वर्तमान में किसान आंदोलन पर सवाल खड़े हो रहे हैं! अगर कोई विदेशी पंजाब के पटियाला जिले के शंभू बॉर्डर और संगरूर जिले के खनोरी बॉर्डर की तस्वीर देखेगा तो पहली नजर में उसे यही लगेगा कि कोई युद्ध चल रहा है। किसान संगठनों ने जिस तरह मिट्टी के बोरों से दीवारें बनाई हैं, वह सीमाओं की मोर्चाबंदी जैसी ही है। लोकतांत्रिक आंदोलन के नाम पर ऐसी युद्ध की मोर्चाबंदी कभी नहीं देखी गई। बड़ी-बड़ी JCB मशीनें, क्रेन, पोकलेन, ट्रैक्टर को इस तरह मॉडिफाई किया गया है कि ये बख्तरबंद वाहन बन गए हैं। इनके केबिन को लोहे की छड़ों से इस तरह घेरा गया है कि सिर्फ देखने की जगह बचे। आंसू गैस के गोलों का इन पर कोई प्रभाव न पड़े। वाहनों के पहियों को भी लोहे की चादरों से घेरा गया है ताकि कील आदि न चुभ सकें। आंसू गैस के प्रभाव को कम करने के लिए ट्रैक्टरों के पीछे पंख लगाए गए हैं। लोगों के बीच इंडस्ट्रियल गैस मास्क, सामान्य गैस मास्क बांटे गए हैं। इसके अलावा मुल्तानी मिट्टी, टूथपेस्ट आदि के भी बड़े भंडार रखे गए हैं ताकि आंसू गैस के प्रभाव कम किए जा सकें। सीने और घुटने के गार्ड से लेकर बॉडी सील और बुलेट प्रूफ जैकेट तक दिखाई दे रहे हैं। भारी संख्या में पतंग की व्यवस्था है जो ड्रोनों को रोकने के काम आ सकते हैं। इन सबको क्या कहेंगे?
ऐसा आंदोलन न कभी देखा गया न सुना गया। दूसरी ओर पुलिस ने भी अपना सुरक्षा घेरा बनाया है। आंसू गैस, रबर की गोलियां, बुलेट प्रूफ जैकेट, JCB, ड्रोन, कंटेनर बैरिकेड, मास्क आदि दिख रहे हैं। खनौरी बॉर्डर हरियाणा के जींद और शंभू बॉर्डर हरियाणा के अंबाला से लगता है। हरियाणा सरकार ने अपनी सीमाओं को इस तरह सील किया है कि आसानी से कोई घुस नहीं सकता। दछसरे बॉर्डर से भी किसानों ने घुसने की कोशिश की। हरियाणा सरकार और केंद्र सरकार के लिए विकट स्थिति है। कारण यह कि किसी को ऐसे आंदोलन से निपटने का अनुभव नहीं है। बावजूद इसके, सरकार किसान संगठनों से बातचीत कर रही है। हालांकि फिलहाल दिल्ली कूच का विचार किसानों ने स्थगित कर रखा है। लेकिन इस संदर्भ में विचार के दो बिंदु हैं- आंदोलन का तौर-तरीका और संगठनों द्वारा उठाए गए मुद्दे। पहला आरोप यही है कि सरकार किसान संगठनों को दिल्ली में प्रवेश करने से रोकना चाहती है, जो इनके संविधान प्राप्त अधिकारों के विरुद्ध है।
प्रश्न है कि सरकार क्या करे? इस तरह उपद्रव की तैयारी वाले लाव-लश्कर के साथ इन संगठनों को आगे बढ़ने दे? बेशक, देश की राजधानी दिल्ली में किसी को भी आने-जाने का अधिकार है। किंतु इस तरह युद्ध की तैयारी से अगर कोई समूह चलेगा तो उसे रोकना राज्य का दायित्व बनता है। दूसरे, जब सरकार चंडीगढ़ में उनसे बातचीत को तैयार है तो दिल्ली आने का क्या मतलब है? संयुक्त किसान मोर्चा कह रहा है कि सरकार केवल बातचीत में उलझाना चाहती है। तो क्या वे दिल्ली में घुसकर युद्ध लड़ेंगे? पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने भी कहा भी कि अगर इन्हें दिल्ली जाना है तो बस से क्यों नहीं जा रहे? उच्च राजपथों पर ट्रैक्टर-ट्रॉली और ऐसे कई वाहनों का निषेध है तो किस कानून के तहत ये पंजाब में चलते हुए सीमा तक आ गए? आगे इन्हें किस कानून के तहत हाईवे या एक्सप्रेस-वे पर चलने की अनुमति दी जाएगी? वास्तव में यह आंदोलन का तरीका है ही नहीं, आंदोलन विरोधी आचरण है। कई विडियो आए हैं, जिनमें इन वाहनों में टेलिविजन सहित सारी सुख-सुविधाएं दिख रही हैं।
आंदोलन में लगे संसाधनों और तौर-तरीके से ऐसा लगता ही नहीं कि वाकई किसान किसी तरह के संकट से गुजर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे ये आंदोलन का उत्सव मना रहे हों। पंजाब सरकार की जिम्मेदारी थी कि इन्हें कानून को धता बताने से रोके। यदि उसने अपनी जिम्मेदारी का पालन किया होता तो हरियाणा को समानांतर मोर्चाबंदी नहीं करनी पड़ती। सरकार किसी की भी हो आंदोलन के नाम पर इस तरह की गतिविधियों को महत्व मिलना भविष्य के लिए खतरनाक होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ चलाया जाना चाहिए।
इस आंदोलन के नेताओं ने बातचीत में ऐसी-ऐसी मांगें रखी हैं, जिन्हें कोई सरकार स्वीकार नहीं कर सकती। किंतु केंद्र बिंदु न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी कानून को बनाया गया है। यानी सरकार कानून बना दे ताकि किसानों की पैदावार न्यूनतम मूल्य से नीचे कोई न खरीदे। सामान्य तौर पर देखें तो यह मांग स्वाभाविक लगेगी। किंतु MSP की पृष्ठभूमि हमारे देश में खाद्यान्न संकट से जुड़ी हुई है। 70 के दशक में MSP का आधार इसलिए दिया गया था कि किसान अधिक पैदावार के लिए प्रोत्साहित हों और कठिन समय के लिए सरकार के पास पर्याप्त भंडार रहे। आज MSP की उस रूप में न प्रासंगिकता है और न ही कोई सरकार इसकी गारंटी दे सकती है। मूल बात है किसानों की खेती में लागत कम करना और खेत की उर्वरा शक्ति व धरती के नीचे के पानी को बचाना। सरकार प्राकृतिक खेती पर जोर दे रही है।