सोनिया गांधी नरसिम्हा राव से नफरत करती हुई नजर आ रही है! 21 मई 1991 का वह मनहूस दिन था जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम यानी लिट्टे के सुसाइड अटैक में हत्या हो गई। राजीव तब 10वीं लोकसभा चुनाव के लिए तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में आयोजित कांग्रेस पार्टी की रैली में शामिल होने गए थे। तीन चरणों में घोषित मतदान में पहले चरण की वोटिंग हो चुकी थी। लेकिन राजीव की अचानक हत्या से बाकी दो चरणों के मतदान की तारीखें आगे बढ़ा दी गईं। राजीव की हत्या के अगले दिन 22 मई 1991 को दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की आपातकालीन बैठक हुई। मध्य प्रदेश के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी से पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने की अपील की, लेकिन सोनिया ने सिरे से नकार दिया। तब उनसे कहा गया कि अगर वो खुद अध्यक्ष नहीं बनेंगी तो इस पद के लिए योग्य व्यक्ति का चयन तो उन्हीं को करना होगा। सोनिया गांधी के सामने यक्ष प्रश्न यह था कि आखिर कौन ऐसा नेता है जो कांग्रेस पार्टी को संभाले और चुनाव में जीत मिले तो सरकार भी चलाए। दोनों ही मोर्चों पर सक्षम नेता की तलाश होने लगी।
इसी उधेड़बुन में सोनिया गांधी ने नटवर सिंह से कोई नाम सुझाने को कहा। नटवर सिंह ने उन्हें इसके लिए इंदिरा गांधी के चीफ सेक्रेटरी रहे पीएन हक्सर से संपर्क करने का सुझाव दिया। सोनिया ने हक्सर से कांग्रेस अध्यक्ष के साथ ही नए प्रधानमंत्री पद के लिए उचित नाम सुझाने को कहा तो उन्होंने पहला नाम शंकर दयाल शर्मा का लिया। लेकिन शर्मा ने अपनी उम्र और खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब हक्सर ने सोनिया के सामने नरसिम्हा राव का नाम प्रस्तावित किया। राव की जीवनी लिखने वाले विनय सीतापति ने अपनी किताब हाफ लायन में कहा है कि राव ने सोनिया का ऑफर स्वीकार कर लिया।
इधर, 18 जून 1991 को चुनाव नतीजे आए तो कांग्रेस 521 में से 232 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। हालांकि, राजीव की हत्या के बाद से ही प्रधानमंत्री पद के लिए पार्टी के नेताओं के बीच दांव-पेंच खेले जाने लगे थे। शरद पवार, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी जैसे नाम उछले। उधर, हक्सर के सुझाव पर राजीव गांधी के मित्र सतीश शर्मा ने भी सहमति जताई तो सोनिया ने नरसिम्हा राव को कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनाने का फैसला कर लिया। 21 जून को पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और 16 मई, 1996 का पूरा कार्यकाल बिताया। लेकिन इस बीच राव और सोनिया के बीच अनबन होने लगी। सोनिया ने सोचा था कि राव उन्हें रिपोर्ट करेंगे, लेकिन राव ने सरकार के मुखिया के तौर पर सोनिया को रिपोर्ट करने को उचित नहीं समझा। सोनिया को यह रास नहीं आया और उनकी राव से अनबन हो गई। इसी बीच सरकार ने बोफोर्स घोटाले में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दे दी। हाई कोर्ट ने घोटाले में राजीव गांधी पर लगाए गए सीबीआई के आरोपों को खारिज कर दिया था। इसने राव से सोनिया के मनमुटाव को दुश्मनी में तब्दील कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 1996 में नरसिम्हा राव कांग्रेस अध्यक्ष पद से भी हटा दिए गए।
