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आखिर कौन है भारतीय फुटबॉलर नगेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी?
Saturday, April 19, 2025
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आखिर कौन है भारतीय फुटबॉलर नगेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी?

आज हम आपको भारतीय फुटबॉलर नगेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी के बारे में बताने जा रहे हैं! रविवार की रात भारत समेत दुनिया के ज्यादातर देश फुटबॉल विश्वकप फाइनल के खुमार में डूबा हुआ था। कोई अर्जेंटीना का सपोर्ट कर रहा था कोई फ्रांस का। अंत में इस बेहतरीन गेम की जीत हुई। भारत में फुटबॉल की लोकप्रियता का आलम क्या है ये आप विश्वकप फाइनल मुकाबले को देखकर लगा सकते हैं। पश्चिम बंगाल, केरल पूर्वोत्तर के राज्यों में यह खेल बेहद लोकप्रिय है। लेकिन क्या आपको पता है भारतीय फुटबॉल का जनक कौन है? या यों कहें भारतीय फुटबॉल का पितामह। देश में आज फुटबॉल की जो लोकप्रियता है वो उस भारतीय ‘मेसी’ की ही देन है। दरअसल, भारत में फुटबॉल की शुरुआत एक 8 साल के बच्चे के किक शुरू हुई थी। उस बच्चे का नाम था नागेंद्र प्रसाद नगेंद्र!  करोड़ों भारतीय आज जिस फुटबॉल के समर्थन में जमकर नारेबाजी कर रहे थे। उस फुटबॉल खेल को देश में शुरू करने का श्रेय नगेंद्र को जाता है। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान नगेंद्र ने एक ऐसा ख्वाब देखा था, जिसे पूरी करने के लिए उन्होंने जी जान लगा दी। देश में फुटबॉल संस्कृति को बढ़ावा देना और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए नगेंद्र को भारतीय फुटबॉल का जनक भी कहा जाता है। नगेंद्र युवावस्था से ही एक बेहतरीन फुटबॉल प्रशासक रहे थे। नगेंद्र की कहानी एक ऐसे युवा की है, जिसने जिद किया, सपना देखा और उसे पूरा किया। ऐसे ही उन्हें भारत का ‘मेसी’ नहीं कहा जाता है। नगेंद्र कहानी लाखों में एक ऐसे शख्स की कहानी है, जिसे जानकर आप गर्व करेंगे।

अंग्रेजों के राज के दौरान 19वीं सदी के शुरुआत में भारत में फुटबॉल खेल आया था। इस दौरान देश के कोलकाता , चेन्नै और मुंबई में कई फुटबॉल मैच खेले गए थे। लेकिन ये सब मैच केवल यूरोपीय समुदाय, खासकर ब्रिटिश सेना और नौसेना के कर्मियों के लिए ही और के बीच ही होते थे। यानी भारतीय फुटबॉल नहीं खेल सकते थे।

लेकिन कहते हैं न कि हर रात का सवेरा होता है। तो 1877 का वो साल भारतीयों की रात के लिए एक सवेरा वाला साल बना। इसी साल ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत और इंग्लैंड क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मेलबोर्न में पहला टेस्ट खेलने की अनुमति दे दी। बस यहीं से भारतीय फुटबॉल से शुरुआत का बीजारोपण हो गया। बंगाल के ‘भद्रलोक’ परिवार का नगेंद्र अपनी मां हेमलता देवी के साथ गंगा स्नान के लिए जा रहा था। हालांकि, घर से निकलने में कुछ देरी होने कारण मां-बेटे ने गंगा में डुबकी का कार्यक्रम थोड़ा छोटा किया और फिर वापस चल पड़े। रास्ते में नगेंद्र ने देखा कि कुछ ब्रिटिश सैनिक कलकत्ता एफसी ग्राउंड में फुटबॉल खेल रहे थे। नगेंद्र के जोर देने पर उनकी घोड़ागाड़ी रोक दी गई। बच्चा नगेंद्र बड़ा ही कौतुहल से इस खेल को देख रहा था। तभी एक फुटबॉल नगेंद्र की तरफ आ गया, एक ब्रिटिश सैनिक ने नगेंद्र को कहा, ‘बच्चे, फुटबॉल को किक मारो’। नगेंद्र ने ऐसा ही किया। इसके साथ ही एक इतिहास बन गया। मशहूर फुटबॉल एक्सपर्ट नोबी कपाड़िया ने अपनी किताब ‘बेयरफुट टु बूट्स’ मे लिखा है कि किसी भारतीय का फुटबॉल को किक मारने की यह पहली घटना थी। इसपर बहस हो सकती है कि नगेंद्र ने पहली बार फुटबॉल को किक मारी या नहीं। लेकिन असलियत ये थी कि देश में फुटबॉल की नींव पड़ चुकी थी।

