आज हम आपको बताएंगे की आखिर महिला आरक्षण का क्रेडिट किसे जाएगा! महिला आरक्षण बिल बुधवार को लोकसभा में पास हो गया। यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने से जुड़ा है। इसकी कवायद पुरानी है। लेकिन, कभी इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। मंगलवार को इस बिल को लोकसभा में पेश किया गया था। यह बिल आधी आबादी से जुड़ा है। ऐसे में विपक्षी दल भी चाहते हैं कि इसका पूरा क्रेडिट सरकार न लूट ले जाए। यही वजह है कि विपक्षी दलों में बिल पर बहस के दौरान श्रेय लेने की होड़ दिखी। तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा ने पार्टी प्रमुख और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी को इस बिल की मां करार दिया। दावा किया कि उन्होंने यह सिद्धांत काफी पहले ही लागू कर दिया था। वहीं, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसे पूर्व पीएम राजीव गांधी का सपना बताया। उन्होंने बिल पर समर्थन जताया। आइए, इस होड़ के बीच यह समझने की कोशिश करते हैं कि महिला आरक्षण का इतिहास क्या रहा है? इसके लिए पहली कोशिश कब हुई? महिला आरक्षण का प्रस्ताव 1996 में आया था। इसे लेकर तब जोरदार ड्रामा हुआ था। बिल के मसौदे में अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी के लिए सब-कोटा नहीं होने से भी इसका जमकर विरोध हुआ था। रिजर्व सीटों के रोटेशन के प्रस्ताव को लेकर भी आपत्ति थी। वैसे राजनीतिक संस्थानों में महिला आरक्षण की मांग स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही उठ गई थी। 1931 में तीन महिला संगठनों की ओर से बेगम शाह नवाज और सरोजिनी नायडू ने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री को खत लिखा था। इस चिट्ठी में उन्होंने महिलाओं के लिए राजनीतिक क्षेत्र में बराबरी की मांग की थी। हालांकि, यह पूरा मामला ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा।
1974 में भारत में महिलाओं की स्थिति के लिए बनी समिति की रिपोर्ट पब्लिश हुई। उसने अपनी रिपोर्ट में बताया कि चुनावों में महिलाओं का वोट प्रतिशत जरूर बढ़ा है। लेकिन, कैंडिडेट के तौर पर उनके प्रतिनिधित्व में लगातार गिरावट आई है। इसके बाद एक बहस छिड़ गई। इस बहस का नतीजा था कि 1980 के दशक के आखिरी में नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान 1988-2000 तैयार हुआ। एनपीपी ने सुझाव दिया था कि पंचायतों के साथ शहरी निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होनी चाहिए।
1992 और 1993 के बीच 73वां और 74वां संविधान संशोधन पारित हुआ। इसमें प्रस्ताव किया गया कि पंचायती राज संस्थानों और शहरी निकायों में एक-तिहाई से कम सीटें महिलाओं के लिए नहीं होनी चाहिए। इसी के भीतर अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए एक-तिहाई रिजर्वेशन की व्यवस्था की गई।
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिला आरक्षण के लिए पहला प्रयास 12 दिसंबर 1996 में हुआ। तब एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाली यूनाइटेड फ्रंट की सरकार ने लोकसभा में बिल पेश किया था।महिला आरक्षण का प्रस्ताव 1996 में आया था। इसे लेकर तब जोरदार ड्रामा हुआ था। बिल के मसौदे में अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी के लिए सब-कोटा नहीं होने से भी इसका जमकर विरोध हुआ था। रिजर्व सीटों के रोटेशन के प्रस्ताव को लेकर भी आपत्ति थी। वैसे राजनीतिक संस्थानों में महिला आरक्षण की मांग स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों से ही उठ गई थी। 1931 में तीन महिला संगठनों की ओर से बेगम शाह नवाज और सरोजिनी नायडू ने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री को खत लिखा था। बिल में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने की बात कही गई थी। ये सीटें रोटेशन आधार पर दी जानी थीं। लेकिन, 13 दलों के गठबंधन के कुछ घटक दल इसे लेकर तैयार नहीं हुए।
फिर एनडीए और यूपीए की सरकारों में भी इसे लेकर अपने-अपने स्तरों पर प्रयास हुए। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने बिल को लोकसभा में पेश किया था। बिल को जब पेश किया गया था तो आरजेडी के सांसद ने स्पीकर से छीनकर इसे फाड़ दिया था। वाजपेयी सरकार अप्रैल 1999 में गिर गई थी। बता दें कि कैंडिडेट के तौर पर उनके प्रतिनिधित्व में लगातार गिरावट आई है। इसके बाद एक बहस छिड़ गई। इस बहस का नतीजा था कि 1980 के दशक के आखिरी में नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान 1988-2000 तैयार हुआ। एनपीपी ने सुझाव दिया था कि पंचायतों के साथ शहरी निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होनी चाहिए। इसी के साथ बिल भी लैप्स हो गया था। दिसंबर 1999, 2002 और 2003 में इसे दोबारा पेश किया गया। लेकिन, हर बार हश्र वही रहा। 2008 में मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में यह थोड़ा आगे बढ़ा। लेकिन, मुकाम तक नहीं पहुच पाया।