आज हम आपको बताएंगे कि लगातार सोने का भाव क्यों बढ़ रहा है !सोना भारतीय बाजारों में फिलहाल 7000 रुपया प्रति ग्राम से भी ज्यादा महंगा बिक रहा है। ध्यान रहे, डॉलर और सोने के भाव के बीच उलटा अनुपात काम करता है। दुनिया में इन दोनों को सबसे ज्यादा भरोसेमंद समझा जाता है। वित्तीय संस्थाएं और अमीर संपत्ति सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों शक्लों में जोड़ते हैं। पिछले दो साल में, खासकर इधर के छह महीनों में सोने की कीमतों का तेजी से बढ़ना समझ में आता है। दुनिया में दो लड़ाइयां चल रही हैं, जिनके फैलने का डर बना हुआ है। विश्व अर्थव्यवस्था में जब भी डर बढ़ता है, सोने की खरीद बढ़ जाती है। फिर भी महीने भर के अंदर सोने का 60 हजार रुपया प्रति तोले से सीधा 20% चढ़कर 72 हजार रुपया तोले पर पहुंच जाना समझ से परे है। कोई बड़ी हलचल सतह के नीचे चल रही है, जिस पर ज्यादा खबरें नहीं आ रही हैं। अलबत्ता, अमेरिकी वित्त सचिव जेनेट येलेन का बिना किसी गर्जन-तर्जन के तीन दिन चीन में जाकर बैठना कुछ संकेत जरूर दे रहा है। इधर, एक आंकड़ा चर्चा में है कि ब्रिक्स देशों के सरकारी खजाने में 2008 की मंदी के समय 1,500 टन सोना था, जो अभी 6,600 टन के आसपास पहुंच गया है।
ध्यान रहे, यह आंकड़ा इस साल की शुरुआत में ब्रिक्स में आए पांच नए देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, इजिप्ट और इथियोपिया को जोड़कर नहीं निकाला गया है। पांचों पुराने ब्रिक्स देशों- भारत, चीन, रूस, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का ही यह आंकड़ा है। 238 टन सोना तो चीन ने सरकारी इस्तेमाल के लिए अभी, जनवरी 2024 के सिर्फ एक महीने में खरीदा है। ब्रिक्स के खजाने में सोना बढ़ने की वजह यह बताई जा रही है कि आपसी कारोबार में डॉलर का इस्तेमाल अब वे बिल्कुल ही बंद कर देंगे। यह सही है कि ब्रिक्स की समानांतर मुद्रा खड़ी करके डॉलर को सीधी टक्कर देने की बात अभी सिर्फ रूसी कर रहे हैं, जबकि बाकी ब्रिक्स देश ऐसे किसी अतिरेक से बचना चाहते! कुछ तो इसलिए कि दुनिया की नंबर 1 अर्थव्यवस्था से पंगा लेने में समझदारी नहीं है। कुछ इसलिए भी क्योंकि उनकी राष्ट्रीय संपदा का 10-20% हिस्सा डॉलर या अमेरिकी बॉन्ड की शक्ल में ही है। उनकी किसी हरकत से डॉलर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अचानक कमजोर होता है तो यह अपनी रकम अपने हाथ से जला देने जैसा होगा। लेकिन एक बात तय है कि इस तरह की एक प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, जिसके नतीजे देर-सबेर आने ही आने हैं।
ब्रिक्स के अलावा कई और देश भी अभी गैर-डॉलर कारोबार में जाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशल टेलिकम्युनिकेशन (स्विफ्ट) देशों के आर-पार मुद्रा की आवाजाही की एक अंतरराष्ट्रीय प्रणाली है। इसका नियंत्रण अमेरिका के हाथ में है, लेकिन इसका इस्तेमाल उसे दंड के औजार या दबदबे के हथियार के रूप में नहीं करना चाहिए था।यह काम 2014 में रूस के खिलाफ बराक ओबामा ने किया। फिर डॉनल्ड ट्रंप ने इसे चीन के खिलाफ आजमाने की धमकी दी और अभी जो बाइडन ने रूस को इससे बाहर ही कर दिया। इसका जवाब रूसियों ने SPFS और चीनियों ने CIPS के रूप में खोजा, जिसका इस्तेमाल कई देशों से व्यापार में हो रहा है।
रही बात ब्रिक्स मुद्रा की तो यह उतनी आसान नहीं है। ब्रिक्स की अध्यक्षता अभी रूस के पास है और उसका प्रस्ताव बिटकॉइन आदि जैसी ब्रिक्स की एक डिजिटल मुद्रा लॉन्च करने का है। ध्यान रहे, अभी ब्रिक्स के दस देश मिलाकर दुनिया के 42% तेल का उत्पादन करते हैं। साढ़े तीन अरब, यानी दुनिया की लगभग आधी आबादी उनके पास है, जो तकरीबन 29% ग्लोबल GDP का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ब्रिक्स में भीतरी तनाव भी हैं। चीन के स्वाभाविक प्रभुत्व वाले इस खेमे का अभिन्न अंग बनकर रहना भारत के लिए संभव नहीं है, न ही ईरान से नजदीकी बनाए रखना सऊदी अरब और UAE के लिए बहुत आसान होने वाला है। फिर भी मामला यह है कि ब्रिक्स का, और उसके पीछे दुनिया के कई देशों का एक अलग वित्तीय ढांचा समय की मांग है। एक ग्लोबल मुद्रा के रूप में डॉलर को ‘फिएट मनी’ यानी सिर्फ हुकुम पर चलने वाली मुद्रा कहा जाता है, जिसके पीछे अमेरिकी चमक-दमक की खबरों के अलावा स्थायी मूल्य वाला कोई ठोस आधार नहीं है।
इस बैठक में तय किया गया था कि डॉलर की कीमत सोने के साथ 35 डॉलर प्रति औंस के हिसाब से बंधी रहेगी और सम्मेलन में शामिल 44 देशों की मुद्राएं डॉलर के साथ इस तरह जुड़ी रहेंगी कि उनकी सापेक्ष कीमतों में 1% से ज्यादा उतार-चढ़ाव न आने पाए। वियतनाम युद्ध के चलते यह व्यवस्था 1971 में ध्वस्तप्राय दिखने लगी और 1976 में इसे समाप्त कर दिया गया। उसके बाद से दुनिया की सारी मुद्राएं आगे-पीछे ‘फ्री-फ्लोट’ कर रही हैं। यह व्यवस्था वैश्विक आम सहमति से ही चल सकती थी, जो काफी पहले भंग हो चुकी है। हालत यह है कि अमेरिका और उसके करीबी मुल्कों के प्रतिबंधों से कई देश परेशान हैं। ब्रिक्स के रूप में इन देशों को इस दबदबे से मुक्त होने की गुंजाइश नजर आ रही है। चुनौती यही है कि ब्रिक्स की विनिमय प्रणाली बनाते हुए विश्व अर्थव्यवस्था को कोई बड़ा झटका न लगने पाए।