हमने पढ़ा है, हमने सुना है और हम यह बहुत बेहतर तरीके से जानते हैं कि “जल ही जीवन है”। पर क्या होगा यही जल, जीवन को नष्ट करने वाला प्रलय बन जाए तो ? या फिर हर तरफ जल की कमी के कारण सूखा पड़ जाए तो ? जाहिर सी बात है मानव जाति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा या कहिए खत्म हो जाएगा । मगर आम जनजीवन खुद अपनी छोटी-मोटी समस्याओं में इतनी व्यस्त है, कि उन्हें जलवायु से जुड़े किसी भी समस्या का ध्यान ही नहीं है। जलवायु परिवर्तन का नतीजा कई रूपों में हमारे सामने हैं कहीं बहुत अधिक बारिश के कारण बाढ़ आ रहे हैं , तो कहीं बारिश ना होने के कारण सूखा पड़ रहा है आज यही हाल भारत के राज्य बिहार का है । जहां किसी साल कहीं सूखा और कहीं बाढ़ आना एक “न्यू नॉर्मल” सा प्रतीत होने लगा है। बिहार की 80 फ़ीसदी आबादी और इसकी अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर करती है। लोग रोजी रोटी के लिए पशुपालन और खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर हैं। बिहार का ही एक हिस्सा ऐसा है जहां किसान सूखे के कारण एक बूंद बरसात को तरस रहे हैं ताकि उनकी फसल को सूखे की मार ना झेलनी पड़े और वह बच जाए। वही एक हिस्सा ऐसा भी है जहां बाढ़ के कारण आधी से ज्यादा फसल नष्ट हो चुकी है।
बिहार में बाढ़ के कारण क्या है स्थिति
बिहार में बाढ़ का सबसे बड़ा कारण माने जाने वाली नदी कोशी है यहां हर साल बरसात में पानी बढ़ता है । जून से सितंबर तक के मौसम में मानसून में कोशी के जल की मात्रा में अधिकता होने के कारण यहां बाढ़ की संभावनाएं और बढ़ जाती है। बिहार की बाढ़ एक राष्ट्र आपदा के रूप में गिनी जाती है। बिहार का नेपाल की सीमा से सटा होना भी बाढ़ का एक अन्य कारण माना जाता है। दरअसल बिहार के उत्तर में नेपाल का पहाड़ी क्षेत्र है जहां वर्षा होने पर पानी नारायणी, बागमती और कोसी जैसी नदियों में आ जाता है । जो कि बिहार से होकर गुजरती है । एक रिपोर्ट के मुताबिक 2008,2011 ,2013 2015,2017 ,2019 ऐसे वर्ष है जहां नेपाल और भारत दोनों ही देशों में भयंकर रूपी बाढ़ दर्ज की गई थी। देश में जब भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की बात होती है तो उसमें बिहार का नाम प्रथम स्थान पर होता है। करीबन 76 फ़ीसदी आबादी हर साल बाढ़ के विकराल रूप को देखती है । वही देश के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में 16.5 फ़ीसदी बिहार में आता है। उत्तर बिहार को बाढ़ से मुक्ति दिलाने के लिए सन 1897 में भारत और नेपाल की सरकारों ने नदी पर बांध बनाने की बात की थी । 1991 में दोनों देशों के बीच इस पर समझौते भी हुए जिसमें कहा गया था कि सिर्फ कोसी क्षेत्र में इस बांध से राहत मिलेगी । वही उत्तर बिहार में कोसी के अलावा और भी ऐसी नदियां हैं जहां अक्सर बाढ़ आती रहती हैं उनमें गंडक, बागमती, कमला ,बलान और महानंदा नदी शामिल है।
कोसी बाढ़ से हुई तबाही मचाने में सबसे अहम भूमिका निभाती है गंगा कछाड़ के निचले इलाकों में बाढ़ का पानी अक्सर निकली भूमि को जलमग्न कर देता है। जिससे मिट्टी का कटाव होना एक दूसरा कारण बन जाता है। यह मिट्टी खेतों की उपज को कमजोर कर देती है। गौरतलब हो कि मिट्टी के कटाव और बाढ़ के कारण खेतों की मिट्टी में बजरी कंकड़ और बालू जमकर मिट्टी की गुणवत्ता को बेहद खराब कर देते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार अगर बाढ़ से पूरे देश की बात करें तो लगभग 67 लाख हेक्टेयर क्षेत्र हर साल बाढ़ की मार झेलती है । वहीं 3500000 हेक्टेयर फसलें नष्ट हो जाते हैं। यही नहीं बाढ़ एक प्राकृतिक घटना है जिसे हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं । और जिसे हमें बचपन में पढ़ाया गया है ।पुराने समय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बरसाती पानी को कछार में बनाए जलाशयों में रोकने की परिपाटी थी । जिससे बाढ़ की स्थिति पहले और भी भयंकर हुआ करती थी बता दें कि ना सिर्फ जनजीवन बल्कि पशु को भी बाढ़ का काफी भयंकर सामना करना पड़ता है। हर साल लगभग 16000 लोग और लगभग 94000 पशु मरते हैं। साथ ही बाढ़ के कारण हर साल डेंगू ,मलेरिया ,टाइफाइड जैसी बीमारियां उत्पन्न होती हैं जिससे लोगों की मृत्यु अधिक होती है ।
