क्या कांग्रेस के मेनिफेस्टो से मिल सकता है कांग्रेस को वोट?

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Bengaluru: Congress President Mallikarjun Kharge with Karnataka Congress President DK Shivakumar and senior party leader Siddaramaiah releases the party's manifesto for the upcoming Karnataka Assembly elections, in Bengaluru, Tuesday, May 2, 2023. (PTI Photo/Shailendra Bhojak)(PTI05_02_2023_000033B)

यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या कांग्रेस के मेनिफेस्टो से कांग्रेस को वोट मिल सकता है या नहीं! लोकसभा चुनाव में महज कुछ दिनों का वक्त बचा है। बीजेपी जहां 400 पार का बड़ा लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रही है, वहीं कांग्रेस ‘सामाजिक न्याय और गारंटी’ वाला घोषणा पत्र लेकर मैदान में उतर रही है। बीजेपी के धुव्रीकरण के तरीके का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस सबको खुश करने वाला घोषणापत्र लेकर आई है। कांग्रेस का घोषणा पत्र एक हताश जुआरी के आखिरी पासे जैसा लग रहा है। कई लोगों का मानना है कि कांग्रेस आम चुनावों की प्रक्रिया से अलग है और पार्टी के अंदरखानी तरीकों से गुजर रही है। कुछ राज्यों में खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस निराशा को छिपाने में भी असमर्थ हैं। अब पार्टी जनता को लुभाने वाले वादे कर रही है। कांग्रेस ने एक कल्याणकारी घोषणापत्र जारी किया है, जिससे गंभीर रूप से ध्रुवीकृत राजनीति का मुकाबला किया जा सके। लेकिन इसके बाद भी वो खुद को ये समझाने में सफल नहीं हुए कि 24 में जीत की रणनीति के लिए ये एक पर्याप्त पिच है। हाल ही में बीजेपी के एक सीनियर नेता ने बेंगलुरु में निजी तौर पर कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता से मुलाकात की। इस दौरान उन्होंने बताया कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 65 से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएगी। दोनों नेताओं के बीच हुई बहस इस बारे में नहीं थी कि इतनी कम संख्या क्यों बताई जा रही है, बल्कि यह आकलन काफी सही था या ये आंकड़े कुछ हद तक बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए थे। मुख्य सवाल ये नहीं है कि आंकड़े कितने सटीक हैं, बल्कि ये है कि कई स्तरों पर और विचारों में ये धारणा बन गई है कि कांग्रेस बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकती। पार्टी नेता सार्वजनिक रूप से दर्जनों कारण बता सकते हैं जो शायद सच भी हों कि कैसे कांग्रेस को दबाया गया है। लेकिन निजी रूप से वो खुद ही अनजाने में ये कहानी फैला रहे हैं कि उनकी पार्टी का कमजोर प्रदर्शन ही चलता रहेगा।

बहुत ज्यादा कल्याणकारी वादे वाला घोषणापत्र हार का संकेत देता है। ऐसे वादे करना पार्टी के काल्पनिक अस्तित्व को स्वीकारना है। उदाहरण के लिए, नौकरियों के बारे में वो केंद्र सरकार में 30 लाख खाली पदों को भरने की बात करते हैं। उनका जोर नौकरी देने पर है, नौकरी पैदा करने पर नहीं। वित्त मंत्रालय के 2023 के आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार में कुल 39.77 लाख स्वीकृत पद हैं और इनमें से 9.64 लाख लगभग खाली पड़े हैं। ये आंकड़े कांट्रेक्ट पर दी जाने वाली नौकरियों को शामिल नहीं करते।

अब, सरकार के आकार को कम करना एक विचार था जिसे कांग्रेस ने 1991 में हमारे दिमाग और अर्थव्यवस्था में इंजेक्ट किया था। क्या ये घोषणापत्र अपनी ही क्रांति पर पछतावा कर रहा है? अगर इस घोषणापत्र के दूसरे पहलुओं को देखें, खासकर जाति के मुद्दे पर उनके नए जोर के साथ, तो ये सवाल पूछना लाजमी हो जाता है कि क्या ये सब लोगों के जीवन में सरकार को सबसे बड़ा नियंत्रक बनाने के बारे में है? अगर कांग्रेस अर्थव्यवस्था के जरिए ये करना चाहती है, तो बीजेपी सांस्कृतिक विचारों के जरिए करने की कोशिश कर रही है। यानी दोनों ही अलग अलग तरीकों से नियंत्रण चाहते हैं।

