गए। पूरी जिम्मेदारी आ गई मुख्य चुनाव आयुक्त पर।
भारत में जब चुनाव आयोग का गठन हुआ, तब केवल CEC की ही पोस्ट थी। पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे सुकुमार सेन। उनकी नियुक्ति हुई थी 21 मार्च 1950 को। उन्होंने अकेले ही पहले दो आम चुनावों को मैनेज किया था। उनके बाद भी 1989 तक यह व्यवस्था बनी रही। 16 अक्टूबर 1989 को जाकर पहली बार आयोग में दो चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए, एसएस धनोआ और वीएस सीगेल। हालांकि चंद महीनों बाद ही इनकी भी छुट्टी हो गई और चुनाव आयुक्त पद की भी। राष्ट्रपति ने नोटिफिकेशन जारी कर चुनाव आयोग को फिर से एक सदस्यीय कमिशन बना दिया।
पूर्व CEC एसवाई कुरैशी की किताब An Undocumented Wonder : The Making Of The Great Indian Election बताती है कि धनोआ और सीगेल को पद से हटाने का मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था। धनोआ ने इस आधार पर राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती दी कि उनकी नियुक्त पांच साल के लिए हुई थी। राष्ट्रपति ने Article 324 (5) के तहत बनाए गए सर्विस रूल के मुताबिक उन्हें नियुक्त किया था। जनता पार्टी के धड़ों को मिलाकर 1988 में जनता दल का गठन किया गया था। इस नए दल का भी लक्ष्य था कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना। चुनाव आयुक्तों के साथ टकराव वाली घटना तब की है, जब जनता दल के नेता अपनी पार्टी के लिए चुनाव चिह्न की तलाश में थे।अब राष्ट्रपति, चुनाव आयुक्त के कार्यकाल में कटौती नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को नहीं माना। शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी पद का गठन करना और उसे खत्म करना एग्जिक्यूटिव का विशेषाधिकार है।
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने यह जरूर कहा कि एक से भले दो होते हैं, खासकर चुनाव आयोग जैसे संस्थानों के मामले में। कोर्ट का मानना था कि चुनाव आयोग के पास जैसी शक्तियां हैं, उसका इस्तेमाल अगर किसी एक शख्स द्वारा न किया जाए तो अच्छा। सुप्रीम कोर्ट का यह ऑब्जर्वेशन काफी काम आया। 1991 में राष्ट्रपति ने इलेक्शन कमिशन को फिर से मल्टी मेंबर बॉडी बना दिया। एक अक्टूबर 1993 को दो नए चुनाव आयुक्त मिले, एमएस गिल और जीवीजी कृष्णमूर्ति।
चुनाव आयोग में मदद के लिए रीजनल कमिश्नरों की नियुक्ति का भी प्रावधान है। लेकिन, पहले आम चुनाव को छोड़ दें, तो उसके बाद फिर कभी रीजनल कमिश्नर नहीं तैनात किए गए। साल 1951-52 में दो रीजनल कमिश्नर थे, टीजीएन अय्यर और एमआर मेहर। दोनों ही इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी थे और एक अप्रैल 1952 तक इस पोस्ट पर बने रहे।