आज हम आपको एक देश एक चुनाव का इतिहास बताने वाले हैं! नरेंद्र मोदी सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक 5 दिनों के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया है। इसका अजेंडा क्या होगा, सरकार ने इस पर कुछ भी नहीं कहा है। अभी 11 अगस्त को ही संसद का मॉनसून सत्र खत्म हुआ है। आमतौर पर नवंबर में शीतकालीन सत्र भी आ ही जाता है। ऐसे में सितंबर में संसद का विशेष सत्र बुलाया जाना बताता है कि सरकार कुछ बड़ा करना चाहती है। इसके सियासी मतलब निकालने की कोशिशें हो रही हैं। स्पेशल सेशन को लेकर तमाम तरह की अटकलें लग रही हैं। कहीं सरकार समय से पहले चुनाव के लिए तो नहीं जा रही? कहीं समान नागरिक संहिता पर बिल तो नहीं लाया जाएगा? महिला आरक्षण बिल लाया जा सकता जैसी तमाम अटकलें लग रही हैं। लेकिन इन सबके बीच सबसे ज्यादा चर्चा ‘एक देश-एक चुनाव’ को लेकर है। सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति भी बना दी है जो इस मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। वैसे ‘एक देश-एक चुनाव’ का मुद्दा कोई नया नहीं है, अतीत में भी सरकारों और चुनाव आयोग के स्तर पर इस दिशा में कवायद हो चुकी है। 2018-19 में तो बात बनते-बनते रह गई थी। आइए इस मुद्दे का पूरा इतिहास समझते हैं। सबसे पहले तो जानते हैं कि ‘एक देश एक चुनाव’ का मतलब क्या है? देश में तमाम तरह के चुनाव होते हैं, पंचायत चुनाव, नगर निकाय चुनाव, लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव…तो क्या इसका मतलब ये है कि देश में सिर्फ एक चुनाव होगा? सिर्फ लोकसभा का चुनाव होगा और बाकी सारे चुनाव खत्म कर दिए जाएंगे? ऐसा नहीं है। ‘एक देश एक चुनाव’ की कवायद लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के लिए है। अभी लोकसभा चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव अलग-अलग वक्त पर होते हैं। सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा कर लिया तो समय पर चुनाव और अगर किसी राज्य में सरकार कार्यकाल पूरा न कर पाए तो मध्यावधि चुनाव। देश में सालभर कहीं न कहीं, चुनाव का मौसम चलता ही रहता है। अगर एक साथ चुनाव हो तो इन्हें अलग-अलग कराने पर जो खर्च होता है, वह बच सकेगा।
देश जब आजाद हुआ तो 1952 में पहली बार चुनाव हुए। तब लोकसभा के साथ-साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए एक ही साथ चुनाव हुए। 1957 में भी लगभग यही हुआ। तब राज्यों के पुनर्गठन यानी नए राज्यों के बनने की वजह से 76 प्रतिशत स्टेट इलेक्शन लोकसभा चुनाव के ही साथ हुए। लेकिन एक चुनाव का ये चक्र पहली बार तब गड़बड़ हुआ जब 1959 में केंद्र की तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने पहली बार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करते हुए केरल की कम्यूनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। 1957 में लेफ्ट ने केरल में जीत दर्ज की थी और ई.एम.एस. नंबूरदरीपाद मुख्यमंत्री बने। लेकिन जुलाई 1959 में उनकी सरकार बर्खास्त होने के बाद फरवरी 1960 में केरल में फिर विधानसभा चुनाव हुए। देश में किसी भी राज्य में मध्यावधि चुनाव का ये पहला मामला था। इसके बाद ही एक साथ चुनाव का क्रम टूट गया लेकिन मोटे तौर पर 1967 तक ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का सिलसिला चलता रहा। 1962 में और 1967 में 67 प्रतिशत राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हुए। लेकिन ये सिलसिला 1970 आते-आते लगभग पूरी तरह टूट गया। 1970 में तो लोकसभा भी समय से पहले भंग हो गई और 1971 में चुनाव कराने पड़े। इस तरह 1971 के बाद लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग ही होने लगे।