वही बाढ़ के कारण कई राष्ट्रीय उद्यानों में पानी भर जाता है। बाढ़ आने का एक मुख्य कारण अचानक बादल फटना भी है । और यह बाढ़ ग्लेशियर से बर्फ का लगातार पिघलना ,भूमंडलीय उष्मीय करण के कारण होता है। जब पिघलता हुआ अतिरिक्त पानी नदियों का स्तर बढ़ाता है तो बाढ़ की स्थिति पैदा होती है जिसकी वजह से नदियों का जल शहरों और गांवों में घुस जाता है सागर में अचानक कंपन के कारण सुनामी जैसी स्थिति पैदा हो जाती है जिससे विशाल लहरों का निर्माण होता है । समंदर का पानी शहर और गांव को प्रभावित कर देता है। पृथ्वी अब ग्लोबल वार्मिंग की मार झेल रही है और वातावरण पहले से ही परिवर्तित हो चुका है जिस कारण कहीं सूखा तो कहीं जरूरत से अधिक वर्षा बाढ़ की स्थिति पैदा करती है।
बिहार में सूखा बदलते पर्यावरण का एक दूसरा पहलू है ।
कभी किसान अपनी किस्मत पर इसलिए रोते हैं कि बाढ़ के कारण उनकी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। कभी वह इसलिए भी रोते हैं किस सुखाड़ के कारण उनकी फसल बर्बाद हो जाती है। दोनों ही कारणों में किसानों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है। यह एकमात्र जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि किसान आषाढ़ के मौसम में भी बारिश की एक बूंद के लिए तरस रहे होते हैं। सावन चला जाता है मगर मानसून की बेरुखी बरकरार रहती है। जिस कारण कर्ज लेकर किसानों के द्वारा की गई रोपनी खासकर इस मौसम में धान की रोपनी चौपट हो चुकी होती है । जिस कारण किसानों को रोने के अलावा और कोई चारा नहीं बच रहा होता ।
धान की रोपनी का समय बीत चुका होता है । सूखे से निपटने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप 2013 की एक रिपोर्ट की माने तो अब तक 74 फ़ीसदी ही रोपनी हो पाई होती है,और 38 में से 20 जिले सूखे होते हैं।सूखे के कारण मध्य बिहार सबसे ज्यादा प्रभावित माना जाता है। सूखे का यह नजारा पहली बार नहीं है । इससे पहले भी वर्ष 2008 व 2012 में कम बारिश के कारण खेती पर इसका असर पड़ा था। और वर्ष 2009 और 2010 में भी सूखे के हालात पैदा हुए थे। प्रदेश में पानी की कमी थी बाढ़ व बेमौसम बारिश के पानी की उपलब्धता को सहेज कर ना रखना जल प्रबंधन और सरकार की एक कमजोरी मानी जा रही है। क्योंकि छोटे और मध्यवर्गीय किसानों के पास खुद की पंपिंग सेट नहीं होती, उन्हें पैसे देकर पटवन का सहारा लेना पड़ता है ।
जिससे उनका कर्ज दुगना हो जाता है । ऐसे में मौसम की मार उन्हें और अधिक कर्ज में डाल देती है । बारिश ना होने के कारण कई नदियां सूख चुकी होती है ,कुये मिट गए होते हैं। जिसका सबसे बुरा प्रभाव खेती पर पड़ता है। दक्षिण बिहार में सबसे अधिक सूखा हर साल किसानों को झेलना पड़ता है । और इसका एक मात्र कारण बिगड़ता और गहराता जल संकट और जलवायु परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 10 में से 8 जिले सूखा प्रभावित होते हैं।जो दक्षिण बिहार में है।जिनमें कैमूर ,रोहतास ,औरंगाबाद बक्सर, भोजपुर ,जहानाबाद पटना और गया शामिल है । खासकर खरीफ के मौसम में दक्षिण बिहार में भारी सूखा होता है । जिससे अहम फसल धान की बुनाई पर इसका असर पड़ता है । सालाना वर्षा में लगातार गिरावट के कारण बिहार का विश्लेषण दिखाता है । कि कुल वर्षा में दिन-प्रतिदिन कमी आती जा रही है । सन 1983 से 2016 में सिर्फ मई का महीना छोड़ दें तो वर्षा में भारी गिरावट दर्ज की गई है । जो कि वर्ष 2006 से 2017 के बीच वर्षा 912 मिलीमीटर ही थी। जबकि पहले या 1200 मिलीमीटर थी । आप इस से अंदाजा लगा सकते हैं ,की सुख क्यों पड़ रहा है । वही मानक वर्षापात सूचकांक यह बताता है कि किसी एक स्थान पर बारिश के पानी की मात्रा उसके लंबे अंतराल के औसत की तुलना में कितनी बदलती है । सूखे की अवस्था में यह मात्रा जब 1.0 तक पहुंचती है , उस सूचकांक में बढ़ोतरी बारिश में कटौती दिखाती है। यह हर साल की बात है कि मानसून की बेरुखी के कारण पीने का पानी का संकट गहराता है ।
