वर्तमान में कई डॉक्टर आत्महत्या करते जा रहे हैं! राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग एनएमसी के अनुसार, भारत में बड़ी संख्या में मेडिकल छात्र मानसिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं, जिसमें आत्महत्या और ड्रॉपआउट की दर अधिक है। पिछले पांच वर्षों में 64 एमबीबीएस और 58 विभिन्न पोस्ट-ग्रैजुएट पाठ्यक्रमों में पढ़ने वाले 122 मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इसके अतिरिक्त, इसी अवधि के दौरान देशभर के मेडिकल कॉलेजों से 1,270 छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी। एनएमसी ने सूचना के अधिकार आरटीआई के तहत पूछे गए सवालों के जवाब में ये आंकड़े दिए। रिपोर्ट बताती है कि आत्महत्या करने वाले 64 एमबीबीएस छात्रों में से एक और आत्महत्या करने वाले 58 स्नातकोत्तर मेडिकल छात्रों में से चार दिल्ली से थे। आरटीआई कार्यकर्ता डॉ. विवेक पांडे ने एनएमसी से यह जानकारी प्राप्त की। उन्होंने बताया कि जिन छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी, उनमें से तीन एमबीबीएस कर रहे थे और 155 पीजी कोर्स में थे। ये सभी 2018 और 2022 के बीच के बैच के और दिल्ली से थे। फेडरेशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन (FORDA) के अध्यक्ष डॉ. अविरल माथुर ने जोर देकर कहा कि ये आंकड़े गवाही हैं कि मेडिकल छात्रों को कितनी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। मेडिकल एजुकेशन की कठोर शर्तें छात्रों में तनाव पैदा करती हैं और उसे बढ़ाती हैं। ऐसे में पहचानना महत्वपूर्ण है कि इन आत्महत्याओं के अंतर्निहित कारण बहुआयामी हैं।
डॉ. माथुर के अनुसार, असीमित ड्यूटी आवर, आराम करने के पर्याप्त वक्त का अभाव, घटिए सीनियर्स के कारण बना दमघोंटू वातावरण और पीजी स्टूडेंट्स के लिए समय की कमी जैसे कारक शारीरिक थकान और मानसिक समस्याओं के आधार बनते हैं। उन्होंने कई संस्थानों में जोखिम वाले छात्रों की समस्याओं के समाधान के लिए उचित तंत्र और काउंसलिंग सर्विस के अभाव की भी चर्चा की। डॉ. माथुर ने आगे बताया कि परिवार की उम्मीदों से पैदा हुआ तनाव, पढ़ाई का बहुत ज्यादा बोझ और मरीजों के इलाज की जिम्मेदारियां छात्रों का जीवन बहुत कठिन बना देती हैं। अलग-अलग भाषा की पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए भाषा की बाधाएं, मेडिकल एजुकेशन के शैक्षणिक और सामाजिक पहलुओं के अनुकूल होने में उनकी कठिनाइयों को और बढ़ा देती हैं। FAIMA डॉक्टर्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. रोहन कृष्णन ने मेडिकल छात्रों के बीच खतरनाक आत्महत्या दर के मुख्य कारणों में से एक के रूप में दंडात्मक प्रणाली की पहचान की। उन्होंने कहा कि छात्रों को पढ़ाई छोड़ने के डर से मनोवैज्ञानिक दबाव का सामना करना पड़ता है, क्योंकि ऐसा करने पर सख्त दंड का प्रावधान है। कुछ कॉलेजों में, जो छात्र प्रवेश के बाद छोड़ना चाहते हैं, उन्हें 50 लाख रुपये का जुर्माना भरना पड़ता है और अगले तीन साल तक परीक्षा नहीं दे सकते।
दिल्ली में केंद्र सरकार के मेडिकल कॉलेजों- लेडी हार्डिंग्स, सफदरजंग और आरएमएल और दिल्ली सरकार के मेडिकल कॉलेजों- मौलाना आजाद और यूसीएमएस यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइसेंज में छात्रों को एडमिशन के वक्त कोई बॉन्ड नहीं भरना पड़ता है, लेकिन आर्मी और ईएसआई के मेडिकल कॉलेजों में ऐसा प्रावधान है। डॉ. कृष्णन ने कहा कि सरकार और आयोग की यह नीतिगत विफलता उन छात्रों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ती जो डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने ऐसे छात्रों के लिए बिना जुर्माना पढ़ाई छोड़ने का विकल्प देने की वकालत की, जिसके लिए मेडिकल एजुकेशन पॉलिसी में सुधार की वाकई सख्त दरकार है।
चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में सुधारों की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने पढ़ाई के तनावपूर्ण माहौल और आरटीआई से मिले आंकड़ों में झलकी मेडिकल स्टूडेंट्स की हालत पर चिंता जाहिर की। डॉ. द्विवेदी ने कहा कि इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए शैक्षणिक संस्थानों, क्लिनिकों-अस्पतालों, नीति निर्माताओं और छात्र संगठनों सहित सभी हितधारकों को सहयोग की भावना से आगे आना होगा। मेडिकल छात्रों को कितनी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। मेडिकल एजुकेशन की कठोर शर्तें छात्रों में तनाव पैदा करती हैं और उसे बढ़ाती हैं। सरकार और आयोग की यह नीतिगत विफलता उन छात्रों के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ती जो डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ना चाहते हैं। उन्होंने ऐसे छात्रों के लिए बिना जुर्माना पढ़ाई छोड़ने का विकल्प देने की वकालत की, जिसके लिए मेडिकल एजुकेशन पॉलिसी में सुधार की वाकई सख्त दरकार है।ऐसे में पहचानना महत्वपूर्ण है कि इन आत्महत्याओं के अंतर्निहित कारण बहुआयामी हैं।डॉ. माथुर ने भी ऐसा अनुकूल माहौल बनाने पर जोर दिया जिसमें मेडिकल स्टूडेंट्स घुटन महसूस करने की जगह उत्साह से लबरेज हों। उन्होंने चौतरफा कदम उठाने का आह्वान किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी छात्र मेडिकल एजुकेशन में अच्छा प्रदर्शन करने की यात्रा में खुद को अकेला महसूस नहीं करे।