क्या जातिगत जनगणना से वापिस आ सकती है सरकार?

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जातिगत जनगणना से अब सरकार फिर से वापिस आ सकती है! हाल ही में बिहार में सीएम नीतीश कुमार की तरफ से करवाई गई जाति जनगणना को राजनीति के मैदान में लगाया गया ‘छक्का’ के रूप में पेश किया, जिसने भाजपा को ‘उहापोह की स्थिति’ में डाल दिया। हालांकि, पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ इसे कोई तवज्जो नहीं दे रहे जबकि उत्तर प्रदेश भी आर्थिक विशेषताओं और जातीय संरचना की दृष्टि से बिहार जैसा ही है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक के बीच भी वैसा ही अंतर देखा जाता है। गहलोत ने जहां सत्ता में वापसी पर जाति जनगणना की करवाने का वादा किया तो पटनायक ने इसका जिक्र तक नहीं किया। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रत्येक जाति समूह को उसकी जनसंख्या के अनुपात में अधिकार के लिए ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा दिया। उन्होंने पूरे देश में जाति जनगणना का समर्थन किया। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विचार को खारिज करते हुए कहा है कि देश की प्रगति गरीबों के उत्थान में है, ना कि जाति जनगणना में।

अभी पांच राज्यों की विधानसभाओं और अगले वर्ष लोकसभा के चुनावों में मतदाताओं को लुभाने में जुटे नेताओं के बीच इस विभाजन को किस नजिरए से परखा जाए? मेरे मुताबिक, जो नेता मानते हैं कि आर्थिक हिस्सेदारी बढ़ाकर और प्रभावी शासन देकर वोट हासिल किए जा सकते हैं, वे जाति जनगणना को खारिज करते हैं जबकि जो लोग मानते हैं कि कुछ जातियों को बड़ी जबकि कुछ को छोटी हिस्सेदारी देकर मौजूदा आर्थिक असमानता की दरार को पाटने की जगह गेम बदलने से वोट मिलेगा, उनका जातीय जनगणना से चुनावी चमत्कार में भरोसा है।

दिलचस्प बात यह है कि नीतीश कुमार ने अपनी पिछली राजनीति को विकास और शासन पर आधारित किया था (सभी लड़कियों के लिए उनकी साइकिल योजना याद रखें जो माध्यमिक विद्यालय में पढ़ती हैं?)। उन्होंने बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधारी थी और 2005 में पद संभालने के बाद कई वर्षों तक प्रदेश को दोहरे अंकों की आर्थिक वृद्धि दिलाने में सफलता पाई थी, लेकिन अब उन्होंने ही जातीय जनगणना कराई। यह कई मामलों में उनकी विफलता का प्रतीक है जिसने उन्हें जाति-आधारित राजनीति की ओर रुख करने के लिए प्रेरित किया।

वोट जीतने की रणनीति के रूप में विकास और संसाधनों के बंटवारे के बीच यह प्रतिस्पर्धा भारत के लिए नई बात नहीं है। 1967 में चुनावों में कांग्रेस की पहली बड़ी हार के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने पिता प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अपनाई गई विकास केंद्रित रणनीति से धीरे-धीरे हटकर पुनर्वितरण पर आधारित रणनीति की ओर बढ़ी थीं। 1972 में उन्होंने अपना विजन इन शब्दों में स्पष्ट किया, ‘विकास और विकास की रणनीति ग्रोथमैनशिप के कारण पूरा फोकस कुल राष्ट्रीय उत्पाद को सर्वोच्च स्तर पर ले जाने पर होता है। यह खतरनाक हो सकता है क्योंकि इसके कारण लगभग हमेशा ही सामाजिक और राजनीतिक अशांति की स्थितियां पैदा होती हैं।’

जातिवाद को भारत से मिटाने की इच्छा रखने वाली इंदिरा गांधी ने संसाधनों के उचित बंटवारे की रणनीति का आधार जाति को नहीं बनाया। उस समय भारत के इनकम लेवल के मद्देनजर बड़े पैमाने पर सामाजिक हितों पर खर्च करने के लिए वित्तीय संसाधनों की भी कमी थी। नतीजतन, उन्होंने अपने पुनर्वितरण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से आर्थिक नीतियों और सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार पर भरोसा किया। विकास पर उनके विनाशकारी प्रभाव के बावजूद गांधी की पुनर्वितरण नीतियों ने उनकी लोकप्रियता बढ़ाई। 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की खबर पर लोग दिल्ली की सड़कों पर खुशी के मारे झूमने लगे थे।

इंदिरा ने इसके बाद बीमा, कोयला और तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया, बड़े बिजनस घरानों को ‘कोर’ इंडस्ट्रीज की एक चुनिंदा सूची में सीमित कर दिया और आम उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन लघु उद्यमों के लिए रिजर्व करने जैसे कदम उठाए। इससे बड़े उद्योगों और अमीर वर्ग की विरोधी जबकि गरीब समर्थक उनकी छवि को मजबूती मिली। संसाधनों के उचित बंटवारे की राग से इंदिरा गांधी को चुनावी सफलता हासिल होने एक मुख्य कारण यह था कि उस समय तक मतदाताओं ने एक पीढ़ी में ही जिंदगी बदल देने वाली तीव्र वृद्धि का अनुभव नहीं किया था। नेहरू ने गलत मॉडल का चुनाव किया था जिस कारण भारत तेज गति से आर्थिक प्रगति नहीं कर सका था, जिससे मतदाता संसाधनों के उचित वितरण के नारों पर लट्टू हो गए थे। हालांकि, 1991 के सुधारों के बाद तेज वृद्धि हुई, जिससे लोगों के जीवन तेजी से सुधरा और उनका मतदान व्यवहार भी बदल गया।

चूंकि भारतीय मतदाता बदली हुई वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाना सीख चुके हैं, इसलिए राजनेता और विशेष रूप से मीडिया के टिप्पणीकार चुनाव परिणामों के प्रमुख निर्धारक के रूप में जाति की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करते रहते हैं। हाल ही में एक सम्मानित टिप्पणीकार ने यह कहते हुए मुझे निराश किया कि जाति जनगणना एक ऐसा विचार है जिसका समय आ गया है। सच में? क्या कांग्रेस ने 2014 के चुनाव से पहले यह कार्ड नहीं खेला था और केवल 44 सीटों पर सिमट गई थी? फिर अंग्रेजों ने इसका उपयोग भारतीयों को विभाजित करने के लिए किया था।