पीएम मोदी और शाह 2024 को लेकर अब डरे हुए हैं! लोकसभा चुनाव से पहले अपना-अपना कुनबा बढ़ाने की कवायदों, बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए और एकजुट विपक्ष की बैठकों से एक बात तो साफ है- कोई भी पक्ष जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है, लिहाजा गठबंधन साझीदारों का तादाद बढ़ाने में जुटे हैं। मंगलवार को जिस दिन बेंगलुरु में विपक्ष की दो दिवसीय महाबैठक खत्म हुई, उसी दिन दिल्ली में एनडीए के 38 दलों की जुटान हुई। दोनों गठबंधनों में जो सबसे अहम फर्क है वो ये है कि विपक्ष का मकसद सिर्फ एक लक्ष्य तक सीमित है- मोदी और बीजेपी को केंद्र की सत्ता से हटाना। अब तो विपक्ष ने अपने नए गठबंधन को INDIA यानी इंडियन नैशनल डिवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस नाम देकर राष्ट्रवाद का तड़का भी लगा दिया है। करीब एक दशक से केंद्र की सत्ता से बाहर रहे ज्यादातर दल अल्पकालिक सियासी लाभ के लिए साथ आ रही हैं। यही विपक्ष की मजबूती भी है और कमजोरी भी।
ताकत इसलिए कि इसी की बदौलत एक दूसरे की धुरविरोधी पार्टियां भी सीमित उद्देश्य के लिए साथ आ रही हैं। और कमजोरी इसलिए कि इनमें से किसी के पास भी मोदी का लोकप्रिय चेहरा नहीं है। विपक्ष यही उम्मीद कर रहा है कि 2004 की तरह वोटर विचारधारा या चेहरे के बजाय बदलाव के लिए वोट दें।
बीजेपी के लिए गठबंधन का कुनबा बढ़ाना सिर्फ सत्ता बचाने तक सीमित नहीं है। मोदी निश्चित तौर पर पार्टी और गठबंधन दोनों का चेहरा हैं, उनके नेतृत्व में पार्टी और गठबंधन दोनों साथ मिलकर काम कर सकते हैं क्योंकि दोनों को पता है कि मोदी ही उनकी ताकत हैं। उनके बिना उनका भविष्य अनिश्चित होगा। बीजेपी के लिए 2024 में सत्ता बरकरार रखना काफी अहम है। ये सिर्फ इसलिए अहम नहीं है कि पिछले एक दशक में आर्थिक और राजनीतिक बढ़त मिली है, उसे और मजबूती मिलेगी, बल्कि उससे भी ज्यादा इसलिए अहम है कि 2004 की तरह अप्रत्याशित ढंग से सत्ता से बाहर होने पर बीजेपी का हिंदुत्व अजेंडा भी बेपटरी हो जाएगा।
बीजेपी का कोर बेस इस अजेंडे पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए अधीर है लेकिन सत्ता को बरकरार रखने की चुनौती की वजह से पार्टी ऐसी आवाजों को अभी नियंत्रित कर रही है। संक्षेप में कहें तो सत्ता को बरकरार रखना न सिर्फ बीजेपी की राजनीतिक जरूरत है बल्कि भविष्य में खुद को टूट से बचाने का हथियार भी है। बीजेपी को ये भी चिंता सता रही होगी कि ऐसे वक्त में जब आर्थिक मोर्चे पर देश तेजी से मजबूत हो रहा है, 2024 में हार से उसे विपक्ष मजबूत अर्थव्यवस्था के क्रेडिट से महरूम कर देगा। कड़ी मेहनत से उसकी उगाई फसल को कोई और काट लेगा। ठीक वैसे ही जैसे 2004 से 14 के बीच आर्थिक मोर्चे पर मजबूती के लिए बीजेपी को कोई श्रेय नहीं मिला।
हालांकि, दोनों ही गठबंधन अल्पकालिक हैं। कोई ये भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि मई 2024 के बाद भी इन गठबंधनों का स्वरूप ऐसा ही होगा। एक तरफ एनडीए में 30 से ज्यादा छोटी-बड़ी पार्टियां हैं तो दूसरी तरफ यूपीए 2.0 यानी ‘INDIA’ (इंडियन नैशनल डिवेलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस) मे भी बीस से ज्यादा छोटे बड़े दल हैं। मई 2024 के बाद खासकर तब जब नतीजे घोषित हो चुके होंगे, उस वक्त भी ये दल इन गठबंधनों के साथ बने रहेंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता।
बीजेपी को गए गुजरे हालात में भी सवा दो सौ से ढाई सौ सीटें मिल सकती हैं। बीजेपी की न्यूनतम सीटों का लॉजिक बहुत सिंपल है। 2019 में पार्टी ने हिंदी बेल्ट की 218 सीटों में से 196 सीटों पर कब्जा किया था। बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसे कुछ सीटों का नुकसान हो सकता है क्योंकि इन राज्यों में पिछली बार वह सीटों के लिहाज से चरमोत्कर्ष पर थी। लेकिन इसके बावजूद वह इनमें से 150 सीटों को बरकरार रख सकती है।
इस तरह देखें तो बीजेपी 272 के जादुई आंकड़े के पास जा सकती है, या तो अकेले अपने दम पर या फिर छोटे-छोटे सहयोगियों के साथ यही वजह है कि वह छोटी-छोटी पार्टियों को साधकर एनडीए का कुनबा बढ़ा रही है क्योंकि टीएमसी या डीएमके जैसी बड़ी क्षेत्रीय पहचान वाली पार्टियों के मुकाबले इन छोटी पार्टियों को संभालना ज्यादा आसान है। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर बीजेपी बीजू जनता दल और वाईएसआर से रणनीतिक समर्थन की उम्मीद कर ही सकती है। अगर बीजेपी अकेले 272 का आंकड़ा छू लेती है तो उसे एनडीए सहयोगियों को संभालने में कोई मेहनत ही नहीं करनी पड़ेगी और अगर वह सहयोगियों के साथ जादूई आंकड़े तक पहुंचती है तभी उसे उन्हें संभालने में कोई खास दिक्कत नहीं आने वाली क्योंकि ये सभी छोटी-छोटी पार्टियां हैं।