समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन बीजेपी के लिए मुसीबत बन सकता है! समाजवादी पार्टी से हुए गठबंधन के अनुसार समाजवादी पार्टी ने यूपी में 17 लोकसभा सीटें कांग्रेस को दी हैं, वहीं कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में एक सीट खजुराहो सपा को दी है। यही नहीं उत्तराखंड की पांच सीटों पर समाजवादी पार्टी कांग्रेस को समर्थन देगी। यूपी में जो सीटें कांग्रेस को मिली हैं, उनकी बात करें तो अमेठी, रायबरेली के साथ कानपुर फतेहपुर सीकरी, बासगांव, सहारनपुर, प्रयागराज, महराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, झांसी, बुलंदशहर, गाजियाबाद, मथुरा, सीतापुर, बाराबंकी, देवरिया हैं।
रायबरेली और अमेठी में तो वैसे भी समाजवादी पार्टी प्रत्याशी नहीं देती है। इस गठबंधन से वहां कांग्रेस की स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। हां, ये जरूरी है कि पिछली बार राहुल गांधी को स्मृति ईरानी ने हराया था और इस बार अगर राहुल गांधी मैदान में होते हैं तो मुकाबला जरूर कड़ा हो सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा। गांधी परिवार की अनुपस्थिति में कांग्रेस की दावेदारी अमेठी में कमजोर हो जाती है। यही हाल रायबरेली में भी है। सोनिया गांधी राज्यसभा पहुंच चुकी हैं और अब रायबरेली में कौन उम्मीदवार होगा इसे लेकर चर्चाएं हैं। यहां भी गांधी परिवार के अलावा किसी प्रत्याशी को अगर कांग्रेस उतारती है तो कांग्रेस की ताकत कम होगी। कानपुर लोकसभा सीट पर हमेशा से भाजपा और कांग्रेस के बीच मुख्य मुकाबला होता रहा। पिछले 2019 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही देखने को मिला। उस चुनाव भाजपा से सत्यदेव पचौरी, कांग्रेस से श्रीप्रकाश जायसवाल ओर सपा से राम कुमार मैदान में थे। सत्यदेव पचौरी को 4 लाख 68 हजार 937 वोट मिले थे। वहीं कांग्रेस को 3 लाख 13 हजार ओर सपा को 48 हजार 275 वोट मिले थे। श्रीप्रकाश जायसवाल के इस बार चुनाव लड़ने को लेकर संशय है। वह 1989 से राजनीति में हैं। पहले कानपुर के मेयर बने, फिर 1999 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता। इसके बाद 2004 और 2009 में भी जीत कर संसद पहुंचे। केंद्र में वह गृह राज्य मंत्री और कोयला मंत्री भी रहे, लेकिन 2013 और 2019 के चुनाव में उन्हें हार मिली। फिलहाल उम्र और तबियत के कारण उनके चुनाव लड़ने पर संशय है। लेकिन इसके साथ ही बड़ा सवाल खड़ा होता है कि कांग्रेस यहां से किसे मैदान में उतारती है। वैसे इस सीट पर सपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस को लाभ तो हुआ है लेकिन भाजपा के पिछले चुनावों में प्रदर्शन बता रहे हैं कि गठबंधन को मेहनत बहुत करनी पड़ेगी।
सहारनपुर लोकसभा सीट पर 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन में बसपा के हाजी फजलुर्रहमान ने जीत दर्ज की थी। भाजपा ने यहां कड़ा मुकाबला पेश किया था लेकिन करीब 22 हजार वोट से राघव लखनपाल को हार मिली थी। तीसरे नंबर पर कांग्रेस से इमरान मसूद रहे थे। इस बार यह सीट गठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में आई है। इमरान मसूद 2014 में इस सीट पर दूसरे नंबर पर रहे थे। इस बार भी हाल ही में इमरान मसूद की घर वापसी हुई है। वह यहां से टिकट के बड़े दावेदार हैं। लेकिन इस सीट पर समाजवादी पार्टी का ज्यादा बड़ा जनाधार नहीं है। और मुकाबले में बसपा की दावेदारी को भी कमजोर नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम बाहुल्य इस सीट पर दलित वोट बैंक अहम भूमिका निभाता है। भाजपा काफी समय से इस वोट बैंक को टार्गेट कर रही है। कुल मिलाकर मुकाबला अगर त्रिकोणीय हुआ तो भाजपा के लिए राहें आसान होंगीं।
मुरादाबाद में पिछले चुनाव पर नजर डालें तो सपा-बसपा गठबंधन के साथ यहां सपा से एसटी हसन जीत दर्ज करने में सफल रहे थे। चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो एसटी हसन को 6 लाख 49 हजार से ज्यादा वोट मिले थे, वहीं भाजपा के कुंवर सर्वेश कुमार साढ़े 5 लाख से कुछ ज्यादा वोट ही हासिल कर सके थे। कांग्रेस ने यहां से इमरान प्रतापगढ़ी को मैदान में उतारा था जो करीब 60 हजार वोट ही जुटा सके थे। इससे पहले 2014 में सर्वेश कुमार ने भाजपा की झोली में ये सीट डाली थी। उस चुनाव में एसटी हसन दूसरे ओर बसपा प्रत्याशी तीसरे स्थान पर रहे थे।
आजादी के बाद से कांग्रेस ने इस सीट पर 5 बार, भाजपा ने एक बार ओर सपा ने 4 बार जीत दर्ज की है। लेकिन 2014 के बाद से कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरा है और बसपा यहां बड़ा फैक्टर है। इस सीट पर 45 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं, वहीं 10 प्रतिशत के करीब दलित वोटर हैं। इसके बाद सैनी मतदाता हैं। 7 प्रतिशत क्षत्रिय, 3 प्रतिशत करीब ब्राह्मण हैं। अब सपा और कांग्रेस में गठजोड़ होने से अखिलेश की स्थिति यहां थोड़ी मजबूत जरूर हुई है। लेकिन मुकाबला में बसपा बड़ा फैक्टर है। जानकारों का मानना है कि अगर मुकाबल त्रिकोणीय हुआ तो भाजपा की राहें आसान होंगी, नहीं तो मुकाबला कड़ा होने जा रहा है।
बात अगर फतेहपुर सीकरी लोकसभा क्षेत्र की करें तो 2009 में ये सीट बनी। पहली बार यहां से बसपा की सीमा उपाध्याय जीतीं लेकिन 2014 में भाजपा के चौधरी बाबूलाल, फिर 2019 में राजकुमार चाहर ने यहां जीत हासिल की।
हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा बसपा गठबंधन जरूर हुआ लेकिन बसपा के श्रीभगवान शर्मा 1 लाख 68 हजार वोट हासिल करने के बावजूद तीसरे स्थान पर रहे। राजबब्बर को उनसे करीब 4 हजार वोट ज्यादा मिले और वह दूसरे नंबर पर आए। सपा का यहां ज्यादा जनाधार नहीं है। माना जा रहा है कि सपा कांग्रेस गठबंधन से कांग्रेस को मजबूती जरूर मिलेगी लेकिन बसपा यहां भी बड़ा फैक्टर है और मुकाबला त्रिकोणीय होने वाला है, जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा।लखनऊ में सपा कांग्रेस मिलकर भाजपा को चुनौती जरूर देंगे। लेकिन जीत हासिल करने के लिए काफी जनाधार की जरूर पड़ेगी। कारण ये है कि राजनाथ सिंह पिछली बार करीब साढ़े तीन लाख वोटों से जीते थे। पूनम सिन्हा और प्रमोद कृष्ण दोनों मिलकर करीब उतने वोट हासिल कर सके थे।