क्या वर्तमान में छोटे-छोटे बच्चे सीख रहे हैं गुंडागर्दी?

0
128

वर्तमान में छोटे-छोटे बच्चे गुंडागर्दी सीख रहे हैं!पिछले दिसंबर में, कुछ छात्रों के एक समूह ने अपने सहपाठी को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। 11 जनवरी को, स्कूल के बाहर झगड़े के दौरान एक 12 साल के बच्चे की मौत हो गई। दो हफ्ते पहले, तीन छात्रों ने अपने सीनियर को तंग करने से बचने के लिए उसे चाकू मारकर मौत के घाट उतार दिया। अभी दो दिन पहले ही, एक 12 साल के लड़के ने अपने सीनियर को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। ऐसे कुछ मामले सामने आए हैं, जहां स्कूलों में बदमाशी की वजह ने हिंसा का रूप ले लिया, और मामला बहुत गंभीर हो गया है। तो, सवाल ये है कि आखिर ऐसी घटनाओं में इतनी तेजी से बढ़ोतरी क्यों हो रही है?  बच्चों हर तरह अधकचरी जानकारी और उसके देखने के साधन आसानी से उपलब्ध हैं। उनकी सोच जल्दी ही एकतरफा बन जा रही है। इससे दूसरों से अलग राय रखने वालों को सहन करने की शक्ति कम हो रही है। फोन आसानी से मिलने की वजह से बच्चे बहुत कम उम्र से ही इन चीजों को देखना-समझना शुरू कर देते हैं। मनोचिकित्सक निमिष देसाई ने कहा कि हाल के वर्षों में, यह स्पष्ट हो गया है कि सोशल मीडिया ऐसे किशोरों के मन को प्रभावित करता है जो थोड़े सेंसेटिव हैं। हालांकि, असल समस्या ये है कि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के लिए उचित सहायता प्रणाली की कमी है।

बिना किसी मार्गदर्शन के बच्चों को इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी देख रहे हैं। ये उनके सामाजिक व्यवहार और भावनात्मक स्वास्थ्य को खराब कर रहा है। खासकर भावनात्मक समझ और धमकाने बुलीइंग जैसे मुद्दे एक मुश्किल बनते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब बच्चे ऐसे कंटेंट देखते हैं तो उन पर इसका स्थायी प्रभाव पड़ता है। दुर्भाग्य से, कोई भी बच्चों को इन खतरों के बारे में नहीं बताता, जिससे बच्चे अनजाने या जानबूझकर इसकी नकल करते हैं। उन्हें लगता है, ‘अगर मेरा भाई-बहन या कोई हीरो इस तरह का व्यवहार कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं कर सकता?

हम जल्दबाजी में बच्चों को बड़ा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे उनका विकास असंतुलित हो रहा है। ये एक जटिल समस्या है, जो माता-पिता के पास बच्चों के व्यवहार को समझने के लिए कम समय मिलने के कारण और गंभीर हो जाती है। यह समझना जरूरी है कि इन चुनौतियों का सामना सिर्फ किसी एक मामले या स्कूल के स्तर पर नहीं किया जा सकता। इसमें पूरे समाज को शामिल होना होगा। हमें बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए सामुदायिक जिम्मेदारी को स्वीकार करने की जरूरत है।

जिसे उसके माता-पिता उसके शिक्षकों द्वारा धमकाने की शिकायत के बाद उसके पास ले आए थे। उन्होंने कहा कि अगर कोई उसके प्रति संवेदनशील नहीं है, तो उसे भी किसी के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत क्यों है? एक दसवीं कक्षा के छात्र ने अपने काउंसलर को बताया कि कैसे उसे मिलने वाली गालियां उसके पिता जी की उस स्कूल का खर्चा उठाने की क्षमता पर सीधी चोट करती थीं, जहां दूसरे बच्चे पढ़ते थे। उसने दूसरों को नीचा दिखाने को अपना गुस्सा निकालने का तरीका बना लिया। एक अन्य मामले में, एक 10 वर्षीय छात्र को पहले भी कई स्कूलों से निकाला जा चुका था। काउंसलर के अनुसार, उस बच्चे में इतना गुस्सा भरा हुआ था कि वह शिक्षकों के साथ भी अभद्र व्यवहार करने लगता था।प्राची ने बताया एक मामले में, धमकाने वाला बच्चा ये भी नहीं जानता था कि उसने दूसरे बच्चों को कितनी जोर से मारा है। निमिष ने यह भी कहा कि इन मुद्दों की जटिलता किसी एक मंच या तकनीक से कहीं ज्यादा गहरी है। बल्कि, ये व्यापक सामाजिक समस्याओं के लक्षण हैं। ऐसी घटनाएं स्कूलों और परिवारों जैसे संस्थानों के बीच एक-दूसरे पर आरोप लगाने की प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाती हैं। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के, एक साथ मिलकर काम करने की बात कही। दिल्ली के निजी स्कूलों में काउंसलर डॉक्टर अनुप्रेक्षा जैन ने कहा कि काउंसलरों और शिक्षकों को साथ मिलकर काम करना चाहिए, बच्चों के व्यवहार को हमें देखना चाहिए ताकि धमकाने के शुरुआती संकेतों का पता लगाया जा सके। दुर्भाग्य से, यह सहयोग अक्सर नहीं होता है।

विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूलों को सामाजिक और भावनात्मक सीखने पर जोर देना चाहिए, हालांकि अभी सिर्फ कुछ ही स्कूल इसे आजमा रहे हैं। धमकाने के खिलाफ अभियान चलाने के साथ-साथ माता-पिता के साथ व्यक्तिगत बातचीत भी मददगार हो सकती है। प्राची श्रीवास्तव ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता इस बात पर सतर्क रहें कि उनकी आदतें उनके बच्चों को कैसे प्रभावित करती हैं।