वर्तमान में लोकसभा चुनाव से पहले मिसिंग वोटर की चर्चा हो रही है! जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहे हैं, वैसे-वैसे ध्यान उन बड़ी संख्या में रजिस्टर्ड वोटर्स पर जाता है जो अलग-अलग वजहों से मतदान में हिस्सा नहीं ले पाते। करीब 30 करोड़ रजिस्टर्ड वोटर्स हैं जो अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाते। ऐसा इसलिए क्योंकि वे लंबे समय से दूसरी जगह पर रहते हैं? ये ‘लापता मतदाता’ मुख्य रूप से प्रवासी हैं, जिनका वोटिंग लिस्ट में पता उनके मौजूदा निवास स्थान से मेल नहीं खाता। परिणामस्वरूप, वे मतदान करने में असमर्थ रहते हैं। अपने रजिस्टर्ड एड्रेस में विसंगतियों के कारण वो वोटिंग में शामिल नहीं हो पाते। ‘लापता मतदाता’ के रूप में ये वोटर्स ज्यादातर प्रवासी हैं जो चुनावी प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं। हालांकि, अब चुनाव आयोग ने इन ‘लापता मतदाताओं’ के लिए ही रिमोट इलेक्ट्रॉनिक मशीनों के इस्तेमाल का प्रस्ताव दिया है। इस प्रक्रिया के जरिए कोशिश यही है कि ऐसे मतदाता भी वोटिंग में हिस्सा ले सकें जो अपने रजिस्टर्ड एड्रेस से दूर रहते हैं। इनकी वोटिंग से संभावना जताई जा रही कि आंकड़े में 30 फीसदी तक का इजाफा हो सकता है। नए मतदाताओं के आने से न केवल मतों की संख्या में बढ़ोतरी होगी, बल्कि कई और मुद्दे भी सामने आएंगे। इसके राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी। इन लापता मतदाताओं के आने से चुनावी रणनीतियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। ये वोटर्स, जो मुख्य रूप से युवा, अविवाहित लोग हैं, पारंपरिक ग्रामीण मतदाताओं से अलग होते हैं। उनकी शहरी पृष्ठभूमि और अनुभव देश में राजनीति के भविष्य को नया आकार देंगे।
अगर चुनाव आयोग इन ‘लापता मतदाताओं’ के लिए रिमोट इलेक्ट्रॉनिक मशीनें लगाने की अपनी योजना में सफल हो जाता है, तो इससे मौजूदा वोटिंग पर्सेंट में बड़ी छलांग लग सकती है। ये आंकड़ा 30 फीसदी तक और बढ़ सकता है। ऐसी स्थिति में न केवल अधिक वोट डाले जाएंगे, बल्कि सियासी पार्टियों को नए सिरे से इन वोटर्स को फोकस करते हुए प्लानिंग करनी पड़ेगी। इन नए मतदाताओं के आने से लॉन्ग टर्म चुनाव रणनीतियों में बड़े बदलाव को प्रेरित करेंगे। ये अब शहर में रहकर कमाने वाले लोग हैं। ये वोटर्स ज्यादातर युवा होंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि 60 से ऊपर के लगभग 71 फीसदी लोग गांवों में ही रहते हैं। ये विशेषताएं मिलकर निश्चित रूप से भविष्य की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ेंगी।
उदाहरण के लिए, अगर कोई प्रत्यक्ष फील्ड डेटा का इस्तेमाल करता है, तो दिल्ली और बेंगलुरु में अधिकांश प्रवासी 16 से 30 वर्ष की आयु के हैं। इनमें भी अधिकतर अविवाहित युवा हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ज्यादातर युवा ही अपने गृह राज्य, गृह जिले से बाहर काम के लिए महिलाओं की तुलना में ज्यादा पलायन करते हैं। वे बाहर रहकर भी अकसर अकेले होते हैं क्योंकि उनका आर्थिक भविष्य अनिश्चित है। ये ‘लापता मतदाता’ आम तौर पर पुरुष होते हैं क्योंकि जब महिलाएं पलायन करती हैं तो इसका मुख्य कारण शादी होता है। उनका वैवाहिक घर उन्हें एक स्थिर एड्रेस और मतदाता सूची में एक पक्का रजिस्ट्रेशन देता है। हालांकि महिला की शादी किसी ऐसे शख्स से होती है जिसकी नौकरी अनिश्चित है तो वो भी ‘लापता मतदाता’ के रूप में पुरुष के साथ ही शामिल होंगी।
