चीन के हाव भाव देखकर पता चलता है कि चीन भारत से युद्ध जाता है! अरुणाचल प्रदेश में तवांग के पास यांग्त्से में भारत और चीन के सैनिकों के बीच जानलेवा नहीं मगर गंभीर झड़प की खबरें छन-छनकर आने लगी है। आम भारतीय एक बार फिर खुद से ये सवाल पूछने लगे हैं- आखिर चीन चाहता क्या है? क्या हम जून 2020 में गलवान घाटी जैसी झड़प की ओर बढ़ रहे हैं जिसमें दोनों पक्षों से मौतें हुई थीं? क्या पिछले दो सालों से बुरे दौर से गुजर रहे भारत-चीन रिश्ते और भी ज्यादा बिगड़ेंगे?
सभी सवाल बहुत लाजिमी भी हैं। इनका जवाब बहुत सूझबूझकर दिए जाने की जरूरत है न कि बिना सोचे-समझे किसी तरह की तत्काल प्रतिक्रिया की। दोनों पक्षों के राजनीतिक नेतृत्व ने अपने-अपने सैन्य अफसरों को क्या निर्देश दिए हैं, यह देखना महत्वपूर्ण है।
यह याद रखने की जरूरत है कि एलएसी पर कभी भारत और चीन संयुक्त रूप से सहमत नहीं रहे। लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल कहां किस जगह से जा रही है, इसे लेकर कभी सर्वसम्मति नहीं रही। पहाड़ी इलाके के कुछ हिस्सों में एलएसी को लेकर दोनों ही पक्षों की एक दूसरे से अलग धारणा है। कुछ ऐसे इलाके हैं जिस पर दोनों ही पक्ष अपना दावा करते हैं।
ऐसे इलाकों में पट्रोलिंग के दौरान दोनों देशों के सैनिक अक्सर आमने सामने आ जाते हैं क्योंकि दोनों ही पक्षों को लगता है कि वे तो सिर्फ अपने इलाके में गश्त कर रहे हैं लेकिन दूसरा पक्ष अतिक्रमण कर रहा है। दोनों पक्ष के सैनिकों को लगता है कि दूसरा उनके इलाके में घुस आया है। इससे पहले भी बड़ी संख्या में गश्त पर आए दोनों ओर के सैनिकों के आमने-सामने आने पर हाथापाई और धक्कामुक्की की घटनाएं हो चुकी हैं। पिछले कुछ सालों में इस तरह की घटनाएं बढ़ चुकी हैं और झड़प भी तेज हो रही जिससे दोनों ओर के सैनिक जख्मी हो रहे हैं। यांग्त्से वैसे ही इलाकों में से एक है जहां एलएसी को लेकर भारत और चीन की धारणाएं अलग-अलग हैं। दोनों ओर के सैनिकों के बीच धक्कामुक्की, हाथापाई जैसी घटनाएं अब बार-बार क्यों हो रही हैं?
क्योंकि चीन ने पीएलए के पास अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर इस हद तक सुधारा है कि पीएलए के सैनिक बहुत तेजी से उसके दावे वाले इलाकों में पहुंच सकते हैं।
चीन अपने सैनिकों को सीमा के पास बढ़ाने में सक्षम है, सबसे अहम बात ये है कि पीएलए इसमें इसलिए सक्षम है कि उसे उसके नेतृत्व से हिदायत मिली है कि चीन के एक-एक इंच जमीन की हिफाजत करनी है, चीन और उसके सैनिक न सिर्फ ज्यादा मुखर हैं बल्कि वे ज्यादा आक्रामक भी हैं!
