हाल ही में चंद्रयान 3 ने अपनी उड़ान भरी है! जिसका सक्सेस प्लान भी हमारे सामने आ चुका है! शुक्रवार का दिन ऐतिहासिक रहा। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो चंद्रयान मिशन-3 लॉन्च किया। दोपहर 2.35 बजे रॉकेट ने चांद को छूने के लिए उड़ भरी। तीसरे चंद्रयान मिशन में दूसरे मिशन की गलतियों से इसरो ने सबक लिया है। उसने सुनिश्चित किया है कि पिछली कोई गलती इस मिशन के साथ नहीं हो। यही कारण है कि उसने कई तरह के बदलाव किए हैं। पहले चरण से लेकर बाद के चरणों तक ये बदलाव मिशन की सफलता को पक्का करेंगे। दूसरे मिशन की असफलता के चार साल बाद तीसरा चंद्रयान मिशन भारत के लिए बेहद खास है। यह उसे उन सबसे शक्तिशाली देशों के क्लब में खड़ा कर देगा जो अब तक चांद पर अपने स्पेसक्राफ्ट उतार चुके हैं। इनमें अमेरिका, रूस और चीन शामिल हैं। इसरो के चेयरमैन एस सोमनाथ ने बताया है कि LVM3 चंद्रयान-3 को धरती से सबसे दूर के पॉइंट एपोजी में 36,500 किमी पर प्लेस कर देगा। चंद्रयान-2 मिशन में यह दूरी 45,475 किमी थी। धरती से सबसे पास के पॉइंट की दूरी दूसरे मिशन की तरह 170 किमी रहेगी। ऐसा स्टेबिलिटी के लिए किया जा रहा है।
लैंडर विक्रम में कई तरह के बदलाव हुए हैं। मसलन, उसके पैरों को ज्यादा मजबूत किया गया है। नए सेंसर लगाए गए हैं। सोलर पैनल से उसे लैस किया गया है। एक सबसे बड़ा बदलाव जो हुआ है वह है लैंडिंग एरिया का बढ़ाया जाना। चंद्रयान मिशन-2 में लैंडिंग साइट 500 मीटर गुणा 500 मीटर थी।धरती से सबसे पास के पॉइंट की दूरी दूसरे मिशन की तरह 170 किमी रहेगी। ऐसा स्टेबिलिटी के लिए किया जा रहा है।
लैंडर विक्रम में कई तरह के बदलाव हुए हैं। मसलन, उसके पैरों को ज्यादा मजबूत किया गया है। नए सेंसर लगाए गए हैं। सोलर पैनल से उसे लैस किया गया है। एक सबसे बड़ा बदलाव जो हुआ है वह है लैंडिंग एरिया का बढ़ाया जाना। चंद्रयान मिशन-2 में लैंडिंग साइट 500 मीटर गुणा 500 मीटर थी। इसके सेंटर में इसरो ने लैंडिंग की योजना बनाई थी। इसके कारण कुछ सीमा बन गई थी। अब लैंडिंग साइट को 4 किमी गुणा 2.5 किमी है। कोशिश तो सेंटर पॉइट पर उतरने की ही होगी। लेकिन, इस क्षेत्र के आसपास भी विक्रम उतर सकता है। इससे विक्रम को ज्यादा फ्लेक्सिबिलिटी मिलेगी। चंद्रयान-2 ऑर्बिटर से मिलीं हाई-रेजॉल्यूशन इमेजेस से लैंडिंग साइट को बेहतर समझने में मदद मिली। इसके सेंटर में इसरो ने लैंडिंग की योजना बनाई थी। इसके कारण कुछ सीमा बन गई थी। अब लैंडिंग साइट को 4 किमी गुणा 2.5 किमी है। कोशिश तो सेंटर पॉइट पर उतरने की ही होगी। लेकिन, इस क्षेत्र के आसपास भी विक्रम उतर सकता है। इससे विक्रम को ज्यादा फ्लेक्सिबिलिटी मिलेगी। चंद्रयान-2 ऑर्बिटर से मिलीं हाई-रेजॉल्यूशन इमेजेस से लैंडिंग साइट को बेहतर समझने में मदद मिली।
पिछली बार यह गलती हो गई थी कि इसरो ने लैंडिंग से पहले लैंडिंग एरिया की इमेज को लेकर प्लान किया था। फिर इसके बाद की कक्षा में लैंडिंग की कोशिश की गई थी। तब लैंडर इंजर ने थोड़ा ज्यादा थ्रस्ट पैदा कर दिया था। यह सीमा के अंदर ही था। हालांकि, अंतिम चरण में तस्वीरें और करेक्शन करने के लिए स्पेसक्राफ्ट का स्थिर होना बहुत जरूरी है। इसरो की कोशिश है कि मिशन में गलती की गुंजाइश न के बराबर रहे। सोमनाथ ने बताया है कि लैंडर को भी अतिरिक्त टीटीसी ट्रैकिंग, टेलीमेट्री और कमांड एंटीनों से लैस किया गया है।
बता दे कि चंद्रमा धरती से 3.83 लाख किलोमीटर दूर है. वास्तव में यह दूरी 4 से सात दिनों में पूरी की जा सकती है, क्योंकि नासा अपने यानों को चंद्रमा पर इसी समयांतराल के भीतर पहुंचा देता है. इसरो ऐसा क्यों नहीं करता? क्यों इसरो के प्रोजेक्ट लंबा समय लेते हैं? क्या इसके पीछे कोई विशेष कारण है? दरअसल, इसके पीछे दो कारण हैं. पहला कारण है कि दूसरे ग्रह में आंतरिक्ष यान को सीधे भेजने की प्रक्रिया महंगी होती है! यह गलत नहीं है कि ISRO अपने यानों को सीधे चंद्रमा तक नहीं भेज सकता. इसरो के पास नासा की तरह बड़े और प्रभावशाली रॉकेट नहीं हैं, जो चंद्रयान को सीधे चंद्रमा के गोलाकार आवरण में प्रवेश करा सकें. ऐसे रॉकेटों को बनाने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे. हालांकि, नासा की तुलना में इसरो के परियोजनाएं सस्ती होती हैं!
चीन, अमेरिका और सोवियत संघ के रॉकेट लॉन्चिंग की कीमत 550 से 1000 करोड़ रुपये के बीच होती है. वहीं, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र के रॉकेट लॉन्चिंग की कीमत 150 से 450 करोड़ रुपये तक रहती है. स्पेसक्राफ्ट में ईंधन सीमित मात्रा में ही होता है. इसलिए उसे सीधे किसी अन्य ग्रह पर भेजने से बचा जाता है, क्योंकि इसके कारण सारा ईंधन समाप्त हो जाएगा. इसलिए, उसे कम ईंधन का उपयोग करके धरती की गति और गुरुत्वाकर्षण की मदद से आगे भेजा जाता है!