चार दशक से भी ज्यादा की लंबी पारी खेलने के बाद कांग्रेस को हाल ही में अलविदा कहने वाले दिग्गज नेता गुलाम नबी आजाद ने हमारे सहयोगी न्यूज चैनल टाइम्स नाउ नवभारत से बातचीत में राव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने की पूरी घटना बताई। उन्होंने नरसिम्हा राव की खूब तारीफ भी की। आजाद बोले, ‘वो बड़े बुद्धिमान थे, ज्ञानी थे, हर भाषा जानते थे, अनुभवी थे। उस मामले में उनका कोई जवाब नहीं था। उनके वक्त में आर्थिक सुधार हुए जो अविश्वसनीय था। हम कहते भी हैं कि नरसिम्हा राव हमारे सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्रियों में एक हैं।’
वो आगे कहते हैं, ‘लेकिन दुर्भाग्य से संगठन में उनकी कोई रुचि नहीं थी। इस कारण हर वर्किंग कमिटी में हम ये बात उठाते थे। शुरू-शुरू में मैं अकेले उठाता था, बाद में मेरे साथ करुणाकरण, भास्कर रेड्डी, शरद पवार, राजेश पायल, माधव राव सिंधिया भी जुड़ गए। ये वर्किंग कमिटी में भी थे और मिनिस्टर भी थे। इस तरह हम आठ हो गए। हमारी वर्किंग कमिटी की मीटिंग हर तीन महीने के बाद होती थी। हम हर मीटिंग में कहते थे कि प्रखंड, जिला और प्रदेश स्तर की समितियां नहीं बन रही हैं। हम नरसिम्हा राव से कहते थे कि आप संगठन को नजरअंदाज कर रहे हैं। आप अध्यक्ष पद से हट जाइए, दूसरे को बनाइए। एक साल उन्होंने टरकाया। फिर हमने कहा कि वर्किंग प्रेजिडेंट बना दीजिए। तो उन्होंने कहा कि नाम दे दो। हमने कहा कि वर्किंग प्रेजिडेंट वही बनेगा जो मिनिस्ट्री छोड़ेगा। एक साल उसमें भी निपटाया। फिर हमने कहा कि वाइस प्रेजिडेंट बनाओ। वो भी नाम मांगे उन्होंने और एक साल तक नहीं बनाया।’
आजाद कहते हैं कि तब तक चुनाव आ गया और कांग्रेस पार्टी हारकर सत्ता से निकल गई। उन्होंने कहा, ‘चुनाव हारने के बाद जो पहली वर्किंग कमिटी मीटिंग हुई तब हमने तय किया कि नरसिम्हा राव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए। इसका जो ड्राफ्ट बना, उसमें यह कहा गया कि आप राव प्रधानमंत्री तो शानदार थे, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष बिल्कुल बेकार। कोई साथी आगे आने को तैयार नहीं था, तब मैंने हिम्मत दिखाई।’ आजाद कहते हैं कि मैंने राव साहब को अंग्रेजी में कहा कि आपने बतौर प्रधानमंत्री शानदार काम किया। आपके आर्थिक सुधार एक मजबूत भारत की नींव रखेंगे, लेकिन दुर्भाग्य से ना प्रखंड स्तर की, ना जिला स्तर की और ना प्रदेश स्तर की ही कांग्रेस कमीटियां गठित हुईं और हम संगठन के अभाव में लोगों तक आपकी सरकार के अच्छे काम जनता तक पहुंचा नहीं सके और चुनावों में हमारी हार हो गई।
आजाद कहते हैं कि उन्होंने राव साहब से कहा कि आप जितने अच्छे प्रधानमंत्री थे, उससे भी ज्यादा खराब कांग्रेस अध्यक्ष। आपको संगठन में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। इसलिए हम आपसे आग्रह करते हैं कि आप तुरंत कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दें। गुलाम नबी आजाद कहते हैं, ‘यह आरोप था नरसिम्हा राव पर। इसीलिए सीताराम केसरी जी भी आए तो उनका पब्लिक एक्सपोजर नहीं था। लेकिन राव साहब को और केसरी जी को एक क्रेडिट जाता है कि दोनों ने पांच साल का कार्यकाल पूरा होते ही कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव करवाए।’