आखिर क्यों हो रहा है सम्राट मिहिर भोज की जाति पर विवाद?

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सम्राट मिहिर भोज की जाति पर विवाद हो रहा है! एक बार फिर से सम्राट मिहिर भोज को लेकर राजपूत और गुर्जर आमने सामने आ गए हैं। सोमवार को सहारनपुर में सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार गौरव यात्रा को लेकर राजपूत और गुर्जरों के बीच विवाद हो गया। राजपूत जहां सम्राट मिहिर भोज को क्षत्रिय बताते हैं तो वहीं गुर्जर समाज इन्हें गुर्जर बताता रहा है। इसको लेकर काफी विवाद है। ग्रेटर नोएडा के दादरी में सीएम योगी आदित्यनाथ ने 22 सितम्बर 2021 को जब सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा का अनावरण किया था। तब भी प्रतिमा पर गुर्जर सम्राट लिखे होने पर राजपूतों ने आपत्ति जताई थी और जमकर हंगामा किया था। राजपूत और गुर्जर को लेकर दोनों पक्षों में अक्सर विवाद होता रहा है। आइए जानते हैं सम्राट मिहिर भोज राजपूत थे या गुर्जर। गुर्जर समाज के राष्ट्रीय मार्गदर्शक वीरेंद्र विक्रम बताते हैं कि राजपूत जाति तो तेरहवीं शताब्दी के बाद अस्तित्व में आई। उससे पहले ये जाति नहीं थी। वीरेंद्र का कहना है कि गुर्जर भी क्षत्रिय वर्ण के ही थे। चालुक्य, चौहान, चंदेल, तोमार की तरह गुर्जर भी क्षत्रिय थे। क्षत्रिय वर्ण होता है गुर्जर प्रतिहार भी क्षत्रिय थे। गूजरों के नाम पर गुजरात और पाकिस्तान में गुजरांवाला गुर्जरों के नाम पर है।

इतिहासकार प्रोफेसर वीडी महाजन ने अपनी पुस्तक मध्यकालीन भारत में लिखते हैं कि मिहिरभोज प्रतिहार वंश के सबसे शक्तिशाली शासक थे। इन्होंने 836 ईसवीं से लेकर 885 ईसवीं तक शासन किया। इन्होंने कन्नौज पर कब्जा बकरार रखा। कन्नौज पर अधिकार के लिए बंगाल के पाल, उत्तर भारत के प्रतिहार और दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों के बीच लगभग सौ साल तक युद्ध होते रहे हैं। वीडी महाजन लिखते हैं कि प्रतिहार शासक खुद को भगवान राम के भाई लक्ष्मण को अपने वंश का संस्थापक मानते थे। कई विद्वान मानते हैं कि प्रतिहार गुर्जर जाति की संतान हैं। गुर्जरों की तरह ही राजपूतों की उत्पत्ति का इतिहास भी विवादों से घिरा रहा है। भारतीय इतिहास में सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के बाद से लेकर 12वीं शताब्दी तक का समय राजूपत काल कहा गया है, लेकिन राजपूतों की उत्पत्ति पर विद्वानों के कई मत हैं।

एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान पुस्तक के लेखक कर्नल जेम्स टॉड ने किताब में लिखा है कि राजपूत विदेशी सीथियन जाति की संतान थे। भारतीय विद्वान आरजी भंडारकर भी राजपूतों की विदेश उत्पत्ति का समर्थन करते हैं। वहीं, गौरीशंकर हीराचंद्र ओक्षा और सीवी वैद्य जैसे इतिहासकार राजपूतों को विदेशी बताए जाने को खारिज करते हैं और विशुद्ध भारतीय बताते हैं।

पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड में चार राजपूत कुलों का जिक्र है, जिसमें परमार, प्रतिहार, चौहान और चालुक्य का जिक्र मिलता है। इतिहासकार आरजी भंडारकर इन चारों की उत्पत्ति गुर्जर कुल से मानते हैं। केसी श्रीवास्तव लिखते हैं कि राजपूत न पूरी तरह से विदेशी थे और न पूरी तरह से भारतीय थे। इनका मानना है कि ये दोनों ही मत अतिवादी हैं। भारतीय वर्ण व्यवस्था में विदेशी जातियों को स्थान दिया गया। कई विदेशियों ने भारतीय राजवंशों में विवाह किए। इससे उनमें विदेशी खून का मिश्रण मिलता है। वैदिक क्षत्रियों में विदेशी जाति के वीर्यों के मिश्रण से ही नवीन जाति की उत्पत्ति हुई और इसी को राजपूत कहा गया।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफेसर रहे हरबंस मुखिया कहते हैं कि आज के जो गूजर या गुज्जर हैं, उनका संबंध कहीं न कहीं गुर्जर प्रतिहार वंश से ही रहा है। गुर्जर प्रतिहार वंश भी राजपूत वंश ही था। वरिष्ठ पत्रकार संजीव सिंह गुर्जर और गुज्जर के बीच का अंतर समझाते हुए कहते हैं कि गुर्जर शब्द का वर्णन सबसे पहले हर्षचरित्र में मिलता है, जिसको सम्राट हर्षवर्धन के राजकवि बाण ने लिखा था। ये 640 ईसवीं के करीब की बात है। इसमें राजा प्रभाकरवर्धन का सिंधु, मालवा, गांधार और गुर्जर प्रदेशों में विजय अभियान का जिक्र मिलता है। कर्नाटक के ऐहोले में पुलकेशी द्वितीय के समय का एक शिलालेख भी मिलता है। 634 ईसवीं के इस शिलालेख में लिखा है कि गुर्जर प्रदेश में राजा ने विजय अभियान चलाया था। भारत यात्रा पर ह्वेन सांग नाम का यात्री आया था। उसने अपने संस्मरण में लिखा कि छठी और सातवीं शताब्दी में गुर्जर नाम के एक इलाके में चावड़ा वंश के राजपूतों का राज है। वहीं, बड़ौदा के मराठा शासकों को गुर्जर नरेश इसलिए भी कहा जाता था कि पहले उनकी जमीन वही हुआ करती थी।

जैन मुनि उद्योतना सूरी ने भी गुर्जर शब्द का जिक्र किया। कुवलयमाला में उद्योतन सूरी ने गुर्जर, सिंध और मालवा के रहने वाले लोगों के लिए उनके क्षेत्र के नाम से ही विशेषण का प्रयोग किया है। इसके साथ ही उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय और भील आदि के साथ-साथ गुज्जर शब्द का प्रयोग किया है। 1172 ईसवीं के एक शिलालेख में गुर्जर ब्राह्मण सतानंद का जिक्र है, जो कृष्णत्रेय गोत्र के थे। वहीं, संजीव कुमार कहते हैं कि गुर्जर एक क्षेत्र था, जाति नहीं थी।

836 ईसवीं से 885 ईसवीं तक मिहिर भोज ने शासन किया था। इनका साम्राज्य मुल्तान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक और कश्मीर से कर्नाटक तक फैला था। ये वो समय था, जब अरब के इस्लामी कट्टरपंथियों ने साम्राज्य विस्तार शुरू किया था और उनकी नजर सिंधु के पार भारतवर्ष पर थी। मिहिर भोज ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया था।