आखिर सरकार ने क्यों बंद किया ब्रेन स्ट्रोक का फ्री इंजेक्शन?

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हाल ही में सरकार ने ब्रेन स्ट्रोक का फ्री इंजेक्शन बंद कर दिया है! ब्रेन स्ट्रोक यानी लकवा से मरीजों को बचाने के लिए पहले 4.5 घंटे में आरटीपीए इंजेक्शन लगना जरूरी है। सरकार की ओर से अब तक यह इंजेक्शन संस्थानों को मुफ्त में दिया जाता था। लेकिन अब केजीएमयू लोहिया समेत सभी मेडिकल कॉलेजों में यह इंजेक्शन मिलना बंद हो गया है। ब्रेन स्ट्रोक आने के साढ़े चार घंटे में मरीज अस्पताल आ जाता है तो उसे आरटीपीए इंजेक्शन लगाया जाता है। इस इंजेक्शन से ब्रेन का क्लॉट डिजॉल्व हो जाता है। ऐसे में जो हिस्सा लकवा मारता है वो ठीक होने लगता है। पहले यह इंजेक्शन फ्री में हमें सरकार की ओर से मिलता था लेकिन अब वो बंद हो गया है। ऐसे में हॉस्पिटल रिवॉल्विंग फंड एचआरएफ में यह इंजेक्शन मौजूद है लेकिन उसके लिए मरीजों को पैसे देने पड़ते हैं।

मरीज के भर्ती होने के एक से दो घंटे में ही इंजेक्शन लगाने की जरूरत होती है। ऐसे में वह मरीज जिनका आयुष्मान कार्ड बना होता है, उन्हें भी उस योजना से यह इंजेक्शन नहीं मिल पाता है। क्योंकि आयुष्मान के लिए पहले अप्रूवल भेजना होता है। इसमें 24 घंटे लग जाते हैं। जब तक अप्रूवल आता है तब तक बहुत देर हो जाती है। छह घंटे बीत जाने के बाद यह इंजेक्शन काम नहीं करता। उसके बाद सिर्फ इंटरवेशनल प्रोसीजर कर के ही क्लॉट निकाला जा सकता है। यह भी काफी महंगा इलाज है।

स्ट्रोक को लेकर मरीजों को काफी जागरूक करने की जरूरत है। महज दो फीसदी मरीज संस्थान समय से आते हैं। हर महीने 200 से अधिक मरीज स्ट्रोक से ब्रेन में क्लॉट बनने के आते हैं। इसमें सिर्फ तीन से चार मरीज ही हर महीने ऐसे आते हैं जो साढ़े चार घंटे के अंदर संस्थान आते हैं। बाकी मरीज अक्सर देर से आते हैं। इसमें जो गरीब मरीज आते हैं वो अब पैसे के कारण इंजेक्शन नहीं लगवा पाते हैं। सिर्फ समय से अस्पताल आ जाने से ऐसे मरीज जिनका इंटरवेंशनल प्रोसीजर या सर्जरी करनी पड़ती है उन्हें महज इंजेक्शन से व थेरेपी से ठीक किया जा सकता है।

दरअसल स्ट्रोक में टाइम इसलिए अहम है कि एक बार ब्रेन की जो कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती है वो ठीक नहीं होती। स्ट्रोक आने के बाद हर मिनट दो लाख कोशिकाएं नष्ट होती है। ऐसे में मरीज जितनी देर करते हैं उतनी कोशिकाएं नष्ट हो चुकी होती है। ऐसे में उन कोशिकाओं से शरीर का जो हिस्सा संचालित होता है वो काम करना बंद कर देता है। साढ़े चार घंटे के अंदर आने पर उस हिस्से को बचाना आसान होता है। उसके बाद जितना देर होती है उतना ही मुश्किल हो जाता है। इसलिए स्ट्रोक में जितना इलाज जरूरी है, उतना ही समय भी। बता दें कि ब्रेन स्ट्रोक की तरह छोटा अटैक भी दिमाग की नस ब्लॉक होने से आता है। NHS के अनुसार, इसकी वजह से दिमाग को ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाती है। लेकिन ये डैमेज परमानेंट नहीं होती है और 24 घंटे में खुद ही ठीक हो जाती है। मगर इसके लक्षणों को हल्के में नहीं लेना चाहिए और डॉक्टर को दिखाना चाहिए।

नसों में ब्लड क्लॉट जमने से मिनी स्ट्रोक पड़ता है। जिससे खून पूरी आजादी के साथ घूम नहीं पाता है। लेकिन ये ब्लड क्लॉट छोटे और अस्थाई होते हैं और कुछ ही देर में वापस घुल जाते हैं। लेकिन इस स्थिति को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और डॉक्टर को दिखाना चाहिए। हमारे शरीर में सबसे ज्यादा खून की जरूरत दिमाग को ही पड़ती है। शरीर में मौजूद 75 फीसदी खून का बहाव ब्रेन की ओर होता है और बाकी 25 फीसदी से ही शरीर के बाकी हिस्सों का काम चलता है। सच तो यह है कि खून के साथ एनर्जी की खपत भी दिमाग में ही सबसे ज्यादा होती है। दिल जब खून पंप करता है तो वह शरीर के बाकी हिस्सों के साथ दिमाग तक भी पहुंचता रहता है। उस खून को दिमाग के हर हिस्से तक पहुंचाने का काम खून की नलियां करती हैं। इसमें कई बड़ी और लंबी नलियां होती हैं तो कई एकदम पतली-सी कैपलरीज। स्ट्रोक की समस्या तब आती है जब नलियां फट जाएं, नलियों में खून जम जाए आदि। खून जमने की वजह से अगर खून का थक्का दिमाग के किसी हिस्से पर दबाव डालता है तो पैरेलाइसिस की समस्या पैदा हो जाती है। खून के थक्के से बोलने, चलने आदि में भी परेशानी हो सकती है। किसी को स्ट्रोक आया है तो गोल्डन आवर: 3 से साढ़े 4 घंटे जल्दी इलाज से रिवाइवल की संभावना बढ़ जाती है।

दिमाग की नलियों में जब खून जम जाए तो जो स्ट्रोक होता है उसे इस्केमिक स्ट्रोक कहते हैं। इसे दूर करने के लिए एक वैक्सीन लगाई जाती है। अगर डॉक्टर को लगता है कि सिर्फ इंजेक्शन से बात नहीं बनेगी तो ऑपरेशन करने का फैसला भी लिया जा सकता है। 80 फीसदी ब्रेन स्ट्रोक इस्केमिक स्ट्रोक ही होते हैं।इसे हेमरैजिक स्ट्रोक कहते हैं। इसमें खून की नलियां फट जाती हैं। यह ज्यादा खतरनाक होता है। इसमें कभी-कभी साथ ही खून का थक्का भी बन सकता है।