Sunday, December 22, 2024
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क्या अमेरिका की अर्थव्यवस्था भारत पर डाल सकती हैं असर?

अमेरिका की अर्थव्यवस्था भारत पर असर डाल सकती है! अमेरिकी अर्थव्‍यवस्‍था हिचकोले मार रही है। लगातार दो तिमाहियों में उसकी ग्रोथ घटी है। तकनीकी तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था में मंदी दस्‍तक दे चुकी है। इसका दुनियाभर की अर्थव्‍यवस्‍थाओं पर असर पड़ सकता है। भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। कारण है कि वह दुनिया से करीब से जुड़ा है। दिक्‍कत एक और है। अमेरिका और चीन के बीच कड़वाहट दोबारा बढ़ी है। इस बार केंद्र में ताइवान है। कुछ साल पहले अमेरिका और चीन के बीच छिड़ी ट्रेड वॉर ने दुनियाभर के बाजारों को हिलाकर रख दिया था। बीते कुछ सालों में चीन की आक्रामकता अमेरिका को भी अखर रही है। अमेरिकी संसद की अध्‍यक्ष नैंसी पेलोसी ने बुधवार को ताइवान का दौरा किया था। इसके बाद से दोनों देशों में नए सिरे से तनातनी बढ़ी है। बहरहाल, अमेरिकी अर्थव्‍यवस्‍था का दिक्‍कतों में फंसना भारत के लिए अच्‍छी खबर नहीं है। आइए, इस बात को समझने की कोशिश करते हैं।

सबसे बड़ा आयातक है अमेरिका

भारतीय वस्‍तुओं के लिए अमेरिका सबसे बड़ा मार्केट है। वह टॉप ट्रेडिंग पार्टनरों में से एक है। अमेरिका एकमात्र पार्टनर है जो भारत को निर्यात से ज्‍यादा आयात करता है। यही कारण है कि अमेरिका की मंदी भारत पर असर डालेगी। डिमांड घटने से ऐसा होगा। अगर भारत में मांग घटती है तो हमें आयात के मुकाबले ज्‍यादा निर्यात करने वालों पर असर पड़ेगा।2007-2008 में भारतीय निर्यात में अमेरिका की हिस्‍सेदारी 13 फीसदी थी। यह 2020-21 में बढ़कर 21 फीसदी हो गई थी। 2008 की ग्‍लोबल मंदी अमेरिका से शुरू हुई थी। इसका मवाद दूसरे देशों तक पहुंचा था। भारत का अमेरिका को एक्‍सपोर्ट तब 1 अरब डॉलर तक घट गया था। उस वक्‍त अमेरिका ने भारत के निर्यात का 11-13 फीसदी वहन कर लिया था। यह अब 18 फीसदी है। ऐसे में अमेरिकी मंदी इस बार भारतीय निर्यात को ज्‍यादा प्रभावित कर सकती है।

अमेरिका से जुड़े हर घटनाक्रम भारत के लिए अहमियत रखता है। इसे घरेलू शेयर बाजार के पैटर्न से समझ सकते हैं। तनातनी की खबरें आते ही गुरुवार को बंबई शेयर बाजार का सेंसेक्‍स एक समय 1,100 अंक से ज्‍यादा लुढ़क गया था। बाजार अनिश्चितता से चिढ़ता है। अमेरिकी मुद्रा के मुकाबले रुपया पहले ही हाफ रहा है। इसके चलते निवेशक भारत से पैसा निकाल सकते हैं। क्रूड की कीमतों पर भी दबाव बढ़ सकता है। व्‍यापार के अलावा प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश भी ग्‍लोबलाइजेशन के पैरामीटर हैं। 2008 में जब मंदी आई थी तब एफडीआई की रफ्तार घट गई थी। एफपीआई ने भारतीय बाजारों से पैसा निकालना शुरू कर दिया था। इसके चलते घरेलू बाजारों में गिरावट दर्ज की गई थी। मार्केट गिरने का उद्योगों से सीधा संबंध है। यह बाजार से पैसा उठाने की उनकी ताकत को घटा देता है।अमेरिका कई देशों का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर हैं। इसके बावजूद उसका व्‍यापार के मुकाबले जीडीपी रेशियो 23.4 फीसदी है। इसका कारण उसके बड़े घरेलू बाजार का होना है। तेल सहित ज्‍यादातर अमेरिकी वस्‍तुएं देश के भीतर खप जाती हैं। यह और बात है कि पश्चिमी यूरोप को ग्‍लोबल मंदी से खतरा है।

भारतीय वस्‍तुओं के लिए अमेरिका सबसे बड़ा मार्केट है। वह टॉप ट्रेडिंग पार्टनरों में से एक है। अमेरिका एकमात्र पार्टनर है जो भारत को निर्यात से ज्‍यादा आयात करता है। यही कारण है कि अमेरिका की मंदी भारत पर असर डालेगी। डिमांड घटने से ऐसा होगा। अगर भारत में मांग घटती है तो हमें आयात के मुकाबले ज्‍यादा निर्यात करने वालों पर असर पड़ेगा।2007-2008 में भारतीय निर्यात में अमेरिका की हिस्‍सेदारी 13 फीसदी थी। यह 2020-21 में बढ़कर 21 फीसदी हो गई थी। 2008 की ग्‍लोबल मंदी अमेरिका से शुरू हुई थी। इसका मवाद दूसरे देशों तक पहुंचा था। भारत का अमेरिका को एक्‍सपोर्ट तब 1 अरब डॉलर तक घट गया था। उस वक्‍त अमेरिका ने भारत के निर्यात का 11-13 फीसदी वहन कर लिया था। यह अब 18 फीसदी है। ऐसे में अमेरिकी मंदी इस बार भारतीय निर्यात को ज्‍यादा प्रभावित कर सकती है।

यह बाजार से पैसा उठाने की उनकी ताकत को घटा देता है।अमेरिका कई देशों का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर हैं। इसके बावजूद उसका व्‍यापार के मुकाबले जीडीपी रेशियो 23.4 फीसदी है। इसका कारण उसके बड़े घरेलू बाजार का होना है। तेल सहित ज्‍यादातर अमेरिकी वस्‍तुएं देश के भीतर खप जाती हैं। यह और बात है कि पश्चिमी यूरोप को ग्‍लोबल मंदी से खतरा है।

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