फुटबॉल को किक मारने वाले नगेंद्र इसके बाद इस खेल के सपने में डूब गए। इसके बाद नगेंद्र और उनके दोस्तों ने गुल्लक के पैसों से फुटबॉल खरीदने का प्लान बनाया। पैसे इकट्ठा करने के बाद सभी बच्चे उस वक्त के मशहूर दुकान मैंटोन एंड कंपनी फुटबॉल खरीदने पहुंचे। पर बच्चे अपनी कम उम्र या कुछ अन्य वजहों से फुटबॉल की जगह से रग्बी बॉल खरीद लाए। गर्व से भरे बच्चे अपने स्कूल में रग्बी गेंद लेकर पुहंचे और खेलना शुरू कर दिए। उन्हें न तो फुटबॉल का नियम पता था और तरीका लेकिन फिर भी वो मैदान में रग्बी की गेंद से खेल रहे थे। लेकिन बच्चों के इस खेल को देखने के लिए सैकड़ों की भीड़ एकत्र हो गई और लोग मजे भी लेने लगे।

इन दर्शकों में कुछ आसपास के स्कूल-कॉलेज के यूरोपीय शिक्षकों का ग्रुप भी था। इसी दौरान प्रेसिडेंसी कॉलेज के प्रोफेसर जीए स्टॉक ने अपनी कॉलेज के बालकनी से बच्चों को खेलते देखा। अचंभित प्रोफेसर ने इन बच्चों की भावना से बेहद खुश हुए। इसके बाद उन्होंने आकर बच्चों से पूछा कि आखिर वो कौन सा खेल खेल रहे हैं? बच्चे थोड़े चकित हुए लेकिन कुछ पूरा बता नहीं पाए। तो स्टॉक ने नगेंद्र को फुटबॉल के नियम सिखाने की पेशकश की और बच्चों को एक असली फुटबॉल भी गिफ्ट किया। प्रेसिडेंसी कॉलेज के ही एक अन्य प्रोफेसर जेएच गिलिगैंड भी स्टॉक से साथ जुड़ गए।

नगेंद्र एक बेहतरीन खिलाड़ी निकले। जल्द ही वह फुटबॉल की बारीकियों को सीख गए और एक बेहतरीन खिलाड़ी बन गए। जल्द ही नगेंद्र और उनके दोस्तों ने एक ब्यॉज क्लब बना लिया। भारत में यह पहला संगठित फुटबॉल क्लब था। इस घटना के बाद मशहूर कॉलेजों जैसे प्रेसिडेंसी कॉलेज, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज और सेंट जेवियर्स कॉलेज ने भी अपनी-अपनी फुटबॉल टीम बना ली। इसके बाद नगेंद्र ने अपने सहपाठी नागेंद्र मलिक के साथ मिलकर, जो कलकत्ता के चोरबगान इलाके शाही फैमिली के सदस्य थे, फ्रेंड्स क्लब बना लिया। ये कलकत्ता और देश में फुटबॉल क्लब के इतिहास के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। स्कूल से पास होने के बाद नगेंद्र ने प्रेसिडेंसी कॉलेज में एडमिशन में ले लिया। हर गुजरते साल के साथ नगेंद्र कलकत्ता के स्पोर्टिंग क्लब में बेहतरीन नाम बनते चले गए। कॉलेज से 1884 में निकलने के बाद नगेंद्र ने वेलिंगटन क्लब की स्थापना की थी। इसके बाद उन्होंने भारतीय फुटबॉल में सोशल चेंज करने की सोची। इस दौरान भी फुटबॉल ऊंची जातियों का खेल बना हुआ था। इसके बाद नगेंद्र ने नियमों में बदलाव करते हुए कुम्हार के बेटे मोनी दास को क्लब में एंट्री दी। हालांकि, इस दौरान उन्हें क्लब के मजबूत सदस्यों की तरफ से विरोध का सामना करना पड़ा। इस तरह की भेदभाव नीतियों से आहत होकर नगेंद्र ने वेलिंगटन क्लब को भंग कर दिया। 1897 में उन्होने सोवाबाजार क्लब की स्थापना की। इस क्लब में समाज के सभी वर्गों के खिलाड़ियों को मेंबरशिप देने का प्रावधान किया गया। इस क्लब में बदलाव का जोरदार स्वागत किया गया। इस क्लब नगेंद्र के पूर्व के क्लब के खिलाड़ी शामिल हुए और एक मजबूत टीम बन गई। इसके बाद यह क्लब 1889 में ट्रेडेस कप (Trades Cup) में शामिल होने वाला पहला भारतीय क्लब बना। 1892 में सोवाबाजार क्लब ने फाइनल में ईस्ट सरे रेजिमेंड को 2-1 से हराया। इसके साथ ही सोवाबाजार क्लब किसी बड़े टूर्नामेंट में ब्रिटिश टीम को हराने वाली पहला क्लब बन गई। इस जीत ने ही 1911 मोहन बगान क्लब की IFA शील्ड में जीत का मार्ग प्रशस्त किया था।

नगेंद्र ने 1892 में भारतीय फुटबॉल एसोसिएशन (IFA) की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। आगे चलकर 1937 में अखिल भारतीय फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) बना। 1940 में निधन होने से बहुत पहले ही नगेंद्र ने भारतीय फुटबॉल के पितामह होने का खिताब मिल गया था।

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