वर्तमान में बीजेपी के अंदर जीत की भूख जाग चुकी है! यूपी और हिमाचल प्रदेश में राज्यसभा चुनाव में बीजेपी की अप्रत्याशित कामयाबी इस बात का एक और संकेत है कि बीजेपी में किस हद तक जीत की भूख है। वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती। हालांकि, कर्नाटक में वह अपना घर नहीं संभाल पाई जहां उसके दो विधायकों ने या तो क्रॉसवोटिंग किया या फिर वोटिंग से नदारद रहा। यूपी और हिमाचल में पार्टी की रणनीनित इतनी तगड़ी थी कि उसे सपा और कांग्रेस के कई विधायकों का समर्थन हासिल हुआ। इस तरह उसकी झोली में राज्यसभा की 2 अतिरिक्त सीटें भी आ गईं। यूपी के नतीजे से कोई सियासी भूचाल तो नहीं आया लेकिन हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के बाद निकट भविष्य में कांग्रेस सरकार के गिरने का खतरा पैदा हो गया है। पहला, भाजपा को अपनी पहले से मजबूत स्थिति को और भी मजबूत बनाने के प्रयास को देखते हुए भी विपक्ष एकजुट क्यों नहीं हो पा रहा है? दूसरा, क्या विपक्ष में महत्वाकांक्षा की कमी है जो मोदी की अति महत्वाकांक्षा का मुकाबला कर सके? और तीसरा, क्या केंद्र में भाजपा का बढ़ता वर्चस्व और उन राज्यों में उसकी सेंध जहां वह पहले कमजोर थी, हमें एक-दलीय राज्य की ओर ले जा रहा है? आखिरी सवाल का जवाब सबसे पहले। भारत 1947 से 1964 तक काफी हद तक एक-व्यक्ति, एक-दलीय राज्य था, जब नेहरू की कांग्रेस का शासन था। उन्होंने केंद्र और राज्यों दोनों में पार्टी और सरकार दोनों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया था। भाजपा उस स्तर के वर्चस्व के आसपास भी नहीं है, लेकिन वह गैर-संघ परिवार के तत्वों को अपने दायरे में शामिल करके वहां पहुंचने की उम्मीद कर रही है, जबकि साथ ही दक्षिण जैसे अब तक कमजोर क्षेत्रों में विस्तार करने की कोशिश कर रही है।
नेहरू और मोदी युग में कॉमन क्या है? दोनों का जनता से सीधा जुड़ाव रहा है, जिससे उनकी पार्टियों को वोट जुटाने में आसानी हुई। नेहरू ने सभी तरह के विचारों को समायोजित करने के लिए एक व्यापक मंच बनाया था। ठीक उसी तरह बीजेपी गैर-संघ परिवार के नेताओं को शामिल करके ऐसा करने का प्रयास कर रही है। क्या भारत एक-दलीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है? इसका सीधा जवाब यह है कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि 2024-29 के बीच बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जैसा दूसरा नेता बनाने में सफल होती है या नहीं, और क्षेत्रीय विपक्ष की ताकत पर भी निर्भर करता है। बीजेपी उन राज्यों में विस्तार करने की उम्मीद कर रही है जहां कुछ क्षेत्रीय दल कमजोर हो रहे हैं (उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक AIADMK, बंगाल और त्रिपुरा में सीपीएम। लेकिन जब तक क्षेत्रीय दल आपस में विकल्प प्रदान करते रहेंगे, तब तक बीजेपी राज्य की राजनीति पर उसी तरह हावी नहीं हो पाएगी, जैसा कि वह अभी दिल्ली में कर रही है। इसलिए, यह कहना मुश्किल है कि क्या हम एक-दलीय व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।
असली सवाल यह है कि यदि बीजेपी इस मई में बड़ी जीत हासिल करती है तो विपक्ष अब से लेकर मोदी के कार्यकाल समाप्त होने तक (2029 के बाद कभी) के बीच क्या करता है? विपक्ष अपने कुछ क्षेत्रीय गढ़ों से आगे अपना आधार क्यों नहीं बढ़ा पा रहा है, जिनमें से कुछ अब कमजोर भी दिख रहे हैं? विपक्ष की अगर कोई सबसे कमजोर कड़ी है तो वह है कांग्रेस जो उन राज्यों में भी प्रभावी जवाब देने में सक्षम नहीं रही है, जहां केवल दो राष्ट्रीय पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। मोदी-विरोधी गठबंधन की मुश्किल बढ़ाने वाला एक और फैक्टर है विपक्ष के पास कोई राजनीतिक संदेश ही नहीं है। मतदाता को पता है कि भानुमति का पिटारा वाला गठबंधन टिकने से रहा तो आखिर उसे अगर वोट दें तो उसका कोई कारण तो होना चाहिए। विपक्षी गठबंधन वोटरों को ऐसा कोई भी स्पष्ट संदेश देने में नाकाम रहा है कि अगर वे जीत भी जाते हैं तो कैसे काम करेंगे? यही नहीं, वोटर के पास इसके लिए पुख्ता कारण भी होना चाहिए कि वह उसे क्यों छोड़े जो पहले ही उसके हाथ में है यानी मोदी की गारंटी। सिर्फ ये हल्ला करना कि मोदी तानाशाह हैं और फासीवादी हैं, आपको वोट नहीं दिला सकता। मोदी अगर काम करके दिखा रहे हैं तो वोटर पर विपक्ष के ऐसे हमलों का शायद ही कोई असर हो।
सवाल है कि क्या विपक्ष में राजनीतिक कामयाबी के लिए पर्याप्त महत्वाकांक्षा और भूख है? विपक्ष में कम से कम 4 से 5 नेता ऐसे हैं जिनकी नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। अगर गठबंधन जीतता है तो वे नेता खुद को पीएम के तौर पर देखना चाहते हैं। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा समस्या नहीं है। समस्या है बीजेपी की सकारात्मक महत्वाकांक्षा के बरक्स नकारात्मक महत्वाकांक्षा। जब बीजेपी ‘मोदी की गारंटी’ की बात करती है तब वह अपने नेता के करिश्मा को सामने रखती है और जनसमूह की आकांक्षा को पूरा करने का सपना दिखाती है। मोदी से अंधी नफरत और जातिगत या क्षेत्रीय ध्रुवीकरण की बदौलत विपक्ष चुनाव नहीं जीत सकता क्योंकि बीजेपी इसे हिंदुत्व और विकास के जरिए काउंटर कर देगी।बीजेपी ने हिंदू जातियों और समुदायों का एक बड़ा गठबंधन बना लिया है, और यहां तक कि कुछ ईसाई समूहों और पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ विपक्ष दो अल्पसंख्यक समुदायों खासकर मुसलमानों की नकारात्मक भावनाओं पर निर्भर है। इससे भी बदतर स्थिति तब होती है जब अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में विपक्ष जाने-अनजाने में खुद को हिंदू विरोधी के तौर पर पेश कर देता है। चुनाव से पहले मंदिर जाने से भी हिंदू मतदाताओं के इस संदेह को दूर नहीं किया जा सकता है कि अल्पसंख्यकों को विशेष लाभ दिए जा रहे हैं। आप केवल नकारात्मक भावनाओं को भड़काकर चुनाव नहीं जीत सकते।