जेडीयू अब आरक्षण वाले दाव पर बीजेपी से मजबूत हो चुकी है! नीतीश कुमार ने वाकई हिम्मत दिखाई है। न केवल बिहार में जाति सर्वेक्षण करवाया बल्कि इसके आंकड़े भी सार्वजनिक कर दिए। अब तो सर्वे रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर भी रख दिया गया। आप कहेंगे इसमें हिम्मत दिखाने वाली कौन सी बात है? तो यह जान लीजिए, कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकार ने प्रदेश में इसी तरह का जाति सर्वेक्षण करवाया था। लेकिन सर्वे में क्या आंकड़े आए, आज तक सार्वजनिक नहीं कर पाई। विधानसभा के पटल पर रखना तो दूर की कौड़ी है। कर्नाटक में कास्ट सेंसस करवाने वाली कांग्रेस सरकार सत्ता से चली गई। बीजेपी की सरकार आई। वो भी चली गई। कांग्रेस की सरकार फिर से बन गई है, लेकिन जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट ऐसे दबाए बैठी है कि बिल्कुल सन्नाटा। इधर, कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी कह रहे हैं कि जिन प्रदेशों में उनकी सरकार बनेगी, वहां जाति सर्वेक्षण करवाया जाएगा। अभी पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ही सरकार है। वहां ऐलान हो चुका है कि चुनाव बाद भी सत्ता कायम रहती है तो जाति सर्वेक्षण करवाए जाएंगे। अगर मध्य प्रदेश, तेलंगाना और मिजोरम में कांग्रेस की सरकार बन गई तो वहां भी यही होगा। यह बहस का विषय है कि जाति सर्वेक्षण से क्या कांग्रेस को फायदा हो पाएगा?
बहरहाल, बात बिहार के सीएम नीतीश के साहसिक कदम की। उन्होंने जाति सर्वेक्षण का दांव चलकर कदम पीछे नहीं किया तो आज देर से ही सही, बीजेपी को भी उनकी लाइन लेनी पड़ी। अब बीजेपी यह कह रही है कि दरअसल बिहार में जाति जनगणना करवाने का फैसला तभी लिया गया था जब वो जेडीयू के साथ गठबंधन में सरकार चला रही थी। बाद में नीतीश ने बीजेपी से नाता तोड़कर आरजेडी का रुख कर लिया। कुल मिलाकर कहें तो जाति सर्वे पर बीजेपी का सुर बदल गया है। इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि पहले बीजेपी जाति सर्वेक्षण को लेकर विपक्ष पर ‘बांटो और राज करो’ की ‘अंग्रेजी नीति’ अपनाने का आरोप लगा रही थी। संभव हो वो आगे भी कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों पर हिंदू समाज में विभाजन का आरोप मढ़ती रहे, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि अब वो जातिगत सर्वेक्षण का मुखर विरोध करने में मूड में नहीं है।
दरअसल, बीजेपी के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा अन्य पिछड़ी जातियों ओबीसी का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं ने ओबीसी मतदाताओं के बड़े वर्ग को बीजेपी के साथ फिलहाल स्थायी तौर पर जोड़ दिया है। नीतीश समेत तमाम क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के लिए यही चुनौती है कि वो हिंदू और खासकर ओबीसी वोटों का बंटवारा कैसे करवाए। इसका फॉर्म्युला जाति जनगणना में दिखा और नीतीश ने सबसे आगे बढ़कर दांव चल दिया। अब कांग्रेस को लगता है कि जाति सर्वे के रूप में उसके हाथ अलादीन का चिराग लग गया है। खासकर राहुल गांधी को इस सूत्र पर ज्यादा ही यकीन है। यह अलग बात है कि पिछड़ों की राजनीति में कांग्रेस को बेइंतहा नुकसान के उदाहरण भरे पड़े हैं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के जवाब में बीजेपी ने तो कमंडल की राजनीति करके संतुलन साध लिया था। उधर, मंडल रिपोर्ट लागू होते ही दलितों-पिछड़ों की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों की बाढ़ आ गई। बिहार और उत्तर प्रदेश में तो यह राजनीति खूब फली-फूली भी।
एक तरफ 2014 से नरेंद्र मोदी सरकार की गरीब हितैषी योजनाएं और दूसरी तरफ बीजेपी की दलितों-पिछड़ों, खासकर ओबीसी वोटरों के बीच धाक जमाने के प्रयासों ने रंग लाना शुरू किया। देखते ही देखते, बीजेपी ने ब्राह्मण और बनियों की पार्टी होने का तमगा उतार फेंका। अब उसका सबसे बड़ा वोटर वर्ग है, गरीब, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाति सर्वेक्षण पर टिप्पणी में कहा- देश की सबसे बड़ी जाति है- गरीब। चुनावों में बार-बार मात खा रहे विपक्ष के लिए लक्ष्य स्पष्ट हो चुका है कि जब तक गरीब तबका बीजेपी के साथ है, तब तक उसे हराना मुश्किल है।
अब देखिए, बिहार का जाति सर्वेक्षण कहता है कि पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी 33.16% और अत्यंत पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी 33.58% के गरीब परिवारों को जोड़ दिया जाए तो आंकड़ा 66.74% तक पहुंच जाता है। यह बहुत बड़ा वोटर वर्ग है और लोकसभा चुनाव नजदीक है। इसलिए नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना करवाकर विपक्षी दलों को एक सूत्र दे दिया। हालांकि, इस फॉर्म्युले का लिटमस टेस्ट चुनावों में ही हो पाएगा। क्या जाति जनगणना करवाकर यह बता देने भर से कि देखो- तुम कितने गरीब हो, क्या कोई जाति मतदान केंद्रों पर अपना फैसला बदल लेगी? यह गंभीर सवाल है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी को कुछ हद तक ही सही, मजबूर तो जरूर कर दिया।