आज हम आपको बीजेपी नेता शाजिया इलमी की कहानी सुनाने जा रहे हैं! भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता शाजिया इल्मी ने बंटवारे का जिक्र कर अपने परिवार की कहानी बताई है। इस बाबत उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में एक लिखा है। इस लेख में उन्होंने बताया है कि कैसे बंटवारे ने उनके पिता मौलाना इशाक इल्मी और उनके भाई इस्माइल जबीह की तकदीरें बदल दीं। बंटवारे के समय जहां शाजिया के पिता ने भारत में ही रहने का फैसला किया । वहीं, इशाक के भाई इस्माइल पाकिस्तान चले गए थे। इस कहानी की शुरुआत बीजेपी नेता ने 1946 में कानपुर से की है। शाजिया के परिवार की जड़ें इसी शहर से जुड़ी हैं। तब आजादी चौखट पर खड़ी थी। इशाक किशोरावस्था से निकलकर युवाओं की श्रेणी में खड़े हो गए थे। वह पहले से ही देवबंद के बेहतरीन स्कॉलर थे। उनके आस-पास की घटनाएं अचानक अवास्तविक लगने लगी थीं। उनके घर की ओर जाने वाली गली लोगों से खचाखच भरी हुई थी। पास के मोहम्मद अली पार्क में भीड़ उमड़ पड़ी थी। यह भीड़ इशाक के बड़े भाई इस्माइल पर फिदा थी। इस्माइल के पास बोलने का शानदार कौशल था। इस सभा से कुछ पहले तक वह कांग्रेस नेता थे। हालांकि, इसके बाद वह मुसलमानों को मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग का अनुसरण करने के लिए बढ़ावा देने लगे थे। यहां से आजादी हासिल करने की पटकथा गड़बड़ा गई थी! शाजिया के अनुसार, उनके पिता इशाक ने इस दौरान खुद को संभाला। वह जानते था कि इस्माइल भाईसाहब के प्रति श्रद्धा के बावजूद वह अपने वतन को धोखा नहीं दे सकते हैं। इसकी मिट्टी ही उनकी विरासत और नियति थी।
शाजिया लिखती हैं, इस्माइल जबीह प्रसिद्ध उर्दू दैनिक ‘कौमी अखबार’ के पीछे बड़ी ताकत थे। जिन्ना ने 1946 के चुनावों में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के प्रचार अभियान का नेतृत्व करने के लिए इस्माइल को चुना था। इस्माइल ने अपना काम भी किया। मुस्लिम लीग ने उत्तर प्रदेश में 67 मुस्लिम सीटें जीतीं। लियाकत अली खान ने मेरठ से जीत हासिल की। मुस्लिम जनता को पाकिस्तान आंदोलन की ओर आकर्षित करने की खान ने युवा इस्माइल की सार्वजनिक रूप से सराहना की थी। ये वही लियाकत थे जो बाद में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने थे। जैसे ही अलग मुस्लिम राष्ट्र के लिए आंदोलन तेज हुआ इस्माइल पश्चिम की यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अपनी मां, छोटे भाई इशाक और यूसुफ को साथ आने के लिए बुलाया। इस्माइल को यकीन था कि कराची ही उनकी नियति है। इसके बाद की घटनाओं ने दोनों भाइयों के भाग्य को परिभाषित किया।
शाजिया आगे कहती हैं, इशाक ने पाकिस्तान आंदोलन को खारिज कर दिया। उन्होंने अपनी मां आयशा बेगम और छोटे भाई यूसुफ के साथ भारत में रहने की जिद की। घर भारत था और कोई भी इसे बदलने वाला नहीं था। शायद यही एक मौका था जब उन्होंने अपने बड़े भाई इस्माइल को ललकारा। हालांकि, पंजाब, बिहार, गुजरात और यूपी के कई मुसलमान इस्लाम के लिए विशेष मातृभूमि की कल्पना से मंत्रमुग्ध होकर पलायन में शामिल हो गए। इस तरह दोनों भाई अलग हो गए। वे यह नहीं जानते थे कि दोनों फिर मिलेंगे। दशकों बाद थोड़े समय के लिए ही सही। इस्माइल के पाकिस्तान चले जाने के बाद जिस घर में वे रहते थे, उसे शत्रु संपत्ति घोषित कर दिया गया। इशाक को अपने घर के लिए संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने अपने भाई के अखबार की विरासत को आगे बढ़ाने का फैसला किया।
इस्माइल जबीह को पाकिस्तान के संस्थापकों में से एक के रूप में जाना जाता है। वह एक लेखक के रूप में विरासत छोड़ गए थे। उनके शानदार कामों में कौटिल्य के अर्थशास्त्र कौटिल्य चाणक्य के रामूज-ए-सियासत और हुकुमरानी और ‘बर्रे सगीर में मुसलमानों का उरूज वा जवाल’ उपमहाद्वीप में मुसलमानों का उत्थान और पतन का उर्दू अनुवाद शामिल हैं। इस्लामाबाद में एक प्रमुख मार्ग का नाम इस्माइल के नाम पर रखा गया।
शाजिया के अनुसार, ‘सियासत जदीद’ को व्यापक स्वीकृति और पाठक वर्ग मिला। उन्होंने आजादी के नए युग का आनंद लिया। इशाक विभाजन के सदमे से उबर रहे भारतीय मुस्लिम समुदाय के लिए एक मुखर जिम्मेदार आवाज बने। जो लोग भारत में रह गए उन्हें उनके भाई तिरस्कार की नजरों से देखते थे। देखते भी क्यों न। आखिरकार, उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष भारत का नागरिक होने के लिए एक धार्मिक इस्लामी गणराज्य को खारिज कर दिया था। दूसरी ओर इस बड़े अल्पसंख्यक वर्ग की देशभक्ति संबंधी साख के संबंध में बहुसंख्यक समुदाय के बीच अविश्वास का एक तत्व था।
उधर, इशाक इल्मी ने बहुत ही कम समय में अपने समुदाय के लिए समान और बिना शर्त लोकतांत्रिक अधिकारों के समर्थन के जरिये एक खास जगह बना ली। उन्होंने आगे बढ़कर नेतृत्व किया। अक्सर उत्तर प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस सरकारों के निशाने पर रहे। मुहम्मद इशाक इल्मी ने अपने दिल की बात कागज पर उतार दी। उन्होंने अपने लेखन में स्वतंत्र भारत में मुसलमानों के जीवंत लोकतांत्रिक उद्देश्य की वकालत की। इसे उन्होंने एक धार्मिक मातृभूमि के बजाय अपने खुद के गणतंत्र के रूप में स्वीकार किया था। शाजिया ने अंत में लिखा है कि जब वह पीछे मुड़कर देखती हैं उन्हें उसे युवा नौजवान को धन्यवाद करने का मन करता है जिसने अपनी मातृभूमि के तौर पर भारत में रुकने का फैसला किया।