1967 के चुनाव में कांग्रेस को यूपी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मद्रास जैसे राज्यों में झटका लगा। कई जगहों पर कांग्रेस के बागियों ने अन्य पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाई। ऐसी कई गठबंधन सरकारें 5 साल का कार्यकाल पूरा करने के पहले ही गिर गईं। जिस वजह से ‘एक देश एक चुनाव’ का क्रम बिगड़ गया।
करीब 4 दशक पहले एक साथ चुनाव के मुद्दे ने फिर जोर पकड़ा। 1983 में चुनाव आयोग ने सुझाव दिया कि लोकसभा के साथ-साथ राज्यों के भी विधानसभा चुनाव कराए जाने चाहिए। हालांकि, तत्कालीन सरकार ने चुनाव आयोग के सुझाव को कोई खास तवज्जो नहीं दिया जिससे मामला ठंडे बस्ते में चला गया। 1999 में ये मुद्दा फिर उभरा जब लॉ कमिशन ने एक साथ चुनाव कराने पर जोर दिया। जस्टिस बी. पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले लॉ कमिशन ने मई 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराए जाने की सिफारिश की। विधि आयोग ने कहा कि हमें लोकसभा और सभी विधानसभाओं के लिए एक ही साथ चुनाव कराना चाहिए। लॉ कमिशन ने इसके लिए फॉर्म्युला भी सुझाया कि अगर किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो उसके साथ ही वैकल्पिक सरकार के लिए विश्वास प्रस्ताव भी लाया जाना चाहिए। यानी एक तरह से लोकसभा और विधानसभाओं के लिए फिक्स्ड कार्यकाल की बात थी।
लॉ कमिशन की सिफारिशों को लेकर 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी से चर्चा भी की। शुरुआत में कांग्रेस नेता ने इसे लेकर उत्साह भी दिखाया। लगा कि एक साथ चुनाव कराने पर राजनीतिक आम सहमति बन सकती है लेकिन ऐसा नहीं हुआ और ये मुद्दा फिर आया-गया हो गया। 2004 में मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए सरकार सत्ता में आ गई। उनके पहले कार्यकाल के दौरान इस मुद्दे की कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। हालांकि, 2010 में बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार फिर एक साथ चुनाव का मुद्दा उठाया। उन्होंने इसे लेकर तब के पीएम मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से चर्चा भी। आडवाणी ने लोकसभा और विधानसभाओं के लिए फिक्स्ड-टर्म यानी 5 साल के तय कार्यकाल की वकालत की। लेकिन बात नहीं बनी।
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले एक समय तो ऐसा लग रहा था कि ‘एक देश एक चुनाव’ का कॉन्सेप्ट लागू ही हो जाएगा। 2018 में लॉ कमिशन की सिफारिशों के बाद माहौल बना। मोदी सरकार ने ‘एक देश एक कानून’ को संभव बनाने के लिए आमसहमति तैयार करने की कोशिश की। लॉ कमिशन ने सुझाव दिया था कि 17वीं लोकसभा के चुनाव के साथ 12 राज्यों के विधानसभा चुनाव भी कराए जाने चाहिए। 2018 और 2019 में कुल 12 राज्यों- आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम, तेलंगाना, हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम और राजस्थान में चुनाव होने थे। इन सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए लोकसभा के साथ ही चुनाव कराने की बात चली। तब ऐसी खूब खबरें चलीं कि ये मुमिकन हो सकता है लेकिन बात नहीं बन सकी। मोदी सरकार एक बार फिर ‘एक देश एक चुनाव’ के लिए कवायद तेज की है। अब तो इसकी संभावना टटोलने के लिए पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में समिति भी बन गई है।