क्या नीतीश कुमार फिर से पलट सकते हैं?

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सियासी आंकड़ों की मानें तो नीतीश कुमार फिर से पलट सकते हैं! केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले ने अपने पटना दौरे के वक्त कहा कि नीतीश कुमार एनडीए के अच्छे साथी रहे हैं। उन्हें एनडीए में लौट जाना चाहिए। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं कि नीतीश कुमार ने भाजपा से अपने संपर्कों का रास्ता बना कर रखा है। प्रतिद्वंद्वी नेताओं की बातों को छोड़ भी दें तो आम आदमी भी यही कहता है कि नीतीश भरोसे के आदमी नहीं। वे कब पलटी मार दें, कहना मुश्किल है। लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव ने तो नीतीश कुमार का नाम ही एक वक्त पलटू राम रख दिया था। बाद में नीतीश के लिए प्रयुक्त यह विशेषण सबकी जुबान पर चढ़ गया। आश्चर्य तो तब हुआ कि जब बीजेपी के छोटे-बड़े सभी नेता यह सार्वजनिक तौर पर कहते हैं कि नीतीश के लिए अब एनडीए का दरवाजा बंद हो चुका है, वैसे में आठवले का नीतीश को आमंत्रण आश्चर्य तो पैदा करता ही है। नीतीश कुमार 2003 में रेल मंत्री थे। नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम थे। नीतीश 13 दिसंबर 2003 को गुजरात के कच्छ में एक रेल प्रोजेक्ट का उद्घाटन करने पहुंचे थे। उस वक्त उन्होंने कहा था- ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि बहुत दिनों तक नरेंद्र भाई गुजरात के दायरे में सिमट कर नहीं रहेंगे। देश को इनकी सेवाएं जरूर मिलेंगी.’ उसके ठीक 10 साल बाद बीजेपी ने अपने गोवा अधिवेशन में जब नरेंद्र मोदी को एनडीए का पीएम फेस बनाया तो बिहार में बीजेपी के साथ सरकार चला रहे नीतीश कुमार बिदक गए थे। एनडीए से झटके में नाता तोड़ लिया था। हालांकि 2017 में उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और वे फिर बीजेपी के साथ आ गए। मोदी के साथ मंच भी कई मौकों पर साझा किया।

मोदी के नाम से नीतीश के बिदकने का सिलसिला तो 2010 में ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने बाढ़ राहत के नाम पर नरेंद्री मोदी द्वारा भेजे पांच करोड़ रुपये के चेक को उन्होंने वापस कर दिया था। इतना ही नहीं, मोदी जब बिहार आए तो उनके लिए आयोजित भोज भी ऐन वक्त पर नीतीश ने रद्द कर दिया था। अब तो नीतीश कुमार पीएम मोदी के कट्टर विरोधी बन गए हैं। मोदी का राजपाट छीनने के लिए वे विपक्षी दलों की गोलबंदी के अगुआ बने हुए हैं। उनकी जुबान से मोदी का नाम भी अब शायद ही निकलता है। मोदी के लिए नीतीश सिर्फ ‘ये लोग-वे लोग’ या ‘इन्होंने-उन्होंने’ का प्रयोग करते हैं। मोदी सरकार के हर काम नीतीश की नजर में खराब हैं।

नीतीश कुमार का राजनीतिक जीवन जनता पार्टी, जनता दल, समता पार्टी से होते हुए जनता दल यूनाइटेड तक पहुंचा है। नीतीश की पार्टी जेडीयू के अभी 43 विधायक, 16 सांसद और राज्यसभा में दो सदस्यों की ताकत है। नीतीश को एनडीए में शामिल होने का निमंत्रण देने वाले रामदास आठवले की पार्टी से कहीं अधिक ताकतवर नीतीश कुमार अब भी हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव में जिस तरह एनडीए के साथ रहने के कारण लोकसभा में नीतीश की पार्टी जेडीयू ने 16 सीटों पर जीत हासिल की थी, वैसी स्थिति 2020 के विधानसभा चुनाव में नहीं रही। विधानसभा में उनके विधायकों की संख्या घट कर पूर्व के मुकाबले तकरीबन आधी रह गई। उससे यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि उन्हें महागठबंधन के साथ रहने का फायदा होगा या नुकसान। विधानसभा में तीसरे नंबर की पार्टी का नेता होने के नाते उन्हें अभी ही सहयोगी दलों से काफी जलालत झेलनी पड़ रही है। इस बीच गृह मंत्री और भाजपा के चुनावी चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की नीतीश के लिए एनडीए में नो एंट्री की बात कहने के बाद अब आठवले अगर उन्हें एनडीए के साथ आने का निमंत्रण देते हैं तो इसके पीछे संदेह की गंध तो महसूस ही की जाएगी न!

साल 2005 से ही नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ एनडीए में रहना पसंद किया। भाजपा के सहयोग से 2013 तक वे बिहार के सीएम रहे। साल 2015 में महागठबंधन का हिस्सा बने और 2017 में फिर एनडीए में लौट आए। साल 2022 में वे दोबारा महागठबंधन में शामिल हुए। उनके इसी खेमा बदल को देख कर लोग उन्हें पलटी मार राजनीतिज्ञ कहने लगे हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के नेता स्व. रामविलास पासवान को लोगों ने राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहना शुरू किया था। इसलिए पासवान ने जिसका साथ पकड़ा, उसकी सरकार बनती रही और वे केंद्र में मंत्री बनते रहे। महागठबंधन में नीतीश कुमार के खिलाफ जिस तरह घटक दल आरजेडी के नेता बयानबाजी करते रहे हैं, उससे लोगों को भी यह लगता है कि नीतीश अनुकूल अवसर की तलाश में हैं।

हालांकि घोषित तौर पर नीतीश कुमार ने अपने आगे के राजनीतिक जीवन का खुलासा कर दिया है। उन्होंने पीएम पद की दावेदारी से अपने को अलग तो कर ही लिया है, 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव आरजेडी नेता और लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़े जाने ऐलान भी कर दिया है।