यह भी सच है कि भारत ने भी एलएसी के करीब अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर में काफी सुधार किया है और भारीय सेना भी अपने सैनिकों और साजो-सामान को पहले के मुकाबले तेजी से बॉर्डर तक पहुंचाने में सक्षम है।लेकिन भारत की ओर जो भूभाग है वह ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों वाला है जहां सड़क बनाना और उस पर लोगों और साजो-सामान को ट्रांसपोर्ट करना दोनों ही बहुत मुश्किल है।
-दूसरी तरफ, चीन की ओर भूभाग ऐसा है जहां आसानी से निर्माण और ट्रांसपोर्ट हो सकता है। वहां तिब्बती पठार का इलाका है जहां इन्फ्रास्ट्रक्चर विकिसित करना और ट्रांसपोर्टेशन मुश्किल नहीं है।
आपके मन में ये सवाल आ सकता है कि दोनों पक्ष यह सुनिश्चित क्यों नहीं करते कि एलएसी को लेकर दोनों की समझ समान हो जाए यानी दोनों पक्ष सहमत हो जाएं कि एलएसी वास्तव में कहां है? क्या इससे तवांग जैसी झड़पों और हाथापाई की घटनाओं में भी कमी नहीं आएगी?
दरअसल, 1990 के दशक से ही भारत अपने पड़ोसी चीन को ठीक यही प्रस्ताव देता आया है। अगर हम एलएसी को लेकर सामान्य धारणा बनाने में कामयाब होते हैं खासकर विवाद वाले इलाकों पर तो इससे झड़प जैसी स्थितियों की नौबत ही नहीं आएगी। पट्रोलिंग को लेकर अक्सर सैनिकों के आमने-सामने आने की घटनाएं तत्काल रूक जाएंगी। इससे सीमा पर और ज्यादा शांति और स्थिरता आएगी।
हालांकि, एलएसी को स्पष्ट और परिभाषित करने की कवायदों में लगातार रोड़ा अटकाता रहता है। इसके पीछे शायद उसका डर है कि अगर एलएसी को लेकर दोनों पक्षों में समान समझ बन गई तो इस रेखा को ही दोनों देशों के बीच बॉर्डर मान लिया जाएगा जो शायद उन्हें मंजूर न हो। एलएसी को स्पष्ट करने के लिए भारत की सलाह है कि दोनों पक्ष बिना किसी पूर्वाग्रह के सहमति पर पहुंचने की कोशिश करें लेकिन चीन इसे अनसुना करता आया है।
चीन के इस रुख के पीछे शायद एक और वजह ये हो सकती हैं बीजिंग को लगता है कि वह ताकत का इस्तेमाल करके एलएसी पर एकतरफा और मनचाहा बदलाव कर सकेगा। पूर्वी लद्दाख में उन्होंने शातिराना अंदाजा में ठीक यही कोशिश की थी लेकिन हमारे सैनिकों ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए उसे नाकाम कर दिया था। लेकिन, उसके बाद सीमा पर शांति बहाल करने और सैनिकों के पीछे हटने की प्रक्रिया पिछले दो सालों से चल ही रही है। बातचीत से अब कुछ इलाकों में बफर जोन पर सहमति बनी है जिस पर दोनों ही पक्ष की ओर पट्रोलिंग नहीं हो रही।
तो, क्या यांग्त्से पश्चिमी अरुणाचल में चीनी सैनिकों की तरफ से पूर्वी लद्दाख जैसी हिमाकत का पूर्व संकेत हैं? दोनों देशों में जिस तरह अविश्वास की खाई बढ़ रही है उसे देखते हुए इस आंकलन को गलत नहीं कहा जा सकता। 9 दिसंबर की घटना क्या इस तरह की कोई छिटपुट घटना है या इसके पीछे कोई पैटर्न हो सकता है, ये तो समय ही बताएगा। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं हो सकता कि भारत को पूरे एलएसी पर अपनी सैन्य तैयारी हाई लेवल की रखने की जरूरत है। साथ ही साथ चीनी सैनिकों के मूवमेंट, उनकी कार्रवाई पर करीबी नजर रखने और उनकी मंशा समझने की जरूरत है।