आज हम आपको डीनोटिफाइड ट्राइब्स के बारे में बताने जा रहे हैं! दिल्ली क्राइम सीजन 2 इसका पहला पार्ट निर्भया केस पर आधारित था और ये वाला नाइंटीज में दिल्ली के मशहूर ‘कच्छा-बनियान गैंग’ से रिलेटेड है। इन सब के बीच जिस एक अनोखी चीज की बात की गई है वो है ‘डीनोटिफाइड ट्राइब’। इस सीरीज में जो क्राइम है, उसकी जांच है और मुख्य किरदार हैं; इन सभी के बीच जो केंद्र पनपता है वो है ये डीनोटिफाइड ट्राइब और दोस्तोयेव्स्की का ये कथन – 100 संदेहों से मिलकर भी एक सुबूत नहीं बनता। अब ज्यादातर लोगों को डीनोटिफाइड ट्राइब के बारे में नहीं पता होगा तो चलिए पहले इसपर ही बात कर लेते हैं।
1871 में ब्रितानिया हुकूमत ने एक कानून पेश किया, नाम रखा – क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट। इस कानून के तहत सरकार ने कुछ कम्युनिटीज को पैदाइशी मुजरिम बोलकर ‘नोटिफाई’ किया। इसका मतलब था कि एक बार कोई कम्युनिटी अगर ‘नोटिफाई’ हो गई तो उस कम्युनिटी के सभी सदस्यों को अपने इलाके के लोकल मजिस्ट्रेट से मिलकर अपना नाम दर्ज करवाना होगा और किसी भी तरह के अपराध की स्थिति में पुलिस सबसे पहले इन्हें ही उठाती थी।फिर वक्त बदल गया, जज्बात बदल गए और हमारा देश आजाद हो गया। आजादी के बाद 1949 में भारत सरकार ने इस कानून को वापस ले लिया और कानून के ‘रिपील’ होते ही ये सभी कम्युनिटीज ‘डीनोटिफाई’ हो गईं। अब इन्हें ‘डीनोटिफाइड ट्राइब्स’ या DNT के नाम से जाना जाने लगा। मगर कानून वापस होने के बाद भी समाज इन ‘डीनोटिफाइड ट्राइब्स’ पर भरोसा करने से कतराता ही रहा। DNT कम्युनिटी के लोगों ने भी मुख्यधारा से जुड़ने की कोशिश की मगर आज भी इस कम्युनिटी के ज्यादातर लोग छोटे-मोटे काम, जिन्हें हम ‘ऑड जॉब्स’ कहते हैं, करने को मजबूर हैं। ज्यादातर आबादी झुग्गियों में रहती है और जैसे-तैसे अपना गुजारा करती है। अगर दिल्ली की बात करें तो इस कम्युनिटी के लोग पूर्वी दिल्ली के शाहदरा जैसे मुहल्लों में रहते हैं।
अंग्रेजों को गए हुए 75 साल होने को आए मगर सरकारी मानसिकता ना जाने क्यों वैसी ही दिखती है। आज भी अपराध की स्थिति में डीएनटी कम्युनिटी के लोगों को उठाया जाता है, भले ही उन्होंने अपने जीवन में कोई भी अपराध ना किया हो। अगर इस कानून की बात करें तो 1952 में भारत सरकार ने क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट को ही थोड़ा झाड़-पोछकर पेश किया और नाम रखा – हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट। मतलब अपराध जिनकी आदत में शुमार हो गया हो। वैसे 2007 में संयुक्त राष्ट्र की भेदभाव विरोधी संस्था ‘कमिटी ऑन दी एलिमिनेशन ऑफ रेसियल डेस्क्रिमिनाशन’ यानी सीईआरडी ने भारत को हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट – 1952 को वापस लेने को कहा है और डीएनटी कम्युनिटीज के रेहाबिलिएशन के लिए जरूरी निर्देश भी दिए हैं। अगर ‘दिल्ली क्राइम सीजन 2’ के ही डायलॉग को उठाएं तो, अब वापस सीरीज पर लौटते हैं। इस सीरीज में कई सारे मर्डर्स होते हैं और एक पूर्वाग्रह से ग्रसित पुलिस अफसर की वजह से सबसे पहले जो शक के घेरे में आते हैं वो हैं डीएनटी। दिखाया गया है कि कैसे पूर्वाग्रह और सच दो बातें होती हैं और कुछ लोगों के अपराध के आधार पर उनके पूरे समुदाय को गलत ठहरना कितना गलत जनरलाइजेशन है। फिल्ममेकर्स की इंटेंशन तो बढ़िया थी मगर क्या करते – बेचारे सेवियर कॉम्प्लेक्स के मारे भी तो हैं। सो बना दी। जैसे दलितों के लिए अनुभव सिन्हा साहब ने आर्टिकल – 15 बनाई थी, जैसे नॉर्थ-ईस्ट की समस्या को अड्रेस करते हुए उन्होंने ही ‘अनेक’ बनाई। यहां मैं अनुभव सिन्हा पर कोई पर्सनल अटैक की बात नहीं कर रहा हूं। मगर जब फिल्मों में सेवियर कॉम्प्लेक्स दिखाने की बारी आती है तो इन्हीं दोनों फिल्मों के नाम सबसे पहले मेरे जहन में आते हैं।
अगर आप ‘सेवियर कॉम्प्लेक्स’ टर्म से परिचित नहीं हैं तो आपको बता दूं कि ये वो कीड़ा है जो हमेशा ‘प्रिविलेज्ड सेक्शन’ के लोगों को ही काटता है। ये क्लास प्रिविलेज भी हो सकता है और कास्ट प्रिविलेज भी हो सकता है या फिर किसी और किस्म का प्रिविलेज भी इस केटेगरी में आ सकता है। मैं खुद एक प्रिविलेज्ड कास्ट से आता हूं तो मैं भी इस चीज से कोई अछूता नहीं हूं। ये कुछ ऐसे काम करता है कि प्रिविलेज्ड सेक्शन के लोगों को अपने से तथाकथित निचले सेक्शन के लोगों को देखकर दया आती है और वो ये ठान लेते हैं अब इस कम्युनिटी का सेवियर यानी रखवाला मैं बनूंगा। मैं सुनाऊंगा इनकी कहानी। लेकिन उनकी कहानी आप तब ईमानदारी से सुना पाएंगे न जब आपको उस समुदाय का लिव्ड एक्सपीरियंस हो। सोशल मीडिया पर इसे लेकर ही पूरा ‘पास द माइक’ कैंपेन भी चला है। थोड़ा इतिहास में पीछे जाएं तो ये ‘वाइट मैन्स बर्डन’ का ही भारतीय संस्करण है।
इस सेवियर कॉम्प्लेक्स वाले लफड़े के बीच मुझे इस बार शेफाली शाह भी उतना प्रभावित नहीं कर सकीं। शेफाली शाह बहुत अच्छी एक्टर हैं और उनके निभाए किरदारों से मैं आज तक मोहब्बत में हूं। बस इस बार यही शिकायत रही कि अपने किरदार को निभाते हुए अगर वो एक बार इस नैरेटिव पर भी थोड़ा गौर करतीं तो शायद कुछ बेहतर परिणाम आते। कोई नहीं शेफाली, टिल नेक्स्ट टाइम। जब बॉलीवुड में थोड़े सेंसिटिव फिल्ममेकर्स आ जाएं शायद तब।