भारत जोड़ो यात्रा से सोनिया गांधी को पावर नहीं मिल पाई! राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पूरी होते ही राजनीतिक पंडित मौजूदा हालात की तुलना पांच महीने पहले वाली कांग्रेस से करने लगे हैं। नफा-नुकसान के तराजू पर यात्रा को तौला जा रहा है। क्या हासिल हुआ? 2024 में क्या फायदा होगा? राहुल गांधी को क्या मिला? ऐसे कई सवालों के जवाब तलाशे जा रहे हैं। पॉलिटिकल रिसर्चर असीम अली ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में इसी विषय पर लेख लिखा है। अली लिखते हैं कि अगर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का कोई बड़ा लक्ष्य होगा तो यही कि वह ग्रैंड ओल्ड पार्टी को 2024 के चुनावों में चुनौती देने वाली ताकत के रूप में पेश कर सके। क्या कांग्रेस पार्टी पांच महीने की तुलना में अपने इस लक्ष्य के थोड़ी नजदीक पहुंची है? इसका सटीक जवाब देना मुश्किल है, ऐसे में अली ने इस विश्लेषण को चार प्रमुख हिस्सों में बांटा है- लीडरशिप, नैरटिव, संगठन और गठबंधन। उनका कहना है कि कांग्रेस को सभी चारों फ्रंट पर अपनी कमजोरियों को दुरुस्त करने की जरूरत है।
सबसे पहले लीडरशिप की बात करते हैं। इस फ्रंट पर यात्रा को सीमित सफलता मिली है। हालांकि राहुल गांधी की छवि बेहतर होती दिखी है, लोगों में एक लोकप्रिय अपील का एहसास हुआ है। लेकिन यह पता नहीं है कि इस लोकप्रियता को चुनावों में अतिरिक्त वोट मिल पाएंगे या नहीं। हां, इतना जरूर है राहुल की यात्रा ने ‘चांदी के चम्मच वाली’ या कहिए ‘नॉन सीरियस फैमिली लीडर’ वाली छवि को काफी हद तक तोड़ा है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि राहुल गांधी के इर्द-गिर्द कितनी नकारात्मक चीजें फैलाई गई हैं। पांच महीने से वह लगातार इस पर प्रहार करते नजर आए।
हालांकि दावे के साथ यह भी नहीं कह सकते कि निगेटिव इमेज में कमी आने से सकारात्मक छवि बनती है।
हाल में पसंदीदा विपक्षी नेता को लेकर सीवोटर का पोल आया और राहुल गांधी दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के पीछे रहे।फिर भी, वह पार्टी के भीतर एक मजबूत नेता के तौर पर उभरे हैं और गांधी परिवार को कांग्रेस की पहचान के केंद्र में रखने में सफल रहे हैं।
G23 प्रयोग अब कांग्रेस के राजनीतिक परिदृश्य में पुरानी बात हो चुकी है। इसे एक सफलता ही कहा जाएगा जिसका असर क्षेत्रीय क्षत्रपों और गांधी परिवार की तिकड़ी द्वारा नियंत्रित हाई कमान के बीच भविष्य की ‘डील’ में देखने को मिल सकता है। मल्लिकार्जुन खरगे अब खुद को CEO की तरह प्रबंधन भूमिका में स्थापित कर चुके हैं।
अब राजनीतिक नैरटिव की बात करते हैं। पिछले आठ साल में भाजपा के राष्ट्रवाद के खिलाफ दमदार नैरटिव तैयार करने में कांग्रेस संघर्ष करते ही दिखी है। आंशिक रूप से देखें तो इसकी वजह इतिहास में छिपी है। कांग्रेस का राष्ट्रवाद विकास और एकात्मक राष्ट्रवाद का मिश्रण रहा है जिस पर अब भाजपा चल रही है। दूसरी तरफ देखें तो सेक्युलरिज्म और बहुलवाद का आह्वान भाजपा के राष्ट्रवाद के आगे हमेशा कमजोर ही दिखा है।ऐसे में यात्रा ने अवसर उपलब्ध कराया कि कांग्रेस अपने राजनीतिक नैरटिव को प्रभावी ढंग से सामने रख सके। भारत प्रेम को केवल शब्दों से नहीं, तस्वीरों के जरिए पूरे देश ने देखा। इस फॉर्मेट से राहुल गांधी को फायदा हुआ है और वह विवादास्पद डिबेट से बिल्कुल दूर रहे। जैसे, हिंदू धर्म vs हिंदुत्व यात्रा के चलते भारी मात्रा में पीआर सामग्री भी तैयार हुई है, जिसे सोशल मीडिया चैनलों पर इस्तेमाल किया गया है।
ओपिनियन पोल इसी तरफ इशारा कर रहे हैं कि भाजपा का हिंदुत्व प्रभावी विचारधारा के रूप में लीड ले रहा है। कांग्रेस की तरफ से सामाजिक-आर्थिक असमानता पर हमला मीडिया में काफी चर्चा में रहा लेकिन इसे और इसके ठोस समाधान पर आगे भी बात करने की जरूरत है क्योंकि 2024 के लिए यह राजनीतिक नैरटिव तैयार कर सकता है। इन दोनों मोर्चों पर कांग्रेस को सीमित सफलता मिलती दिखी है। अब उन दो पॉइंट्स की बात करते हैं जिसमें कांग्रेस पिछड़ती दिखी है- संगठन और गठबंधन।
अभी यह साफ नहीं है कि उदयपुर चिंतिन शिविर में जिस सुधार की बात कही गई थी, वह कहां तक पहुंचा। युवाओं को तवज्जो देने के साथ ही ज्यादा लोकतांत्रिक संगठन की बात कही गई थी। वैसे, भारत जोड़ो यात्रा संगठनात्मक सुधार की कोई एक्सरसाइज नहीं थी लेकिन पार्टी के भीतर स्ट्रक्चरल रिफॉर्म्स में देरी से बड़ा नुकसान होगा। कांग्रेस के भीतर कुछ संगठनों की गतिविधियों और बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं के आगे आने को एक सकारात्मक संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए। यात्रा का सबसे कमजोर पहलू गठबंधन से जुड़ा है। जो पार्टियां पहले पार्टनर नहीं थीं, ऐसे तीन दलों के नेता ही यात्रा में शामिल हुए- फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और कमल हासन की MNM।
2024 के लिए कांग्रेस का रोडमैप 2004 की तरह है- पार्टी को विपक्ष के केंद्र में खुद में लाना है और सत्ता की कमजोर कड़ी को सामने रखते हुए अपना दृष्टिकोण रखना होगा। कर्नाटक और हिंदी बेल्ट में होने वाले चुनावों में लगभग सभी विपक्षी दल जोर आजमाइश करेंगे। ऐसे में विधानसभा चुनावों के बाद सियासी समीकरण बदल सकते हैं। भारत जोड़ो यात्रा सफल रही या फेल हुई, यह कुछ हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे महज पहले कदम के रूप में देखा जाता है या जीत के लिए संकल्प।