तवांग में हुई हरकत से भारत को अब सबक लेना होगा! चीन के सैनिकों ने 9 दिसंबर को तवांग सेक्टर के यांग्त्से क्षेत्र में जो हिमाकत की, उसकी पूरे देश में चर्चा हो रही है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने आज संसद को अरुणाचल की घटना की पूरी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि चीन ने यथास्थिति बदलने की कोशिश की थी, जिसका भारतीय जवानों ने डटकर जवाब दिया। आखिर में चीन के सैनिक लौटने के लिए मजबूर हो गए। 2017 में डोकलाम, 2020 में गलवान और अब तवांग आखिर चीन चाहता क्या है? यह सवाल हर भारतीय के दिमाग में जरूर होगा क्योंकि ऐसी झड़पें 1967, 75, 87 में भी हुई थीं। 9 दिसंबर की घटना से एक हफ्ते पहले ही चीन ने भारत से 1993-1996 द्विपक्षीय सीमा समझौतों का पालन करने की दुहाई दी थी। तब वह औली में भारत और अमेरिका के सैन्य अभ्यास से भड़का हुआ था। लेकिन अब उसने बॉर्डर पर तवांग सेक्टर में खुलेआम दुस्साहस किया है। क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी अड़चनों के बावजूद भारतीय सेना ने फौरन जवाबी कार्रवाई की। हाथापाई में दोनों तरफ के सैनिकों को चोट आई है।
चीन और उसकी फौज का मकसद भले न स्पष्ट हो, पर उसकी मंशा जरूर साफ दिखती है। फिलहाल बॉर्डर पर सेना अलर्ट है। एयरफोर्स चीन की हरकतों को देखते हुए अरुणाचल प्रदेश में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के पास हालात पर करीब से नजर रख रही है। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस घटना से भारत सरकार या आम नागरिकों के लिए क्या संदेश मिलता है।
पूर्वी लद्दाख में गलवान गतिरोध अभी पूरी तरह से सुलझा भी नहीं था कि तवांग में चीन बेवजह भिड़ गया। बार-बार बॉर्डर पर की जा रही ऐसी हरकतों से साफ हो गया है कि चीन की रुचि सीमा विवाद को सुलझाने में नहीं है। तेजी से आगे बढ़ते भारत के विकास पर अंकुश लगाने के लिए वह आगे भी 3488 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर माहौल खराब करने की कोशिश करता रहेगा। उसकी सेना का मकसद 1959 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई द्वारा खींची गई काल्पनिक लाइन को पश्चिमी या पूर्वी लद्दाख सेक्टर में बार्डर का पर्सेप्शन देना है। इसके साथ ही चीन की फौज अरुणाचल प्रदेश को अपनी सीमा में देखने की नापाक हसरत पाले हुए हैं क्योंकि चीन इसे तिब्बत का हिस्सा मानता है। तवांग घुसपैठ की घटना बताती है कि चीन अपने छोटे, मध्यम और दीर्घकालिक रणनीतियों के हिसाब से गोलपोस्ट बदलता रहेगा। वह तिब्बत को पूरी तरह से चीनी संस्कृति में ढालने के मिशन पर काम कर रहा है।
लेफ्ट प्रेरित रणनीतिकार मानते हैं कि भारत को अमेरिका के ज्यादा करीब नहीं जाना चाहिए क्योंकि पश्चिमी देश पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है। वे 1971 में भारत-पाकिस्तान की लड़ाई के समय बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी नौसेना के जहाज भेजने का हवाला देते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि भारत को भ्रमित विदेश नीति पर आगे बढ़ना चाहिए। रूस के साथ नजदीकी बनाए रखें और चीन से भी रिश्ते बेहतर करने की कोशिश हो जिससे बॉर्डर पर शांति कायम हो सके। हालांकि समझना यह है कि हर बार चीन ही बॉर्डर पर माहौल खराब करता है। अब सवाल यह है कि रूस और चीन से संबंध बेहतर करते हुए भी भारत को पश्चिम से रिश्ते कमतर नहीं करने होंगे क्योंकि हमें लेटेस्ट टेक्नॉलजी वहीं से मिलनी है। वैसे भी, भारत अपने सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार कर रहा है।
