आखिर रामचरितमानस की बुराई क्यों कर रहे हैं नेता?

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नेताओं ने अब रामचरितमानस की बुराई करना शुरू कर दिया! आप फिल्में तो देखते होंगे? अगर आपको फिल्में पसंद नहीं तो उपन्यास या कहानियां तो अच्छी लगती होंगी? कभी नाटक तो देखा होगा? इन सवालों के बाद एक और सवाल- फिल्मों, कहानियों, उपन्यासों या नाटकों के किरदार के डायलॉग्स के लिए आप लेखकों को गाली देते हैं क्या? शानदार पटकथा, बेजोड़ डायलॉग्स लेखन के लिए लेखक की सराहना जरूर करते होंगे। इसके उलट खराब लेखन शैली पर आप मुंह बिचकाते होंगे, लेकिन यह तो नहीं मानते होंगे ना कि पात्रों ने जो डायलॉग्स बोले हैं वो दरअसल लेखक की सोच और उसके ही चरित्र के प्रतिबिंब हैं? बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर यादव और उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी (SP) नेता स्वामी प्रसाद मौर्य बता रहे हैं कि पात्रों के बयानों से ही लेखक, कवि, गीताकर, नाटककार, फिल्मकार आदि का चरित्र चित्रण होना चाहिए। यह दलित विमर्श के नए पथ प्रदर्शक हैं जो रामचरितमानस की चौपाइयों के लिए महाकवि तुलसीदास को स्त्री विरोधी, दलित विरोधी और पता नहीं किन-किनके विरोधी बता रहे हैं। मजे की बात है कि स्त्रियों के लिए कहे गए कबीर के दोहों पर इनकी नजर नहीं पड़ती।

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यंत्री योगी आदित्यनाथ से ‘ढोल, गंवार शुद्र, पशु, नारी’ वाली चौपाई पढ़ने की चुनौती दे दी है। उनसे पहले राष्ट्रीय जनता दल (RJD) नेता चंद्रशेखर यादव ने तुलसीदास की आलोचना का आधार रामचरितमानस की तीन चौपाइयों को बना चुके हैं। उनका कहना है कि ‘पूजहि विप्र सकल गुण हीना, शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा’, ‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा’ और ‘अधम जाति में विद्या पाए, भयहु यथा अहि दूध पिलाए’ जैसी चौपाइयां चंद्रशेखर की नजर में तुलसीदास के ब्राह्मणवादी और घोर दलित विरोधी होने के पुष्ट प्रमाण हैं। वहीं, एसपी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ समेत कुछ और चौपाइयों का हवाला देकर तुलसीदास पर लांछन लगाए हैं। वो कहते है किं ये समाज को ऊंच-नीच में बांटने वाले और भेदभाव को बढ़ाने वाले प्रतिगामी विचार हैं, इसलिए या तो इन चौपाइयों को रामचरितमानस से हटा लिया जाए या रामचरितमानस ही बैन कर दिया जाए। क्या सच में तुलसीदास में जाति का जहर भरा था या फिर चंद्रशेखर और मौर्य जैसे नेता एवं उनके खास समर्थक वर्ग की मंशा हिंदू समाज को बांटकर अपना उल्लू साधने की है?खैर, फिलहाल सवालों को छोड़ते हैं और तुलसीदास पर लगाए जा रहे आरोपों को रामचरितमानस के प्रसंगों, उनकी ही अन्य चौपाइयों एवं तुलसी के अन्य ग्रंथों में उद्धृत वचनों के आईने में परखते हैं। तुलसीदास कितने ब्राह्मणवादी थे इसका अंदाजा रामचरितमानस की इस चौपाई से लगाइए।

अगर जन्म से जाति और समाज में उनकी स्थिति तय होती तो ऋषि पुलस्त्य के नाती रावण राक्षस नहीं होते; जिन रघु के नाम पर भगवान राम के कुल का नाम रघुकुल पड़ा, उन्हीं रघु के पुत्र प्रवृद्ध राक्षस नहीं हो गए होते; दासी के पुत्र विदुर ब्राह्मण नहीं होते और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री का सम्मानित पद नहीं दिया गया होता; गुरु विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण नहीं अपनाया होता; खुद विश्वामित्र ने क्षत्रिय होकर ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं किया होता। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का वर्ण कर्म आधारित था, ना कि जन्म आधारित। इसीलिए एक वर्ण में पैदा हुआ बालक आगे जाकर दूसरा वर्ण ग्रहण कर लेता था।

लेकिन वर्णाश्रम व्यवस्था में ब्राह्मण को ही सर्वोपरि स्थान क्यों दिया गया? इसलिए क्योंकि ब्राह्मण का जीवन धर्म और समाज के कल्याण को समर्पित होता था। वो धन संग्रह नहीं करते, भिक्षा मांगकर गुजारा करते थे। ब्राह्मण भोग-विलास से दूर रहकर धर्मग्रंथों का ज्ञान लेते और बांटते। तुलसीदास जैसे महाकवि हों या मनु जैसे ऋषि, सबने ऐसे ही ब्राह्मणों के लिए ही कहा है कि ब्राह्मण अगर कभी भला-बुरा भी कह दे, कभी गुस्से में भी आ जाए तो उनकी बातों का बुरा नहीं मानते। क्या हम आज भी नहीं कहते- उन्होंने मेरे लिए बहुत किया, आज अगर मुझसे नाराज भी हैं तो मेरा फर्ज है उनकी बातों का बुरा ना मानकर उन्हें मनाऊं? अगर कोई अपनों के लिए कुछ करता है तो उसे हम अलग दर्जा दे देते हैं। सोचिए जब कोई समाज कल्याण के लिए अपना सर्वस्व त्याग दे, माया मोह से ऊपर उठकर सिर्फ भीक्षा पर जिए तो गुणी जन उसका गुणगान तो करेंगे ही।

रामचरितमानस एक प्रबंध काव्य है। प्रबंध काव्य में पात्रों के माध्यम से छोटी-छोटी कहानियां बुनकर एक महागाथा रची जाती है। पंचवटी, यशोधरा, कामायनी, सुदामाचरित आदि भी उच्च कोटि के प्रबंध काव्य हैं। प्रबंध काव्य के पात्रों का अपना-अपना किरदार होता है जिसके मुताबिक उसके विचार, वचन और आचरण होते हैं। पत्नी सीता की खोज में निकले भगवान राम जब समुद्र से रास्ता मांगते हैं तब वह समुद्र रास्ता नहीं देता। फिर जब राम क्रोधित होकर समुद्र को सुखा डालने के लिए धनुष-बाण निकालते हैं तब समुद्र प्रकट होता है और वह गिड़गिड़ाने लगता है।

जहां तक बात ‘ताड़ना’ के अर्थ की है तो ऊपर को उदाहरणों में भला किसमें ताड़ने का अर्थ पीटना है? ताड़ने का अर्थ हर संदर्भ में पीटना बताया जाए तो बताने वाले की मंशा या उसकी समझ पर ही सवाल उठता है। जहां तक बात शूद्र की है तो बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर अपनी पुस्तक ‘शूद्र कौन थे’ में स्पष्ट कहते हैं कि आज के कथित शूद्रों का वैदिक काल के शूद्रों से कोई लेना-देना नहीं था। बाबा साहेब ने ‘शूद्र कौन थे’ की प्रस्तावना में ही यह बात दावे के साथ एक बार नहीं, बार-बार कहते हैं।