इसके अलावा राहुल गांधी ने धन का सर्वे और पुनर्वितरण का भी विचार दिया है। ये आइडिया में रॉबिन हुड रोमांस है। सोचने वाली बात ये है कि आर्थिक जानकार पी चिंदबरम, जो खुद कांग्रेस घोषणापत्र कमिटी के अध्यक्ष हैं, क्या वो इस आइडिया से सहमत हैं? यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जब कोई संकट आता है, तो हम चरम सीमाओं में सोचते हैं। हम जिन समाधानों की तलाश करेंगे, वे भी चरम विचारधाराओं में होंगे। अपने घोषणापत्र के माध्यम से, कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है कि वह संकट में है क्योंकि वह चरम सीमाओं में सोच रही है।

दक्षिण में कांग्रेस की कुछ राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही गारंटी योजनाओं पर एक श्वेत पत्र यह स्थापित करेगा कि वे खजाने को खाली कर रहे हैं, जिसके नतीजे बेहद भयावह और हैरान करने वाले हैं। पिछले कुछ दशकों में दुनिया अपनी बौद्धिक क्षमताओं के मामले में इतनी प्रगति कर चुकी है कि वह अच्छा-बुरा समझ सके। लेकिन कांग्रेस खुद पर ही इस बात को लागू नहीं कर पाई है। कांग्रेस का घोषणापत्र राजनीतिक दृष्टिकोण से इतना सही है कि एक छोटी सा हस्तक्षेप करके असहमत होने का मतलब है कि वो एक मतदाताओं के एक वर्ग को दबाने की कोशिश कर रहा है। सब कुछ सील है, सब कुछ कवर है, सभी का ध्यान रखा गया है, सिवाय इसके कि कोई भी यह नहीं मानता कि उनके जीवन में अचानक इतना आसान सुधार दिखाई देगा।

वहीं कांग्रेस के मामले में, जिस तरह से अमेठी और रायबरेली सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवारों का ऐलान नहीं किया है। इसे गांधी परिवार को युद्ध से भागने के नेरेटिव में बदल दिया गया है। जब हाल ही में नेहरू-गांधी परिवार के दामाद रॉबर्ट वाड्रा ने अमेठी से चुनाव लड़ने में दिलचस्पी जताई, तो ये एक एंटी-क्लाइमेक्स साबित हुआ। तब तक मतदाताओं के मन में बहुत सारे संदेह, जिन्हें बीजेपी के प्रचार के रूप में देखा जाता था, अपने आप ही साफ हो गए। कांग्रेस के नेता मोर्चे से नेतृत्व नहीं कर रहे हैं, यह तब स्पष्ट होता है जब कोई पार्टी के सर्वोच्च निर्णय लेने वाले निकाय को देखता है। कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) में 77 सदस्य हैं। अगर कोई गिनता है कि कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण समय पर उनमें से कितने चुनाव लड़ रहे हैं, तो संख्या सात या आठ के आसपास ही रहती है।

इन वंशावली टिकटों के संबंध में किया जा रहा दूसरा तर्क यह है कि नेताओं पर अपने परिवार की जीत सुनिश्चित करने का दायित्व होगा। इसका मतलब यह है कि अगर टिकट परिवार से अलग कैंडिडेट को मिलती, तो संभावना थी कि स्थापित खिलाड़ियों ने दिलचस्पी नहीं ली होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस कुछ लोगों की जागीर बन गई है। जहां अन्य लोग अपने लिए कोई भविष्य नहीं देखते हैं और इसलिए बीजेपी या अन्य क्षेत्रीय दलों की तलाश करते हैं। अगर यह नहीं बदलता है, तो कांग्रेस चाहे जो भी आर्थिक यूटोपिया बनाए, जमीनी स्तर पर कुछ खास नहीं कर पाएगी।