यहां याद रखना होगा कि 2002 में अमेरिका के असैन्य परमाणु समझौते की पेशकश के बाद ही चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा माना था। अमेरिका के साथ भारत के करीबी रिश्ते चीन के हित में नहीं हैं। यही वजह है कि वह भारतीय और अमेरिकी सैनिकों को साथ देख भड़क उठता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कमजोर भारत देखना चाहती है और ऐसे में क्वॉड सहयोगी के रूप में बढ़ता उसका कद उसकी आंखों में खटक रहा है। एक बात और 1962 की जंग में रूस ने नहीं, अमेरिका ने भारत का सपोर्ट किया था। 1971 में स्थिति पलट गई थी।
कुछ एक्सपर्ट ऐसा मानते हैं कि अगर भारत चीन की सेना को भड़काना नहीं चाहता है तो उसे QUAD समूह से बाहर आ जाना चाहिए क्योंकि यह अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति को ज्यादा फायदा पहुंचाता है। इसकी बजाय भारत को अपने पड़ोस और हिंद महासागर पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। इसके पीछे यह तर्क रखा जाता है कि चीन की तुलना में भारत की क्षमता अलग-अलग क्षेत्रों में कमतर है। जहां चीन ग्लोबल रोल में दिखता है, भारत की क्षेत्रीय भूमिका है। हालांकि इस तरह के पर्सेप्शन में विरोधाभास भी दिखता है। भारत के हिंद-प्रशांत क्षेत्र से दूरी बनाने के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि चीन हिंद महासागर से दूरी बना लेगा और ड्रैगन की नेवी गश्त नहीं करेगी। ऐसे में चीन की आक्रामक फौज को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत को हिंद और प्रशांत महासागरों में ऑस्ट्रेलिया, जापान जैसे सहयोगियों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।
भारत के पास अब एक ही विकल्प है कि वह चीन की हरकतों को देखते हुए सेना की हाईटेक क्षमताओं को मजबूत करने पर ध्यान दे। फ्रांस और अमेरिका जैसे सहयोगी इस दिशा में मदद कर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों तक बॉर्डर पर सड़कों का जाल या दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया लेकिन मोदी सरकार इस दिशा में गंभीरता से प्रयास कर रही है। फिलहाल दोतरफा तैयारी की जरूरत है। एक तरफ बॉर्डर पर सैन्य साजोसामान जल्द पहुंचाने की सुविधाएं तैयार हों, साथ ही अत्याधुनिक हथियार प्रणाली हासिल करने की जरूरत है जिससे चीन का मुकाबला किया जा सके।हाल में पाकिस्तान में खुफिया मिशन या जासूसी पर केंद्रित कई वेब सीरीज और फिल्में बनी हैं। बीत सात दशकों में इसका असल में फायदा भी हुआ है। अब भारत को चीन में अपने इंटेलिजेंस को अपग्रेड करने पर ध्यान देना होगा जिससे एलएसी पर PLA की मंशा पहले ही भांपी जा सके। पिछले दशकों में चीन में भारतीय खुफिया गतिविधियां ज्यादा सक्रिय नहीं हो पाईं। जबकि निर्वासित तिब्बती समुदाय बड़ी संख्या में भारत में रहता है और पूरे हिमालयी क्षेत्र में तिब्बती बौद्ध मौजूद हैं। तिब्बती शरणार्थियों वाली स्पेशल फ्रंटियर फोर्स तो 60 के दशक में ही बन गई थी लेकिन पैंगोंग झील के पास उसे 2020 में तैनात किया गया। ऐसे में देखा जाए तो चीन के खिलाफ इंटेलिजेंस में काफी सुधार की गुंजाइश बची हुई है।