स्वामी विवेकानंद की सबसे बड़ी कमजोरी उनका भोजन था. विवेकानंद मानते थे कि भोजन के लिए किसी भी जानवर की जान लेना उचित नही है लेकिन फिर भी वह मटन और मछली खाते थे. उन्हें हिल्सा मछली, आइसक्रीम, चाय और घी की मिठाई बहुत पसंद थी.
और यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद धुम्रपान भी करते थे, और विवेकानंद अपने इस आदत से परेशान थे. आज स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन है पर मैं लेख की शुरुआत विवेकानंद की कमजोरी से क्यों शुरू कर रहा हूँ.
इसका कारण बहुत ही सरल है, कुछ ऐसे लोग हैं जो विवेकानंद को भगवान बनाने की कोशिश करते है. भगवान बनाने में दिक्कत यह हो जाती कि हम उनके गलतियों पर बात करना पाप समझते हैं. लेकिन जब आप किसी महापुरुष से सीखना चाहते है तब हमे उसने सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही साइड को देखना होता है. कमियों और खूबियों दोनो से ही सीखने का प्रयास करना चाहिए.
क्या थे स्वामी विवेकानंद के विचार
स्वामी विवेकानंद एक जोशिले, समाजवादी, सेकुलर आडम्बर विरोधी और मानवता प्रेमी व्यक्ति थे. विवेकानंद की सबसे बड़ी खासियत जो मुझे पसंद आती है वह है कर्म पर विश्वास करते है. वह तथाकथित संतो की तरह गरीबी, भूखमरी पर यह नही कहते कि यह तो भगवान की मर्जी है, या फिर भगवान ऐसा ही चाहता था. विवेकानंद जी एक बार स्वामी विवेकानंद के लिए जीवन में प्रथम उद्देश्य था मानव समाज का उद्धार.
क्या था गौ-रक्षक का किस्सा
इससे संबंधित एक दिलचस्प किस्सा है. जिसमे वह गौ-रक्षक पर टूट पढ़ते है. किस्सा कुछ इस प्रकार से है कि एक बार रामकृष्ण परमहंस से मिलने कुछ भक्त आए थे. उसके बाद वहाँ कुछ गौ-रक्षक प्रचारक भी आए. एक गौ-रक्षक से स्वामी विवेकानंद की बात होने लगी. स्वामी जी ने गौ-रक्षक से पूछा आपका उद्देश्य क्या है. तो गौ-रक्षक प्रचारक ने कहा कि देश भर में गोमाताओं को कसाइयों के हाथों से बचाते हैं. विवेकानंद ने पूछा उनकी पूंजी का जरिया पूछा तो उन्होंने बताया कि मारवाड़ी वैश्य समाज उनको पर्याप्त धन दे देता है. विवेकानंद ने पूछा कि अभी मध्य भारत के बहुत भयंकर बाढ़ आई थी जिसमे नो लाख लोग बिना अन्न ग्रहण किए मर गए उनके बारे में आपने क्या किया. तो इस पर गौ-रक्षक ने कहा कि हम अकाल आदि में लोगों की सेवा नही करते क्योंकि यह लोगों की कर्मों का नतीजा है, जैसा लोग करेंगे वैसा ही भरेंगे. इस पर स्वामी विवेकानंद गुस्से में आ गए और बोले कि मुझे ऐसे समितियों रत्तीभर सहानुभूति नही जो अपने भाईयों को मुठ्ठी भर अन्न देकर उन्हें बचा नही सकता. विवेकानंद जी ने तर्क के साथ उसे बताया कि जैसे इन्सान अपने कर्मो का फल बाढ़ के वजह से पा रहा है वैसे ही ऐसा भी तो हो सकता है कि गाय ने भी कुछ ऐसा कर्म किया हो जिससे उनको इस जन्म में कसाई सजा दे रहा हो.
गौ-रक्षक जब कुछ सोच न सके तो उन्होंने कहा कि शास्त्रों में लिखा है कि गाय हमारी माता है, तो विवेकानंद ने कहा सच बात है अगर ऐसा ना होता तो ऐसी विलक्षण संतान को और कौन जन्म दे सकता है. इसे कहते है देशी ठग लाइफ. विवेकानंद जी के मैं तो ठहरा संन्यासी फकीर, मेरे पास रुपैया पैसा कहां कि मैं आपकी सहायता करूंगा? लेकिन यह भी कहे देता हूं कि अगर मेरे पास कभी पैसा हुआ तो सबसे पहले उसे इंसान की सेवा के लिए खर्च करूंगा. सबसे पहले इंसान को बचाना होगा- अन्नदान, विद्यादान, धर्मदान करना पड़ेगा. ये सब करने के बाद अगर पैसा बचा तब ही आपकी समिति को कुछ दे पाऊंगा. विवेकानंद का यह जवाब सुनकर गोरक्षक चले गए.
विवेकानंद के कुछ किस्से
दैनिक भास्कर में कुछ किस्से यहा देना उचित है. स्वामी जी ने शिकागो की धर्म संसद में भाषण देकर दुनिया को ये एहसास कराया कि भारत विश्व गुरु है. अमेरिका जाने से पहले स्वामी विवेकानंद जयपुर के एक महाराजा के महल में रुके थे. यहां एक वेश्या ने उन्हें एहसास कराया कि वह एक संन्यासी हैं.
स्वामी के स्वागत को बुलाई गई थी वेश्या
जयपुर के राजा विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस का भक्त था. विवेकानंद के स्वागत के लिए राजा ने एक भव्य आयोजन किया. इसमें वेश्याओं को भी बुलाया गया. शायद राजा यह भूल गया कि वेश्याओं के जरिए एक संन्यासी का स्वागत करना ठीक नहीं है. विवेकानंद उस वक्त अपरिपक्व थे. वे अभी पूरे संन्यासी नहीं बने थे। वह अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे. जब उन्होंने वेश्याओं को देखा तो अपना कमरा बंद कर लिया. जब महाराजा को गलती का अहसास हुआ तो उन्होंने विवेकानंद से माफी मांगी.
कमरे में बंद हो गए थे स्वामी जी
महाराजा ने कहा कि उन्होंने वेश्या को इसके पैसे दे दिए हैं, लेकिन ये देश की सबसे बड़ी वेश्या है, अगर इसे ऐसे चले जाने को कहेंगे तो उसका अपमान होगा. आप कृपा करके बाहर आएं. विवेकानंद कमरे से बाहर आने में डर रहे थे. इतने में वेश्या ने गाना गाना शुरू किया, फिर उसने एक संन्यासी भाव का गीत गाया. गीत बहुत अच्छा था. गीत का अर्थ था- ”मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्यादा करूणामय हो सकते थे. मैं राह की धूल सही, यह मालूम मुझे. लेकिन तुम्हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्मक नहीं होना चाहिए. मैं कुछ नहीं हूं. मैं कुछ नहीं हूं. मैं अज्ञानी हूं. एक पापी हूं. पर तुम तो पवित्र आत्मा हो. तो क्यों मुझसे भयभीत हो तुम?’