आज हम आपको 1932 की खतियान नीति के बारे में बताने जा रहे हैं! देश के हर राज्य में स्थानीय युवाओं को सरकारी नौकरी और अन्य क्षेत्रों में प्राथमिकता देने की मांग आजादी के बाद से ही जोर पकड़ती रही है। 15 नवंबर 2000 को अलग झारखंड राज्य बनने के बाद सूबे में भी अलग स्थानीय-नियोजन नीति का मुद्दा विवादों में घिरा रहा। अब सीएम हेमंत सोरेन ने यह भरोसा दिलाया है कि 1932 के खतियान आधारित स्थानीय नीति लागू करने की मांग पर सरकार जल्द काम शुरू करेगी। हेमंत सोरेन के इस बयान के बाद एक बार फिर से आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। आखिर खतियान सर्वे क्या है, क्यों खतियान आधारित स्थानीय नीति लागू करने की मांग हो रही, बताते हैं आगे। 1932 की खतियान आधारित स्थानीय नीति को समझने के पहले यह जानना जरूरी है कि झारखंड में सबसे पहले खतियान नियम कब लागू हुआ। इस इलाके के लिए साल 1872 में पहली बार खतियान सर्वे हुआ। जिसमें संताल परगना की जंगलों और खेतों का सर्वे हुआ। इसके बाद 1922 में जीएफ गंटजर के जरिए संताल परगना का पहली बार संपूर्ण सर्वे हुआ। इसी का संशोधन 1932 में किया गया। बाद में इसका संशोधन 1934 और उसके बाद आखिरी बार 1936 में किया गया था। राज्य के कुछ जिलों में 1938, कुछ में 1995 में यह सर्वे पूरा हुआ। हालांकि राज्य के अधिकांश जिलों में 1879, 1894, 1910, 1915 और 1928 में ही अंतिम सर्वे सेंटलमेंट पूरा हुआ।
खतियान में सुधार में कई बाधाएं है। 1910, 1915 या 1935 में सर्वे सेटलमेंट के बाद तैयार अधिकर खतियान कैथी, बांग्ला या अंग्रेजी में ही है। बिहार के समय किए गए हिन्दी अनुवाद में भी काफी गलतियां हैं। इतना ही नहीं आर्काइव्स में रखे गये खतियान के कई पन्ने गायब हैं। इससे न तो खतियान का पूर्ण डिजिटलाइजेशन हो पा रहा और ना ही गलतियों का सुधार।
साल 2002 में तत्कालीन बीजेपी मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने जब राज्य की स्थानीयता को लेकर डोमिसाइल नीति लाई थी तो इसके पक्ष और विपक्ष में खूब प्रदर्शन हुए। कई जगहों पर झड़प हुई। कई लोगों की मौत भी हुई। बाद में झारखंड हाईकोर्ट ने इसे अमान्य घोषित करते हुए रद्द कर दिया। 24 जुलाई 2002 को डोमिसाइल की बात को लेकर हुए संघर्ष में रांची में 6 लोग मारे गए थे। डोमिसाइल समर्थक और विरोधियों के बीच हुए संघर्ष की घटना के बाद शहर में कई दिनों तक तनाव रहा था। बाद में बाबूलाल मरांडी को सीएम पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था।
इसके बाद अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने स्थानीय नीति तय करने के लिए बनाई गई। तीन सदस्यीय कमेटी ने एक रिपोर्ट पेश की। लेकिन इस बार आगे कुछ नहीं हो सका। साल 2005 से लेकर 2014 तक बीजेपी के अलावा, जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी की भी सरकार रही, लेकिन स्थानीय नीति पर कोई फैसला नहीं हो पाया। साल 2014 जब रघुवर दास के नेतृत्व में बीजेपी गठबंधन की सरकार बनी, तो रघुवर सरकार ने 2018 में राज्य की स्थानीयता कि नीति घोषित कर दी। जिसमें 1985 के समय से राज्य में रहने वाले सभी लोगों को स्थानीय माना गया। इस कट ऑफ डेट का जेएमएम समेत अन्य दलों ने विरोध किया। वहीं 2019 में सत्ता में आने पर सीएम हेमंत सोरेन ने इसमें बदलाव का ऐलान कर दिया।
1932 के खतियान और स्थानीय नीति की मांग से राज्य में भाषा विवाद भी उत्पन्न हो गया। प्रशासनिक सुधार और राजभाषा विभाग की ओर से 24 दिसंबर 2001 को भाषा को लेकर एक लिस्ट जारी की गई। झारखंड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) की ओर से मैट्रिक और इंटर स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए जनजातीय के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं को भी जगह दी गई। क्षेत्रीय भाषा की सूची में बोकारो-धनबाद समेत अन्य जिलों में भोजपुरी और मगही को भी शामिल किया गया। लेकिन इस घोषणा के दूसरे ही दिन से कई आदिवासी संगठनों ने यह दावा किया कि इन दोनों जिलों में भोजपुरी-मगही बोलने वाले लोगों की संख्या काफी कम है, इसलिए क्षेत्रीय भाषा की सूची से इन्हें हटाया जाए। इसी तरह से रांची समेत राज्य के अलग-अलग जिलों में भी भाषा विवाद शुरू हो गया। जिसके बाद कार्मिक विभाग को इस सूची में संशोधन को लेकर फिर से आदेश जारी करना पड़ा। तब जाकर मामला शांत हुआ।
सीएम हेमंत सोरेन ने विस्तारित मानसून सत्र की एकदिवसीय बैठक में सदन में यह ऐलान किया कि राज्य सरकार जल्द ही स्थानीय नीति लागू करेगी। इससे पहले पिछले मानसून सत्र में भी हेमंत सोरेन ने यह भरोसा दिलाया था कि स्थानीय नीति जनमानस की भावना के अनुरुप ही बनेगी। सबकी सहमति बनाकर ही स्थानीय नीति पर आगे बढ़ेंगे, इसके अलावा वैधानिक पहलुओं को भी सरकार देखेगी। सीएम ने कहा कि राज्य में कई बार सर्वे हुआ। साल 1911, 1931, 1932, 1964, 1975, 1993 और 2005 में भी सर्वे हुआ। किस सर्वे के आधार खतियान आधारित स्थानीय नीति लागू करें और किसे छोड़ दें, इस पर सहमति जरूरी है।