Friday, September 20, 2024
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आखिर क्या था मैसूर रियासत का आरक्षण सिस्टम?

आज हम आपको मैसूर रियासत के आरक्षण सिस्टम के बारे में जानकारी देने वाले हैं! बिहार में जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी होने से अन्य राज्यों पर भी इसका असर पड़ेगा। कर्नाटक के पास पहले से ही जातिगत आंकड़े जमा हैं, लेकिन उसने अब तक जारी नहीं किया। अब इसकी मांग बढ़ेगी और कर्नाटक सरकार पर दबाव बनेगा। उधर, जिन राज्यों ने अभी तक इस तरह के जातिगत सर्वेक्षण नहीं किए हैं, वो ऐसा करने का दबाव महसूस करेंगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति सर्वेक्षण का पूरा मकसद आरक्षण की चर्चा को केंद्र में लाना है, लेकिन यह भी सच है कि हाल के वर्षों में आरक्षण की मांग में बदलाव आया है। पहले आरक्षण की बहस कथित आगड़ी जातियों को इसके दायरे से बाहर रखने पर टिकी होती थी जबकि अब सभी जातियों के दबे-कुचले लोगों को आरक्षण के दायरे में लाने की वकालत होने लगी है। यूं कहें कि मंडल दौर के आक्रामक पिछड़ा-बनाम-अगड़ा की जातीय संघर्ष से अब एक ज्यादा समावेशी दृष्टिकोण अपनाने की बात जोर पकड़ने लगी है। बदली परिस्थितियों में देश में पहले आरक्षण व्यवस्था की याद दिला दी है और वो है- मैसूर रियासत में वर्ष 1921 में लागू किया गया आरक्षण।

मंडल रिपोर्ट को लागू करने से सामाजिक संघर्ष की स्थिति इसलिए भी पैदा हुई क्योंकि इस रिपोर्ट में कुछ हद तक भारत में जाति व्यवस्था की पारंपरिक भावना को नकार दिया गया था। पिछड़ी जातियों को अगड़ी जातियों के खिलाफ लामबंद करने पर इसका जोर इस दृष्टिकोण पर आधारित था कि जाति दरअसल वर्ग का ही एक छद्म रूप है। लेकिन जैसा कि समाजशास्त्रियों ने बताया है, सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार के दायरे में तो केवल अनुसूचित जातियां ही आती थीं। पिछड़ी और अगड़ी जातियों के बीच खींची गई रेखा के ठीक नीचे की जातियां उस लाइन के ठीक ऊपर की जातियों से अधिक बदतर नहीं थीं।

आरक्षण के दायरे से बाहर की जातियों की प्रारंभिक प्रतिक्रिया इसके विरुद्ध हो गई थी। लेकिन उन्हें जल्द ही एहसास हुआ कि विरोध करने से बेहतर है कि खुद के लिए भी आरक्षण का दावा किया जाए। नतीजतन उन जातियों ने भी आरक्षण की दावेदारी शुरू कर दी जो अतीत में अपने प्रभुत्व के लिए जानी जाती हैं। इनमें गुजरात के पाटीदार से लेकर कर्नाटक में लिंगायत तक, कई जातियां शामिल हैं। जैसे ही इन प्रमुख जातियों ने आरक्षण का दावा करना शुरू किया, आरक्षण के खिलाफ अभियान चलाने वाली अगड़ी जातियों की तादाद घटने लगी। इस तरह, ध्यान आरक्षण की जरूरत पर बहस करने से इस बात पर चला गया कि किस जाति को आरक्षण में कितनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।

प्रत्येक जाति की आबादी के अनुसार सीटों और नौकरियों में हिस्सेदारी। भले ही यह आइडिया उचित प्रतिनिधित्व की धारणा को पुष्ट करता हो, लेकिन इसमें काफी समस्याएं हैं। अगर जितनी आबादी, उतना हक के नारे को तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाया जाए तो इसका मतलब यही होगा कि हर सीट और नौकरी को आरक्षित कर दिया जाए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से निर्धारित आरक्षण की सीमा को खत्म करना होगा। लेकिन यह सामाजिक न्याय की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाएगा क्योंकि सबको आरक्षण के सबसे प्रभावशाली जातियों के साथ-साथ सबसे खराब जातियों का भी समान रूप से व्यवहार किया जाएगा। प्रत्येक को केवल अपनी जनसंख्या में हिस्सेदारी के बराबर सीटें और नौकरियां मिलेंगी।

यदि हम राजनीतिक सौदेबाजी की जगह फिर से ऐसा योग्यता और प्रतिनिधित्व के बीच सामंजस्य बिठाने वाला सिस्टम बनाने को तैयार हों तो हमारे पास आरक्षण की ऐसी व्यवस्था के ऐतिहासिक अनुभव हैं। वर्ष 1921 में मैसूर की रियासत में लागू आरक्षण व्यवस्था में सामाजिक प्रतिनिधित्व के साथ-साथ मुक्त प्रतिस्पर्धा के उद्देश्यों का भी ख्याल रखा गया था। तब सरकारी नौकरियों में 50% आरक्षण लागू किया गया था ताकि शेष आधी नौकरियां खुली प्रतिस्पर्धा के लिए छोड़ी जा सकें।

मैसूर आरक्षण ने यह सुनिश्चित करके प्रतिनिधित्व के हितों को पूरा किया कि कुछ छोड़कर जो नौकरशाही पर प्रभुत्व रखती हैं, सभी जातियां आरक्षित श्रेणी में जगह पाने की हकदार थीं। इसने यह सुनिश्चित करके सामाजिक न्याय की जरूरतों को पूरा किया कि जाति की रैंकिंग के निचले पायदान पर रहने वाले लोगों को आरक्षित नौकरियों में एक हिस्सा मिले जो उनकी जनसंख्या में हिस्से से अधिक हो, जबकि पदानुक्रम के शीर्ष के करीब रहने वालों को आरक्षित नौकरियों में एक हिस्सा था जो उनकी जनसंख्या में हिस्से से कम था।

मैसूर आरक्षण का सबसे बड़ा फायदा यह था कि इससे मंडल रिपोर्ट की तरह जातियों के बीच दुश्मनी का भाव पैदा नहीं हुआ। आरक्षण से बहुत कम लोगों को बाहर रखा गया था, इसलिए लड़ाई उन खास जातियों के बीच सीमित थी जिनकी आरक्षण में ज्यादा हिस्से की दावेदारी थी। इस कारण फायदा उठाने वाली और इससे पूरी तरह वंचित रही जातियों के बीच ऑल आउट वॉर जैसी नौबत नहीं थी। इससे आरक्षण, सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर कितना खरा उतर रहा है, इसकी भी निरंतर निगरानी होती रही।

दूसरा, प्रत्येक जाति या अन्य पहचान समूह के लिए आरक्षित सीटों और नौकरियों की हिस्सेदारी क्या होनी चाहिए? आदर्श रूप से, समाज के सबसे पिछड़ों की आरक्षण में हिस्सेदारी उनकी आबादी से भी ज्यादा होनी चाहिए। लेकिन अगर बिहार में जाति सर्वेक्षण हमें बताता है कि सबसे खराब स्थिति में रहने वाली जातियों की हिस्सेदारी उनकी जनसंख्या में उनकी वास्तविक हिस्सेदारी से बहुत कम है, तो उनकी हिस्सेदारी उनकी जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी के बराबर करना भी एक प्रमुख कदम होगा।

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