आखिर नेहरू और अंबेडकर की क्या थी UCC पर राय? जानिए!

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आज हम आपको बताएंगे कि नेहरू और अंबेडकर की UCC पर राय क्या थी! जब संविधान का प्रारूप तैयार हो रहा था तो जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव आंबेडकर चाहते थे कि पूरे भारत के लिए एक समान नागरिक संहिता हो। लेकिन, उन्हें धार्मिक कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा। संविधान सभा में इस पर चर्चा हुई, खूब हंगामा मचा। कई सदस्यों ने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता के लिए देश तैयार नहीं है। अल्पसंख्यक समुदाय में असुरक्षा की भावना है। हालांकि नेहरू और आंबेडकर इसे राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में शामिल करने में सफल रहे। इसी संवैधानिक निर्देश का अनुकरण करते हुए उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लाई गई। इस अधिनियम के अनुसार, विवाह के लिए लड़कों की न्यूनतम उम्र 21 और लड़कियों की 18 साल होनी चाहिए। बहुविवाह और बाल विवाह प्रतिबंधित है। यह संहिता उत्तराखंड के निवासियों पर लागू होती है। बाहर से आए लोग भी इसकी जद में हैं। हालांकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366(25) और 342 के तहत संरक्षित अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को इसमें शामिल नहीं किया गया है।

यह अधिनियम उत्तराधिकार के मामले में भी महत्वपूर्ण व्यवस्था करता है, विशेषकर जब कोई वसीयत न हो। कानून व्यक्ति के जीवनकाल के दौरान पैदा हुए बच्चों और उनकी मृत्यु के बाद पैदा हुए बच्चों के बीच अंतर नहीं करता। यदि किसी विधवा या विधुर ने मृतक की मृत्यु से पहले पुनर्विवाह किया है, तो उन्हें विरासत नहीं मिल सकती। हत्या में शामिल या हत्या में सहायता करने वाला कोई भी व्यक्ति पीड़ित की संपत्ति का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता। यह अधिनियम मृतक की संपत्ति की सुरक्षा का भी प्रावधान करता है। इसके तहत स्थानीय न्यायाधीश के पास आवेदन किया जा सकता है। इसके अलावा, जब किसी की मौत हो जाती है, तो उसके मामलों को संभालने के लिए नियुक्त व्यक्ति निष्पादक या प्रशासक हर चीज के लिए उसका कानूनी प्रतिनिधि बन जाता है और मृतक की सारी संपत्ति उसकी हो जाती है।

समकालीन समय में उभरी एक नई संस्कृति ‘लिव-इन रिलेशन’ के चलते महिलाएं उत्पीड़न का शिकार बनी हैं। इससे जुड़ी समस्याओं पर भी UCC में गौर किया गया है। उत्तराखंड के किसी भी निवासी या उत्तराखंड में रहने वाले व्यक्ति को अपने लिव-इन रिलेशनशिप का विवरण उस इलाके के रजिस्ट्रार को देना होगा। अगर दोनों में से कोई भी साथी नाबालिग है या किसी और से विवाहित है या अगर अनुमति जबरन ली गई है, तो लिव-इन रिलेशनशिप को पंजीकृत नहीं किया जाएगा। हालांकि ऐसे रिश्तों से पैदा हुए बच्चे वैध माने जाएंगे। विरोधियों का तर्क है कि इस तरह के अधिनियम को लागू करना धार्मिक स्वतंत्रता के लिए खतरा है, खासकर अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति। आलोचक दावा करते हैं कि संविधान सभी धर्मों के अनुयायियों को अपने धर्म का पालन करने और उसे संरक्षित करने के अधिकार की गारंटी देता है। UCC को इस सिद्धांत के विरोधाभास के तौर पर देखा जा रहा। भारत में विभिन्न समुदायों के पर्सनल लॉ में विभिन्न सांस्कृतिक प्रथाएं अंतर्निहित हैं। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के ढांचे के भीतर सांस्कृतिक विविधता का सम्मान और संरक्षण करना आवश्यक है। अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुस्लिम समाज को इस बात का डर है कि UCC इन सांस्कृतिक पहचानों को नष्ट कर सकता है।

लेकिन, अगर व्यापक नजरिए से देखा जाए तो UCC संविधान के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के अनुरूप है, जो सभी नागरिकों के साथ कानून के समक्ष समान व्यवहार करता है। यह विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग कानूनी ढांचे की आवश्यकता को समाप्त करता है ताकि पर्सनल लॉ के नाम पर लैंगिक असमानताओं को समाप्त किया जा सके।लड़कों की न्यूनतम उम्र 21 और लड़कियों की 18 साल होनी चाहिए। बहुविवाह और बाल विवाह प्रतिबंधित है। यह संहिता उत्तराखंड के निवासियों पर लागू होती है। बाहर से आए लोग भी इसकी जद में हैं। हालांकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366(25) और 342 के तहत संरक्षित अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को इसमें शामिल नहीं किया गया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह अधिनियम एक अधिक प्रगतिशील और समावेशी कानूनी ढांचे को बढ़ावा देता है ताकि कानूनी एकरूपता के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक न्याय का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के ढांचे के भीतर सांस्कृतिक विविधता का सम्मान और संरक्षण करना आवश्यक है। अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुस्लिम समाज को इस बात का डर है कि UCC इन सांस्कृतिक पहचानों को नष्ट कर सकता है।विभिन्न पर्सनल लॉ से उत्पन्न भ्रम और संघर्ष कम करते हुए UCC एक अधिक समतावादी समाज को प्राप्त करने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास है।