जलाशय तथा तालाब सूखे रह जाते हैं । भू जल का उपयोग बढ़ता है। जिससे उसके जलस्तर में बहुत तेजी से गिरावट आती है। हजारों सालों से देश इन घटनाओं से रूबरू होता रहा है, मगर अभी भी इसके समाधान का उपाय नहीं ढूंढा गया । खरीफ की फसलों पर मुख्यता दो खतरे हैं । समय पर ना हुए बरसात और सूखे अंतराल में उसे हानि पहुंचाते हैं । वही खरीफ फसल को अगर सही समय पर सही पानी नहीं दिया जाता है तो वह फसल नष्ट होने में समय नहीं लगाता । सूखे का सही तरीके से सामना करने के लिए फसल को सही समय पर सही मात्रा में पानी चाहिए होती है। बता दें कि 2010 में भी बिहार को सूखे की परेशानी का सामना करना पड़ा था। दरअसल भीषण सुखाड़ की स्थिति में नीतीश सरकार ने 38 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। साथ ही सरकार द्वारा सूखाग्रस्त घोषित होने के बाद की सहायता राशि भी किसानों तक नहीं पहुंच सकी थी । यह सरकार की नाकामी को साफ दिखाती है। बिहार को एक कृषि प्रधान राज्य कहा जाना गलत नहीं होगा। मगर यह स्थिति दिन प्रतिदिन और दयनीय होती जा रही है । क्योंकि ना ही किसानों को सूखे का मुआवजा मिल रहा है ,और ना ही उनके कर्ज माफ किए जा रहे हैं। सूखे के कारण कई किसान आत्महत्या करने को विवश हैं। दरसल उन्होंने कर्ज लिया होता है जिसे उन्हें चुका पाना मुश्किल होता है क्योंकि उनकी फसल बर्बाद हो चुकी होती है। इन सब का एकमात्र कारण सिर्फ और सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही है।
बिहार में बाढ़ और सूखे की स्थिति विचार करने योग्य है।
जलवायु परिवर्तन एक ऐसा शब्द जो हम बरसों से सुनते आ रहे हैं । जलवायु परिवर्तन के कारण ही बाढ़, सूखा, आगजनी, चक्रवात ग्लेशियर का पिघलना, भूकंप आदि जैसे प्राकृतिक आपदाओं का सामना हमें करना पड़ता है । पेड़ों की निरंतर कटाई, प्लास्टिक का उपयोग ,जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, हानिकारक गैस का उपयोग और मशीनरी का उपयोग का दिन प्रतिदिन बढ़ना इसका एक मुख्य कारण माना जा रहा है । जो कि एक विचार करने योग्य बात है । अगर यह स्थिति जल्द ही ना सुधरी तो आने वाले समय में मानव जाति को इसका भारी कर्ज देना पड़ सकता है । यह स्थिति खासकर किसानों के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकती है । क्योंकि उनकी जिंदगी का 90% भाग खेती पर गुजरता है । अगर इसी तरह से बाढ़ और सूखे की स्थिति बनी रही तो उनके लिए तथा देश के अन्य जीव-जंतुओं के लिए भी इस पृथ्वी पर निवास करना मुश्किल साबित हो सकता है। इसीलिए आवश्यक किया है कि अभी से हमें सचेत हो जाना चाहिए। वहीं सरकार को भी सूखे से निपटने तथा बाढ़ से बचने के लिए परियोजनाएं लानी चाहिए ।
जो किसानों को तथा उनके फसलों को इन प्राकृतिक आपदाओं से बचा सके। बिहार अपने भविष्य को सुधारने और जल प्रबंधन में विकास लाने के लिए काम करे साथ ही इन व्यवस्थाओं को समझने और सवारने के लिए बांध बनाये, गहराते जल संकट के बावजूद पारंपरिक जल व्यवस्थाओं की अनदेखी ना की जाए । सरकार को इसका भी ध्यान रखना चाहिए। पुराने पारंपरिक जल व्यवस्था के तरीकों को फिर से समझ कर उन्हें सहेजना जलवायु परिवर्तन के डरावने प्रभावों को सहने में काम आएगा। खेती के लिए भी और जल व्यवस्था के लिए भी इसका उपयोग किया जा सकता है । इन जल स्रोतों की उपयोगिता विविध है । सिंचाई और गृहस्ती की जरूरतों को भी यह पूरा कर सकती है। साथ ही पशुओं के लिए भी सूखे के दौरान उनसे पानी मिल सकता है। वही बाढ़ की स्थिति में गाद को हटाने काफी लाभकारी साबित हो सकता है सरकार को इस पर भी ध्यान देना चाहिए । क्योंकि गाद के कारण ही अक्सर बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होती है। बिहार का अब बाढ़ और सूखे की स्थिति से निकलना एक महत्वपूर्ण चुनौती बन चुकी है । जिससे बिहार को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है । अब यह समस्या कैसे हल होती है यह देखने लायक बात होगी ।