ऐसा नहीं है कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले सभी लोग वोट देने से चूक जाते हैं। लगभग 70 फीसदी घुमंतू नहीं हैं लेकिन वे जिस घर में रहते हैं उसके मालिक हैं। वो अपने पत्नी और बच्चों के साथ रहते हैं। शायद ही ऐसे लोग ‘लापता मतदाताओं’ में से होंगे। श्रमिकों का एक निश्चित पता हो, इसके लिए उन्हें नौकरी की सुरक्षा की आवश्यकता है और इसके लिए उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। अनौपचारिक श्रम से कॉरपोरेट घरानों को तुरंत फायदा होता है, लेकिन निम्न वर्ग को वोटिंग के विशेषाधिकार और सार्थक स्किल हासिल करने से वंचित रखा जाता है। उद्योग सार्वजनिक रूप से योग्य श्रमिकों की कमी के बारे में शिकायत करता है, लेकिन राष्ट्रीय कौशल विकास निगम को बहुत कम राशि का योगदान देता है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे से पता चलता है, महिलाएं छोटे पैमाने के उद्यम में भी अधिक सक्रिय हो रही हैं। स्टडी से पता चला है कि जब पत्नियां और माएं काम करना शुरू करती हैं, तो राजनीतिक मामलों में उनकी रुचि भी बढ़ती है। पहले से ही, 2019 के चुनावों में, महिलाओं का वोटिंग पर्सेंट पुरुष मतदाताओं से अधिक थी। हालांकि, अगर ‘लापता मतदाताओं’ को चुनाव के लिए वापस लाया जाता है, तो चुनाव में पुरुषों की संख्या बढ़ जाएगी।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब प्रवासी उचित शहरी नौकरी पाने में विफल रहता है, तो इसका कारण प्रयास की कमी नहीं है। अधिकांश शहरी प्रवासी मैट्रिकुलेट और स्नातक हैं, और निश्चित रूप से साक्षर से कहीं अधिक हैं। इसलिए, अगर चुनाव आयोग ‘लापता मतदाता’ को साथ लाने की उम्मीद करता है तो यह वास्तव में एक बड़ा फैसला होगा। ये लोकतांत्रिक मशीनरी के दायरे को व्यापक बना रहा है।
एक बार जब ‘लापता मतदाताओं’ को अपना स्थान मिल जाए, तो यह संभावना नहीं है कि राजनीतिक घोषणापत्र उन मुद्दों की ओर अधिक निर्णायक रूप से झुकेंगे जो सीधे तौर पर पुरुष प्रवासियों से संबंधित हैं। इसका असर गांव छोड़ चुके पुरुषों की जगह भरने वाली महिला कामगारों पर भी पड़ेगा। कोई चाहे जिस ओर देखे, पार्टियों को नए सिरे से सोचना होगा। मिसिंग वोटर्स को आकर्षित करने के लिए स्किल और नौकरी के स्थायित्व पर ध्यान देना पहले से ज्यादा जरूरी होगा। ठाणे, बेंगलुरु, मुंबई, पुणे और सूरत जैसे शहर, जाहिर तौर पर बेहद अहम होंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि ये शहरी केंद्र 25 फीसदी से अधिक नौकरी चाहने वाले प्रवासियों को आकर्षित करते हैं। इसलिए यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि वहां कई ‘लापता मतदाता’ मिलेंगे। यह अतीत को सुधारने का समय है। वर्षों तक ‘मिसिंग वोटर्स’ को भुला दिया गया, लेकिन अब इन्हें और अनदेखा नहीं किया जा सकता।