जवाहरलाल नेहरू का सरनेम उनके वंशज नहीं लगाते! नेहरू की पीढ़ी का कोई व्यक्ति ‘नेहरू’ का सरनेम रखने से डरता क्यों है? क्या शर्मिंदगी है ‘नेहरू’ सरनेम रखने में? 9 फरवरी 2023 को संसद के बजट सत्र के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये बयान सदन में दिया। अब बयान हल्का है कि भारी, ये तो अलग बहस का विषय है लेकिन एक बात तो तय है – भारत में आप कितनी तरक्की करेंगे, ये ज्यादातर बार आपका ‘सरनेम’ तय करता है। हो सकता है प्रोफेसर आपको कॉलेज में पढ़ाने से पहले आपका ‘सरनेम’ पूछे, या तो किसी सरकारी दफ्तर में भी आपका काम होगा या नहीं, ये भी कई बार आपके सरनेम पर ही निर्भर करता है। यहाँ आपको स्पष्ट कर दूं कि सरनेम का आशय आपकी जाति से है। जाति पूछने के लिए हमारे समाज में कई तरीके इजात किए गए हैं। और ना जाने कितने ही ऐसे वाक्य हैं जिनका विन्यास हमारे समाज में जाति-व्यवस्था को इंगित करता है। शेक्सपियर ने जब कहा होगा, ‘व्हाट इस इन दी नेम’ उन्हें शायद सरनेम या कहें भारतीय सरनेम का कॉन्सेप्ट नहीं पता होगा। यूपी बिहार से होते तो विलियम शेक्सपियर भी मिश्रा-तिवारी लगाकर घूम रहे होते। तभी तो उनका साहित्य मानक कहलाता – नहीं? खैर, ये सरनेम विमर्श जारी रखने से पहले बता दूँ, मुझे भी मेरे सरनेम की वजह से जीवन में कई बार फायदे मिले।
इसी तरह मुझे याद है कि मेरे क्लास में एक बच्चे का नाम ही ‘मंडल’ था। मुझे भी लास्ट ईयर में जाकर पता चला कि उसका फर्स्ट नेम क्या है। मेरे बैच के एक लड़के ने कॉलेज के पूरे तीन साल ‘राजपूत’ आइडेंटिटी अपनाकर बिता दिया क्योंकि उसका सरनेम ‘सिंह’ था। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।
हमारे देश में सरनेम से जुड़े इतने पूर्वाग्रह, इतना गौरव और इतनी शर्म लोगों के दिलों में है कि यहां बिना फर्स्ट नेम के तो आपका काम चल सकता है मगर बिना सरनेम के नहीं। अगर आपका सरनेम ‘क्लियर’ नहीं है तो आपसे आपके पिता का नाम पूछा जाएगा – पूरा नाम। वहां भी अगर क्लैरिटी की गुंजाईश नहीं बनी तो फिर बिना किसी संकोच के आपसे ये भी पूछा जा सकता है – कौन जात हो?हाल ही में संघ सरचालक मोहन भागवत के जाति के ऊपर दिए गए बयान को लेकर इतना बवाल पैदा हो गया कि एक बार तो मुझे मुझे संघ की जड़ों की मजबूती पर भी शक होने लगा। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान ने फिर से राजनीति में जाति और धर्म की सहभागिता को पुख्ता कर दिया। अगर शॉर्ट में आज के मुद्दे को निपटाएं तो राहुल गांधी के ‘नेहरू’ सरनेम नहीं इस्तेमाल करने का कारण वही है जो स्मृति मल्होत्रा के स्मृति ईरानी लिखने का, या सुषमा शर्मा के सुषमा स्वराज लिखने का। मतलब कि हमारा समाज पितृसत्तात्मक समाज है और अधिकतर केस में पिता या पति का सरनेम ही परिवार के अन्य लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। सीधा सा तर्क है कि राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी का सरनेम इस्तेमाल करते हैं।
देश के प्रधानमंत्री की संसद में कही गई हर एक बात ऑन रिकॉर्ड होती है, यानी हर वो चीज लिखी जाती है जिसे पॉलिटिकल साइंस के विद्यार्थी अपने रिसर्च में इस्तेमाल करते हैं। अच्छा ही है, अपने कोर्स के दौरान ही उन्हें सरनेम की महत्ता पता चल जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान ने फिर से राजनीति में जाति और धर्म की सहभागिता को पुख्ता कर दिया। अगर शॉर्ट में आज के मुद्दे को निपटाएं तो राहुल गांधी के ‘नेहरू’ सरनेम नहीं इस्तेमाल करने का कारण वही है जो स्मृति मल्होत्रा के स्मृति ईरानी लिखने का, या सुषमा शर्मा के सुषमा स्वराज लिखने का। मतलब कि हमारा समाज पितृसत्तात्मक समाज है और अधिकतर केस में पिता या पति का सरनेम ही परिवार के अन्य लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। सीधा सा तर्क है कि राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी का सरनेम इस्तेमाल करते हैं।कहां तो एक तरफ हमारे देश की राष्ट्रपति का जिक्र करते हुए हर बार बहुत गर्व से उनके ‘आदिवासी’ पृष्ठभूमि की बात होती है और दूसरी तरफ विपक्ष के नेताओं के सरनेम को मजाक का विषय बनाया जाता है। खैर विपक्ष के नेता भी कहां कम हैं? कुर्ता उठा-उठा कर जनेऊ दिखाते हैं और अपनी जाति बताते हैं। बात इतनी ही है हर पार्टी ने जाति और धर्म का इस्तेमाल अपनी-अपनी जरूरत के हिसाब से किया है।